Hindi Kahani Ki Ikkisavin Sadi : Paath Ke Pare : Path Ke Paas
Author:
Sanjeev KumarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
लम्बे-लम्बे अन्तराल पर तीन-चार कहानियाँ ही मैं लिख पाया, पर लिखने की ललक बनी रही जिसने यह ग़ौर करनेवाली निगाह दी कि अच्छी कहानी में अच्छा क्या होता है, कहानियाँ कितने तरीक़ों से लिखी जाती हैं, वे कौन-कौन-सी युक्तियाँ हैं जिनसे विशिष्ट प्रभाव पैदा होते हैं, कोई सम्भावनाशाली कथा-विचार कैसे एक ख़राब कहानी में विकसित होता है और एक अति-साधारण कथा-विचार कैसे एक प्रभावशाली कहानी में ढल जाता है इत्यादि। लेकिन जब आप एक कहानीकार पर या किसी कथा-आन्दोलन पर समग्र रूप में टिप्पणी कर रहे होते हैं, तब ‘ज़ूम-आउट मोड’ में होने के कारण रचना-विशेष में इस्तेमाल की गई हिकमतों, आख्यान-तकनीकों, रचना के प्रभावशाली होने के अन्यान्य रहस्यों और इन सबके साथ जिनका परिपाक हुआ है, उन समय-समाज-सम्बन्धी सरोकारों के बारे में उस तरह से चर्चा नहीं हो पाती। कहीं समग्रता के आग्रह से विशिष्ट की विशिष्टता का उल्लेख टल जाता है तो कहीं साहित्यालोचन को प्रवृत्ति-निरूपक साहित्येतिहास का अनुषंगी बनना पड़ता है।</p>
<p>जब 'हंस' कथा मासिक की ओर से एक स्तम्भ शुरू करने का प्रस्ताव आया तो मैंने छूटते ही इस सदी की चुनिन्दा कहानियों पर लिखने की इच्छा जताई। मुझे लगा कि मैं जिन चीज़ों पर ग़ौर करता रहा हूँ, उनका सही इस्तेमाल करने का समय आ गया है। यह इस्तेमाल सर्वोत्तम न सही, द्वितियोत्तम यानी सेकंड बेस्ट तो कहा ही जा सकता है।</p>
<p>आगे जो लेख आप पढने जा रहे हैं, वे 'खरामा-खरामा' स्तम्भ की ही कड़ियाँ हैं। इन्हें इनके प्रकाशन-क्रम में ही इस संग्रह में भी रखा गया है। कई कड़ियाँ ऐसी हैं जो अपनी स्वतंत्र शृंखला बनाती हैं। </p>
<p>—भूमिका से
ISBN: 9789388753876
Pages: 232
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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हिन्दी को वैश्विक सन्दर्भ प्रदान करने में विश्वभर में फैले हुए तीन करोड़ से ज़्यादा प्रवासी भारतीयों का विशेष प्रदेय है। वे हिन्दी के द्वारा अन्य भाषा-भाषियों के साथ सांस्कृतिक संवाद क़ायम करते हैं। आज हिन्दी विश्व के सभी महाद्वीपों तथा राष्ट्रों—जिनकी संख्या एक सौ चालीस से भी अधिक है—में किसी-न-किसी रूप में प्रयुक्त हो रही है। इस समय वह विश्व की तीन सबसे बड़ी भाषाओं में से है। वह विश्व के विराट फलक पर नवलचित्र के समान प्रकट हो रही है। वह बोलनेवालों की संख्या के आधार पर मन्दारिन (चीनी) के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा बन गई है, जबकि वह जिन राष्ट्रों में प्रयुक्त हो रही है, उनके संख्या-बल की दृष्टि से वह अंग्रेज़ी के बाद दूसरे क्रमांक पर है।
हिन्दी को वैश्विक परिदृश्य प्रदान करने में फ़िल्मों, पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशन संस्थानों, भारत सरकार के उपायों, उपग्रह चैनलों, विज्ञापन-एजेंसियों, बहुराष्ट्रीय निगमों, यांत्रिक सुविधाओं तथा शिक्षण प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग से प्रशिक्षित पेशेवर मानव संसाधन का विशिष्ट अवदान रहा है। इसके अलावा उसमें विकसित विश्वस्तरीय साहित्य तथा साहित्यकारों का आधारभूत प्रदेय तो सर्वविदित है। ऐसी स्थिति में विश्व व्यवस्था को परिचालित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने तथा अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में प्रयुक्त होनेवाली विश्वभाषा के ठोस निकष एवं प्रतिमान पर हिन्दी का गहन परीक्षण सामयिक दौर की अपरिहार्य माँग है। इसी लक्ष्य को पाने तथा हिन्दी जगत को वैश्विक स्तर पर हिन्दी की शक्ति एवं सम्भावना से परिचित कराने के उद्देश्य को लेकर प्रस्तुत पुस्तक संकल्पित है।
यह पुस्तक विदेश यात्राओं से प्राप्त सूचना एवं अनुभव, अनवरत अध्ययन, भाषिक चिन्तन तथा हिन्दी के विकसनशील व्यक्तित्व के तमाम आयामों की वैचारिक फलश्रुति है जो ग्यारह अध्यायों में हिन्दी के विश्व सन्दर्भ के वस्तुनिष्ठ एवं तथ्यगत विश्लेषण के प्रयास की अभिव्यक्ति है। हमें विश्वास है कि यह पुस्तक हिन्दी जगत में आत्मविश्वास भरेगी और वह खुले मन से इस पुस्तक का स्वागत करेगा।
Pant Ki Kavya Bhasha : Shaili-Vaigyanik Vishleshan
- Author Name:
Kanta Pant
- Book Type:

