Anuvad Sidhant Evam Prayog
Author:
G. GopinathanPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 240
₹
300
Available
प्रस्तुत ग्रन्थ को तीन भागों में बाँटा गया है—पहले भाग में अनुवाद के स्वरूप एवं प्रक्रिया पर विचार करते हुए अनुवाद की समस्याओं की सैद्धान्तिक भूमिका को स्पष्ट किया गया है। अनुवाद को एक परकाय-प्रवेश की प्रक्रिया मानते हुए अर्थ को आत्मा और शैली को शरीर माननेवाले सिद्धान्तों की नवीन व्याख्या की गई है तथा अनुवाद के प्रमुख सिद्धान्तों का समन्वय किया गया है। लेखक का विचार है कि अनुवाद विषयक अध्ययन में अर्थ को केन्द्र में रखना चाहिए न कि एक बाह्य तत्त्व के रूप में आनन्दवर्द्धन का ध्वनि सिद्धान्त एवं मैलिनोव्स्की का ‘सांस्कृतिक सन्दर्भ’ सिद्धान्त अनुवाद में अर्थ की समस्याओं के अध्ययन के लिए विशेष उपयोगी है। आधुनिक भाषाविज्ञान का सहारा लेते हुए शैली की समस्याओं का प्रमुख रूप से स्वनिमस्तरीय, शब्दस्तरीय, रूपस्तरीय एवं वाक्यस्तरीय समस्याओं के रूप में वर्गीकरण किया गया है। ग्रन्थ के दूसरे भाग में अनुवाद के रूपों का विश्लेषण किया गया है। तीसरे भाग में अनुवाद की कुछ विशिष्ट अर्थपरक एवं शैलीपरक समस्याओं का अनुप्रयोगात्मक अध्ययन करते हुए उनके लिए व्यावहारिक समाधान ढूँढ़ा गया है।</p>
<p>भारत जैसे बहुभाषा-भाषी राष्ट्र में अनुवाद का महत्त्व स्वयंसिद्ध है। यूरोपीय देशों में प्राचीन काल से ही अनुवाद के कुछ सामान्य सिद्धान्तों को क़ायम करने का प्रयास किया गया है। भारत में सम्भवतः अनुवाद को मौलिक लेखन से अभिन्न या उसके समकक्ष मान लेने के कारण अनुवाद के सिद्धान्तों का विशेष विकास नहीं हो पाया है। भारतीय भाषाओं में प्रायः अनुसृजन, भाषानुवाद या अनुकरण ही ज़्यादातर होते आए हैं। लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक युग की माँग है कि अनुवाद प्रामाणिक हो और उसके लिए कुछ सुनिश्चित सिद्धान्त अपनाए जाएँ।</p>
<p>अनुवाद विषयक प्रारम्भिक चिन्तन बाइबिल के अनुवादकों के आधार पर ही विकसित हुआ। पुनर्जागरण के बाद काव्य तथा अन्य साहित्यिक विधाओं के अनुवाद की प्रक्रिया एवं सिद्धान्तों की ओर अनुवादकों का ध्यान गया। तीसरा युग अनुवाद के भाषा-वैज्ञानिक सिद्धान्तों का युग है। बीसवीं शताब्दी में तुलनात्मक एवं व्यतिरेकी अध्ययन का विकास यंत्रानुवाद के प्रयोग तथा आदिवासियों की भाषा से अनुवाद के सिलसिले में भाषा-वैज्ञानिकों का ध्यान अनुवाद की ओर गया। यंत्रानुवाद की विशेष आवश्यकता संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी संस्थाओं में एक ही समय में विभिन्न भाषाओं में किए जानेवाले अनुवाद के सन्दर्भ में अधिक महसूस की गई। यूनेस्को के अधीन कार्यरत अनुवादकों का अन्तरराष्ट्रीय संगठन तथा यूरोप और अमेरिका के कई अनुवाद परिषदों ने भी अनुवाद-चिन्तन को एक वैज्ञानिक आधार प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।</p>
<p>अनुवाद पर भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से सोचने की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि अनुवाद की समस्याओं का भाषा के विभिन्न पक्षों, विशेषकर स्वनिम, शब्द, रूप, वाक्य तथा अर्थ से अभिन्न सम्बन्ध है। अनुवाद की समस्याओं के विश्लेषणात्मक अध्ययन में भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिकोण आवश्यक हो जाता है। पश्चिमी देशों के भाषा-वैज्ञानिकों ने इस प्रकार के कई अध्ययन प्रस्तुत किए हैं जो अनुप्रयुक्त भाषा-विज्ञान के अन्दर आते हैं। परन्तु जार्ज स्टीनर जैसे विद्वानों का कथन है कि अनुवाद अनुप्रयुक्त भाषा-विज्ञान नहीं है, वह तो साहित्य के सिद्धान्त एवं प्रयोग का एक विशिष्ट क्षेत्र है।
