Kanakdas Ka Kavya
Author:
KanakdasPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 140
₹
175
Unavailable
कनक द्वारा रचित कीर्तन अद्भुत हैं। पौराणिक कथा-सन्दर्भ के सहारे कृष्ण के दशावतार का पहेलीबद्ध ढंग से वर्णन करना कनक काव्य-शैली की विशेषता है। भगवान कृष्ण के चरित्र के आन्तरिक सम्बन्धों का गाँठदार वर्णन और घुमावदार रूप चित्रण-शैली कन्नड़ में मुंडिगे कहलाती है। कवि कनक मुंडिगे लेखन में सिद्धहस्त हैं। कनकदास द्वारा मुंडिगे-शैली का अत्यन्त सशक्त ढंग से प्रयोग और वर्णन से लगता है—यह शैली उनके लिए, जात के आधार पर पांडित्य का और काव्यज्ञान का अहंकार बघारनेवाले समकालीन पंडितों की टक्कर में, अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति-कुशलता को दर्शाने का ज़रिया मात्र थी। कनक की मुंडिगे के अनेक सुन्दर नमूने मिलते हैं। सम्पूर्ण भक्ति साहित्य में कनक के समान मुंडिगे रचयिता विरले ही हैं। अलंकारों के समृद्ध प्रयोग में कनक का सानी दूसरा नहीं।</p>
<p>विष्णु के दशावतार का वर्णन और अवतारी कृष्ण के नाना लीलाओं का वर्णन कनकदास ने बहुत ही रमकर एवं जमकर किया है। अपने आराध्य देव की स्तुति में कनक कहीं भी कोताही नहीं करते। लगता है, स्तुति के लिए अलग-अलग प्रसंगों की खोज में कनक लगे ही हुए हैं। अपने सगुण साकार सुन्दर और धीरशूर आराध्य देव के हर रूप का, हर कलाओं का वैभवमय वर्णन करते हैं। दास साहित्य के श्रेष्ठ कवि कनकदास भगवान की स्तुति में, रूप वर्णन में प्रेमी कृष्ण और प्रेमिका राधा के मध्य की रागात्मक और माधुर्य सम्बन्धों का आधार लेते हैं। प्रेमिका राधा, प्रोषितपतिका राधा, मिलनाकांक्षी राधा ऐसे अनेक रूपों के द्वारा कृष्ण के विविध अवतारों का मुंडिगे-शैली में वर्णन करते हैं। इन लीला-वर्णनों में स्तुति-निन्दा काव्य-रूढ़ि का भी अत्यन्त ही आत्मीय और अद्भुत प्रयोग कनक ने किया है। ‘कनकदास का काव्य’ पुस्तक में ऐसे ही कनक रचित सुन्दर कन्नड़ मुंडिगे का अनुवाद हिन्दी पाठकों के लिए प्रस्तुत किया गया है।</p>
<p>—प्रो. परिमला अंबेकर
ISBN: 9788183618830
Pages: 64
Avg Reading Time: 2 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: ‘सूरीनाम का सृजनात्मक हिन्दी साहित्य' भारत से चौदह हज़ार चार सौ अट्ठारह किलोमीटर दूर दक्षिण अमरीका के उत्तरी-पश्चिमी शीर्ष पर कैरेबियन सागर के तट पर बसे सूरीनाम देश के प्रवासी भारतीयों की सृजनात्मक अभिव्यक्तियों का प्रामाणिक संकलन है। इस पुटक का पहला खंड सूरीनाम में हिन्दी के विकास और स्वरूप का परिचय देता है और सूरीनाम के सृजनात्मक साहित्य का एक संक्षिप्त अनुशीलन प्रस्तुत करता है। दूसरा खंड साहित्य संचयन का है जिसमें सूरीनाम के 27 प्रतिशत साहित्यकारों की विभिन्न विधाओं में लिखी रचनाएँ आपको पढ़ने को मिलेंगी। प्रस्तुत संकलन की एक विशिष्टता यह भी है कि इस संकलन में आपको सनामी हिन्दी की रचनाएँ पहली बार पढ़ने को मिलेंगी। भारत से हज़ारों मील दूर स्थित एक देश में लिखी ये रचनाएँ प्रवासी भारतीयों की संघर्ष-कथा का साहित्यिक दस्तावेज़ हैं जिनका ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय महत्त्व है। ये रचनाएँ हिन्दी के विश्वव्यापी स्वरूप का परिचय भी देती हैं।
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Hindi Gadya Lekhan Mein Vyangya Aur Vichar
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व्यंग्य क्या है? उसका हास्य से क्या सम्बन्ध है? वह एक स्वतंत्र विधा है या समस्त विधाओं में व्याप्त रहनेवाली भावना या रस? वह मूलतः गद्यात्मक क्यों है, पद्यात्मक क्यों नहीं? वह बैठे-ठाले क़िस्म की चीज़ है या एक गम्भीर वैचारिक कर्म? क्या व्यंग्यकार के लिए प्रतिबद्धता अनिवार्य है? यह प्रतिबद्धता क्या चीज़ है?...
ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो प्रायः पाठकों और समीक्षकों को ही नहीं, व्यंग्यकारों को भी स्पष्ट नहीं। उदाहरण के लिए, हरिशंकर परसाई व्यंग्य को विधा नहीं मानते थे। रवीन्द्रनाथ त्यागी पहले मानते थे, बाद में मुकर गए। शरद जोशी मानते थे, पर कहते हिचकते थे। नरेन्द्र कोहली मानते हैं और कहते भी हैं। ऐसे ही, कुछ व्यंग्यकार हास्य को व्यंग्य के लिए आवश्यक नहीं मानते, जो कुछ हास्य के बिना व्यंग्य का अस्तित्व नहीं मानते...
असलियत क्या है? इसे वही स्पष्ट कर सकता है, जो स्वयं एक अच्छा व्यंग्यकार होने के साथ-साथ कुशल समीक्षक भी हो। सुरेश कांत में इन दोनों का मणिकांचन संयोग है। अपनी इस प्रतिभा के बल पर उन्होंने अपने इस शोधपूर्ण कार्य में व्यंग्य के तमाम पहलुओं को उनके वास्तविक रूप में उजागर किया है। व्यंग्य का अर्थ, उसका स्वरूप, उसका प्रयोजन, उसकी पृष्ठभूमि, उसकी परम्परा, उसके तत्त्व, उसकी उपयोगिता आदि पर प्रकाश डालते हुए वे उसकी सम्पूर्ण संरचना उद्घाटित कर देते हैं, जिसके ‘अभाव’ के चलते परसाई को व्यंग्य विधा प्रतीत नहीं होता था। व्यंग्य की रचना-प्रक्रिया में वैचारिकता की भूमिका रेखांकित करते हुए वे व्यंग्य और विचार का सम्बन्ध भी स्पष्ट करते हैं। भारतेन्दु से लेकर अब तक के सम्पूर्ण हिन्दी-व्यंग्य-कर्म का ज़ायज़ा लेते हुए वे हिन्दी-व्यंग्य की ख़ूबियों और उसके समक्ष उपस्थित चुनौतियों को एक साथ प्रकट करते हैं।
आज एक ओर जहाँ व्यंग्य-लेखन एक ज़रूरी माध्यम के रूप में उभरा है, रचनात्मक-संवेदनात्मक स्तर पर उसका बहुआयामी विस्तार हुआ है, उसकी लोकप्रियता और माँग भी अपने चरम पर है, वहीं अधिकाधिक मात्रा और अल्पसूचना (शॉर्ट नोटिस) पर लिखे जाने के कारण उसकी गुणवत्ता प्रभावित होने का भारी ख़तरा भी मौजूद है। व्यंग्य चूँकि एक हथियार है, अतः उसका विवेकसंगत प्रयोग नितान्त आवश्यक है। हर किसी पर इस अस्त्र का उपयोग नहीं किया जा सकता। इसे किसी के पक्ष में प्रयुक्त करना है तो किसी के विरुद्ध। यह विवेक व्यंग्य के मूल में विद्यमान विचार से प्राप्त होता है। व्यंग्य विचार से पैदा भी होता है और विचार को पैदा भी करता है। इस वैचारिकता से दिशा प्राप्त कर मानवता के हित में व्यंग्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष सुनिश्चित करना आज व्यंग्यकारों का सबसे बड़ा कर्तव्य भी है और उनके समक्ष गम्भीर चुनौती भी—यही इस शोध का निष्कर्ष है।
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