- Description: आठ अध्यायों में विभाजित तथा शैली विज्ञान पर आधारित कान्ता पंत की महत्त्वपूर्ण आलोचना पुस्तक है : ‘पंत की काव्य-भाषा’। पहला अध्याय कृतियों का परिचय तथा उनके शैलीगत वर्गीकरण का है। इस अध्याय के अध्ययन के उपसंहारस्वरूप यह कहा जा सकता है कि पन्त जी की शैली के तीन रूप मिलते हैं : छायावादी, प्रगतिवादी, अरविन्द-दर्शन और वेदान्तवादी। इनमें सबसे अधिक रचनाएँ तीसरी शैली में हैं, किन्तु उनकी सर्वोत्तम कृतियाँ पहली शैली में हैं। दूसरे अध्याय में पंत जी की शैली के ध्वनि पक्ष पर विचार किया गया है, तो तीसरा अध्याय है—शब्दीय अध्ययन का। ये दोनों अध्याय एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं, क्योंकि शैली में शब्द-चयन महत्त्वपूर्ण होता है, और चौथा अध्याय है—रूपीय विश्लेषण का। पाँचवाँ अध्याय वाक्यीय विश्लेषण का है। इसके उपसंहार-स्वरूप पंत जी की शैली को मुख्यतः सरल वाक्यों तथा कुछ-कुछ मिश्रित वाक्यों की शैली कहा जा सकता है। वाक्य स्तर पर उनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता अनावश्यक शब्दों का लोप है। छठा अध्याय ‘अर्थ’ का है। अर्थ के प्रसंग में एक उल्लेखनीय बात यह है कि पंत जी शब्द का नए अर्थों में भी प्रयोग करते हैं। उदाहरणार्थ—‘दो शब्द’, ‘भूमिका’ या ‘प्रस्तावना’ के अर्थ में ‘विज्ञापन’ शब्द का प्रयोग उन्होंने अपनी अधिकांश पुस्तकों में किया है।
Acharya Hazariprasad Dwivedi Ke Upanyas
- Author Name:
Pallavi Srivastva
- Book Type:

- Description: प्रस्तुत कृति में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों और उनमें वर्णित उदात्त पात्रों की जीवन-दृष्टि को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। पुस्तक में उपन्यासों का सामान्य परिचय स्त्री-चरित्र शिल्प और पुरुष-चरित्र शिल्प के विभिन्न पक्षों को समाहित करते हुए उनकी विशेषताओं को उदघाटित करने का प्रयास करने के साथ चरित्र-शिल्प की दृष्टि से द्विवेदी जी का महत्त्व दर्शाया गया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रतिभा ने अतीतकालीन चेतना प्रवाह को वर्तमान जीवनधारा से जोड़कर आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की है। उनकी विपुल रचना साहित्य का रहस्य उनके विशद शास्त्रीय ज्ञान में नहीं, बल्कि पारदर्शी जीवन-दृष्टि में निहित है जो युग का नहीं युग-युग का सत्य देखती है। प्रस्तुत पुस्तक शोधार्थियों तथा पाठकों का मार्गदर्शन करने में सहायक सिद्ध होगी।
Collage : Ashok Vajpai
- Author Name:
Purushottam Agarwal
- Book Type:

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Description:
अशोक वाजपेयी की कविताओं से गुज़रते हुए यह एहसास बहुत शिद्दत से होता है कि हम ऐसे कवि से मुख़ातिब हैं जिसके यहाँ लौकिक और लोकोत्तर संवादरत हैं जिसके पास समकालीन यथार्थ की विकरालता को समझने की क्षमता ही नहीं, इस यथार्थ के समानान्तर जीवनपरक सम्भावनाएँ देखने और उनका उत्सव मनाने की भी क्षमता है जो कविता को किसी भी विचार का उपनिवेश बनाने के प्रयत्नों का सतत मुखर प्रतिवादी स्वर बनकर बहुत प्रसन्न है, और इन प्रयत्नों को विचार मात्र से विमुखता का पर्याय मान लिए जाने से बहुत उदास। जिसका मानना है कि कविता की प्रामाणिकता किसी विचार-विशेष का अनुगमन करने में नहीं, मानवीय वेदना और संवेदना को मुखरित करने में है। वैसे ही जैसे नारद भक्ति-सूत्रों का रचयिता मानता है कि भक्ति को कहीं बाहर से सर्टीफ़िकेट हासिल करने की ज़रूरत नहीं, यह स्वयं ही प्रमाण है : ‘प्रमाणान्तरस्यानपेक्षात्वात् स्वयं प्रमाणत्वात’!
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