Hindi Kavya Ka Ithas
Author:
Ramswaroop ChaturvediPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 320
₹
400
Available
हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास' (1986 : सोलहवाँ संवर्द्धित संस्करण : 2002) रामस्वरूप चतुर्वेदी की बहुपठित और चर्चित इतिहास-कृति है | साहित्य के गद्य-पक्ष का विस्तृत व्यौरेवार अध्ययन उन्होंने 'हिंदी गद्य : विन्यास और विकास' (1996) शीर्षक से प्रस्तुत किया | इस क्रम में कविता के स्वतंत्र आलोचनात्मक अध्ययन की अपेक्षा अभी थी | वह इस नयी कृति 'हिंदी काव्य का इतिहास' से पूरी होती है | यहाँ हिंदी कविता के विविध कालों, उनकी प्रवृतियों, और विशिष्ट रचनाकारों का क्रमबद्ध व्यवस्थित अध्ययन किया गया है | यों, कबीर से लेकर कविता के नवीनतम विकास-क्रम को उस की सूक्ष्म से सूक्ष्म भंगिमाओं में दरसाया जा सका है | प्रस्तुत अध्ययन में लेखक की पूर्व-प्रकाशित हुई कृतियों का, कुछ नये पर्यवेक्षण के साथ, संयोजन-संगमन कुछ इस रूप में हुआ है कि हिंदी कविता के सन्दर्भ में एक समग्र नया परिप्रेक्ष्य उभराता है, जिससे पूरी हिंदी कविता के संवेदनात्मक विकास, तथा उस के विशिष्ट कवियों को समझने में महत्वपूर्ण दृष्टि अध्येता इस कृति को सम्मान रुचि के साथ उपयोगी पाएँगे | यों, आलोचना की उपर्युक्त ये तीनों रचनाएँ परस्पर-सापेक्षता में स्वतंत्र-समग्र अध्ययन हैं, हिंदी साहित्य की संवेदनशील समझ बनाने के लिए |
ISBN: 9788180312038
Pages: 326
Avg Reading Time: 11 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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अशोक वाजपेयी निरे आलोचक नहीं, अज्ञेय, मुक्तिबोध, विजयदेव नारायण साही, कुँवर नारायण, मलयज आदि की परम्परा में कवि-आलोचक हैं। उनमें तरल सहानुभूति और तादात्म्य की क्षमता है तो सख़्त बौद्धिकता और न्यायबुद्धि का साहस भी। आधुनिक आलोचना में अपनी अलग भाषा की स्थायी छाप छोड़नेवाले वे ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने अज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर से लेकर रघुवीर सहाय, धूमिल, श्रीकान्त वर्मा, कमलेश, विनोदकुमार शुक्ल आदि के लिए अलग-अलग तर्क और औचित्य खोजे परिभाषित किए हैं। कविता की उनकी अदम्य पक्षधरता निरी ज़िद या एक कवि की आत्मरति नहीं है—वे प्रखरता से, तर्क और विचारोत्तेजन से, ज़िम्मेदारी और वयस्कता से हमारे समय में कविता की जगह को सुरक्षित और रौशन बनाने की खरी चेष्टा करते हैं।
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‘साथ-साथ’ मुख्यतः परिसंवादों का संकलन है। इन परिसंवादों में नामवर सिंह एक पक्ष के रूप में शामिल हुए हैं। परिसंवाद उपनिषदों और संगीतियों की परम्परा का ही आधुनिक रूप है। संवाद का सर्वाधिक लोकतांत्रिक रूप। इसमें वक्ता को वार्ताकारों के अन्य पक्षों के साथ अपनी बात कहनी होती है। यह एक तरह की बहुपक्षी जुगलबन्दी है।
पुस्तक में चार परिचर्चाएँ हैं। इनसे गुज़रते हुए हम सहज ही देख पाते हैं कि आलोचक के रूप में नामवर सिंह ‘संवाद’ को कितना महत्त्व देते थे। साथी वार्ताकारों के व्यक्तित्व और विचारों को पूरी विनम्रता के साथ सुनना, उनकी उपस्थिति को स्वीकारना और उनके विचारों को ‘लोकतांत्रिक’ जगह के भीतर ही तर्क-वितर्क की परिधि में लाना—उनके संवादी व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा था। सभी संवादों को एक साथ देखने पर हम पाते हैं, ये किसी एक विषय से बँधे नहीं हैं। बातचीत का समय भी दूर तक फैला हुआ है। इस अर्थ में यह पुस्तक एक राग-माला की तरह है। हिन्दी आलोचना के अनेक पक्षों के बीच नामवर जी की पक्षधरताएँ यहाँ स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई हैं।