ISBN: 9788180313684
Pages: 99
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘चिन्तन के आयाम’ में युगदृष्टा रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के चिन्तनपूर्ण, लोकोपयोगी बाईस निबन्धों को संगृहीत किया गया है। ये निबन्ध जहाँ एक तरफ़ दिनकर के चिन्तक–स्वरूप का साक्षात्कार करवाते हैं, वहीं पाठक के ज्ञान–क्षितिज का विस्तार भी करते हैं।
दिनकर के ये निबन्ध—‘आदर्श मानव राम’, ‘लौकिकता और हिन्दू–धर्म’, ‘भगवान बुद्ध’, ‘बौद्धधर्म की विश्व–व्यापकता’, ‘शान्ति की समस्या’, ‘धर्म और विज्ञान’, ‘मिली–जुली संस्कृति’, ‘गांधी से मार्क्स की परिष्कृति’, ‘स्वतंत्रता के बाद’, ‘लोकतंत्र : कुछ विचार’, ‘नेता नहीं, नागरिक चाहिए’, ‘शीर्षकमुक्त चिन्तन’, ‘इल्म की इन्तिहा है बेताबी’, ‘शिक्षा के पाँच लक्षण’, ‘शिक्षा : तब और अब’, ‘आधुनिकता का वरण’, ‘आधुनिकीकरण’, ‘काम–चिन्तन की कणिकाएँ’, ‘पुरानी और नई नैतिकता’, ‘प्रेम एक है या दो?’, ‘विवाह की मुसीबतें’, ‘मूल्य–ह्रास के पच्चीस वर्ष’—मानवता, हमारी संस्कृति, विवाह, प्रेम, काम, नैतिकता, शिक्षा, आधुनिकता, गांधी, मार्क्स और शिक्षा जैसे विषयों पर उनके गम्भीर–चिन्तन को उद्घाटित करते हैं, वहीं लोकतंत्र, धर्म और विज्ञान तथा मूल्य–ह्रास जैसे ज्वलन्त प्रश्नों द्वारा हमारा मार्गदर्शन भी करते हैं।
नए रूप में प्रस्तुत इस पुस्तक में निबन्धों को क्रमवार सँजोया गया है, जिससे इनकी लयबद्धता एकरूप समान ढंग से चलती जाती है। गम्भीर चिन्तन के नए आयामों के साथ–साथ पुस्तक में सम्मिलित ये निबन्ध दिनकर के व्यक्तित्व को भी समझने में सहायक सिद्ध होते हैं।
Jab Prashnchinh Bokhla Uthe
- Author Name:
Gajanan Madhav Muktibodh
- Book Type:

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गजानन माधव मुक्तिबोध का कवि हमारी साझा साहित्यिक स्मृति में एक अविकल रूप से सजग और जाग्रत उपस्थिति है। उनकी कविताएँ उस कवि की अभिव्यक्तियाँ हैं जो अपने एक भी शब्द, एक भी भाव के प्रति कामचलाऊ रवैया नहीं अपनाता। यही दृष्टि व्यक्ति और विचारक मुक्तिबोध की अपने समाज और संसार के प्रति भी है।
इस पुस्तक में संकलित उनके राजनीतिक निबन्ध यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि सच्ची कविता अपने समय-संसार के साथ सच्चे और ईमानदार सरोकारों के बिना सम्भव नहीं है। अपने समय की राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों पर मुक्तिबोध न सिर्फ़ पैनी निगाह रखते थे, बल्कि बराबर उन पर लिखते भी थे।
वे ‘सारथी’ में लगभग हर सप्ताह ‘यौगन्धरायण’, ‘अवन्तीलाल गुप्त’ और ‘विंध्येश्वरी प्रसाद’ आदि छद्म नामों से लिखा करते थे। इस संग्रह में ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के प्रकाशन के बाद प्राप्त उनके राजनीतिक निबन्धों को संकलित किया गया है। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस सामग्री से पाठकों को मुक्तिबोध की विश्वदृष्टि, चिन्तन की व्यापकता और सरोकारों की गहराई के नए आयाम देखने को मिलेंगे।
Aalochana Ke Pratyay Itihas Aur Vimarsh
- Author Name:
Kanhaiya Singh
- Book Type:

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आलोचक किसी कृति के सौन्दर्य-विमर्श में उसके मर्म से लेकर उसके रूप-विन्यास, शब्द संयोजन, अलंकृति आदि तत्त्वों की तलाश में एक नई सृष्टि का सर्जना करता है। संस्कृत में एक उक्ति है :
पंडित या आलोचक ही काव्य के रस को जानता है और 'रस' में ही सौन्दर्य और लावण्य है। काव्य-रस या काव्य-सौन्दर्य का भोक्ता तो कोई भी सहृदय पाठक होता है पर उसका विशिष्ट भोक्ता और उस भोज्य को पचाकर उसके सौन्दर्य की वस्तु-व्यंजना से लेकर उसकी बारीक अन्तरंग परतों को उद्घाटित करने का काम आलोचक करता है। आलोचना में प्रचलित समाज-विमर्श, मनोविमर्श, दलित-विमर्श, नारी-विमर्श आदि सभी विमर्शों का केन्द्रीय तत्त्व सौन्दर्य-विमर्श ही है।
भारतीय कला-दृष्टि, रस-दृष्टि रही है। यह दृष्टि भाववादी दृष्टि ही नहीं, महाभाववादी दृष्टि है। यह महाभाव ही हमारी आलोचना के आर्ष चिन्तन से लेकर अद्यतन वैचारिकी का केन्द्र बिन्दु है। हमने प्रत्यक्ष गोचर से लेकर उसमें अन्तर्निहित सूक्ष्म चेतन सौन्दर्य का विशेष चिन्तन किया। उपनिषद में ‘सत्यधर्म’ के प्रसंग में कहा गया है कि बाह्य जगत सुन्दर तो है, पर उस सुन्दर स्वर्णपात्र की आभा के आवरण के भीतर सत्यधर्म का प्रभावमय सूर्य छिपा है।
Jayashankar Prasad : Mahanta Ke Aayam
- Author Name:
Karunashankar Upadhyay
- Book Type:

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Description:
जयशंकर प्रसाद के रचनात्मक लेखन में भारतीय वाङ्मय की सम्पूर्ण प्रतिभा बोलती है जो भारतीय जन को बड़े स्वप्न देखने और उन्हें सत्य साकार करने के लिए प्रेरित करती है। वे अपने जीवन-दर्शन और जीवन-स्वप्न का प्रमाणीकरण करने वाले कलाकार हैं। उनके विराट एवं बहुआयामी व्यक्तित्व में जो आत्मप्रसार और आत्मपरिष्कार का भाव है वह भारत तथा हिन्दी जाति का समवेत सांस्कृतिक अवचेतन है।
अपने समन्वयात्मक चिन्तन के माध्यम से प्रसाद ने कविता में आत्मज्ञान एवं आन्तरिक संगति के माध्यम से मानव-जीवन में आनन्दवाद की प्राण-प्रतिष्ठा की। उन्होंने जिस कौशल के साथ आत्म-वेदना को विश्व-वेदना में रूपान्तरित किया, वह अपनी संवेदना को सांस्कृतिक धरातल एवं इतिहास-बोध द्वारा सर्जनात्मक सार्थकता प्रदान करने का एक महत्त्वाकांक्षी प्रयास है।
प्रसाद का सम्पूर्ण लेखन साहित्य, संगीत और कला की एकता का उज्ज्वलतम विग्रह है। उनका कृतित्व मानव जाति को सत्य, शिव और सौन्दर्य के समन्वय द्वारा पूर्ण सत्य, उदात्त प्रेम, अनन्त रमणीय सौन्दर्य और अखंड आनन्द तक ले जाता है। वे बड़ी चिन्ता के रचनाकार हैं और उनके चिन्तन के केन्द्र में भारतीय अस्मिता-बोध और विश्व-मनुष्यता का मंगल है। इसके लिए वे भारत-बोध का एक अभिनव प्रतिमान निर्मित करते हैं, साथ ही विश्वजीवन तथा सभ्यता के प्रति अतिशय गहन विमर्श प्रस्तुत करते हैं। इसीलिए उनके साहित्य को सम्पूर्णता में समझना और उसकी सम्यक् व्याख्या करना अपेक्षाकृत कठिन रहा है।
इस ग्रन्थ में विद्वान लेखक ने अन्तर्दृष्टि और विश्व-संदृष्टि के बल पर भारत-बोध को आत्मसात् करके उनके कृतित्व से आन्तरिक संलग्नता स्थापित करते हुए उसके वस्तुनिष्ठ विश्लेषण का गहन प्रयास किया है। इसमें गीता के अठारह अध्यायों की तरह महाकवि जयशंकर प्रसाद की महानता के अठारह प्रतिमान निर्मित किए गए हैं जिनके आधार पर विश्व के महत्तम कलाकारों की रचनात्मकता का विश्लेषण भी सहज संभाव्य है। प्रसाद के जीवन और व्यक्तित्व के अनछुए सन्दर्भों को भी इसमें देखा जा सकता है।
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