पुस्तक में विशेष महत्त्व के दो साक्षात्कार सम्मिलित हैं। पहला साक्षात्कार रामविलास शर्मा से लिया गया है। रामविलास शर्मा से दूसरी बातचीत एक परिचर्चा है। पहली बातचीत के क्रम में इसे पढ़ने पर अनेक ऐतिहासिक बहसों के सन्दर्भ में रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की वैचारिक स्थिति स्पष्ट होती है। इस बातचीत से वामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच मौजूद स्वस्थ लोकतांत्रिकता और ईमानदार बहस-धर्मिता सामने आती है। स्पष्ट होता है कि हमारे समय में क्षीण हो रहे इस निर्भय आलोचनात्मक विवेक के बग़ैर वामपंथी विचार परम्परा का विकास नहीं हो सकता है।
Samajik Vimarsh ke Aaine Mein 'Chaak'
- Author Name:
Vijay Bahadur Singh
- Book Type:

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Description:
रेशम विधवा थी—ज़माने के लिए, रीति-रिवाजों के लिए, शास्त्र-पुराणों के चलते घर और गाँव के लिए। विधवा सिर्फ़ विधवा होती है, वह औरत नहीं रहती—फिर यह बात पता नहीं उसे किसी ने समझाई कि नहीं? और रेशम ने, विधवा रेशम ने गर्भ धारण कर लिया। मगर जब सास ने कौड़ी-सी आँखें निकालकर उसे देखा, यह कहते हुए—‘मेरे बेटा की मौत से दगा करनेवाली, हरजाई, बदकार तेरा मुँह देखने से नरक मिलेगा’, तो रेशम ने कहा—‘आज को तुम्हारा बेटा मेरी जगह होता तो पूछती कि तू किसके संग सोया था?...तुम ख़ुश हो रही होतीं कि पूत की उजड़ी ज़िन्दगी बस गई। पर मेरा फजीता करने पर तुली हो।’
उपन्यास के शुरुआती पृष्ठों पर ही सास और गर्भवती विधवा बहू के बीच यह दृश्य खड़ा कर मैत्रेयी ने पहली बार स्त्री की निगाह से देखने की पहल की है। अन्तत: हिन्दी आलोचना का चला आता सामाजिक व्याकरण यहाँ अचकचा उठता है और आलोचकों को अपना परम्परागत सामाजिक ऑनर याद आने लगता है, जिन्होंने घर-परिवार के घिसे-पिटे और सामाजिक जीवन में लाई जानेवाली फ़ॉर्मूलाई तरक़़ीबों और क्रान्तिभ्रष्ट क्रान्तियों के यथार्थ को अपने किसी साफ़-सुथरे और दिखावटी सच की तरह अब तक पाल-पोस रखा था। मैत्रेयी का लेखन नए सिरे से पढ़ने की ज़मीन तैयार करता है। यह भी पूछने का मन बनाता है कि महादेवी, तुम नीर और भरी दु:ख की बदली क्यों हो? क्यों इस विस्तृत नभ का कोई एक कोना भी तुम्हारा अपना नहीं है? क्या किसी आलोचक ने इसके सामाजिक-आर्थिक आशयों और आधारभूत ज़मीनी सच्चाइयों पर बात करना ज़रूरी माना? मैत्रेयी इस अर्थ में एक समर्पणशील विनयी लेखिका नहीं हैं। उनकी बनावट में यह है ही नहीं। किसी भी क़दम पर वे गुड़िया बनने को तैयार नहीं हैं। ‘चाक’ इस सम्बन्ध में उनके लेखन का घोषणा-पत्र भी है और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक दस्तावेज़ भी। यही इसका अन्तरंग चरित्र और औपन्यासिक शील भी है।
Hindi Bhasha Ka Udgam Aur Vikas
- Author Name:
Uday Narayan Tiwari
- Book Type:

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Description:
हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास’ में हिन्दी का ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक व्याकरण उपस्थित किया गया है। विवेचन के लिए परिनिष्ठित हिन्दी के रूप को लिया गया है। हिन्दी की विभिन्न बोलियों के सम्बन्ध में अब तक अल्प सामग्री ही प्रकाश में आई है। पुस्तक को दो भागों में विभक्त किया गया है। पूर्व पीठिका में भारोपीय से लेकर अपभ्रंश तथा संक्रातिकालीन भाषा की सामग्री दी गई है और उत्तरपीठिका में केवल हिन्दी भाषा का ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक व्याकरण दिया गया है।
पुस्तक की पूर्व पीठिका में भारोपीय वैदिक संस्कृति, पालि-प्रकृत आदि के सम्बन्ध में जो सामग्री दी गई है, उसे जाने बिना भाषा-विज्ञान का अध्ययन करना व्यर्थ का परिश्रम करना है। यह सामग्री केवल हिन्दी के भाषा विज्ञान के अध्ययन करनेवालों के लिए ही आवश्यक नहीं है, अपितु पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश के भी प्रारम्भिक अध्ययन के लिए आवश्यक है।
आशा है, हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत एवं पालि-प्रकृत के विद्यार्थी भी इससे लाभ उठाएँगे।
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