Agyeya : Kuchh Rang, Kuchh Raag
Author:
Shrilal ShuklaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Unavailable
श्रीलाल जी द्वारा की गई रचना की मीमांसा आलोचना के पूर्वाग्रहों से मुक्त रहती है। वह किसी ढर्रे की आलोचना नहीं होती है, न किसी स्थापना की आलोचना होती है। वह रचना को समझने की कोशिश होती है।</p>
<p>इस पुस्तक में श्रीलाल जी ने कहानीकार अज्ञेय के बारे में बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कही है कि ‘वे लोक-जीवन के कथाकार हैं। वे पहले कथाकार हैं जिन्होंने इतिवृत्तात्मकता के बोझ को हलका किया है।’</p>
<p>पुस्तक का दूसरा अध्याय ‘आधुनिक हिन्दी उपन्यास और अज्ञेय’ है। श्रीलाल जी ने हिन्दी उपन्यास की विकास-गाथा कही, जिसमें उन्होंने किस प्रकार चालीस वर्षों में हिन्दी उपन्यास ने प्रौढ़ता प्राप्त की और किस प्रकार ‘शेखर : एक जीवनी’ के प्रकाशन से हिन्दी उपन्यास अपनी अनेक पुरानी सीमाओं को पीछे छोड़ देता है—इसका महत्त्वपूर्ण विवेचन किया है। उसी प्रसंग में उन्होंने हिन्दी के कुछ प्रसिद्ध उपन्यासों को लिया है।</p>
<p>पुस्तक का अन्तिम अध्याय ‘आधुनिक हिन्दी व्यंग्य : अज्ञेय के सन्दर्भ के साथ’ समकालीन हिन्दी के व्यंग्य-लेखन का सजग सर्वेक्षण है। एक तरह से व्यंग्य विधा का आन्तरिक विश्लेषण है। अज्ञेय के व्यंग्य-लेखन की विशिष्टता पर उनकी एक वाक्य की टिप्पणी बड़ी सूक्ष्म है—‘रमणीय गम्भीरता के हलके चापल्य की कौंध।’ हिन्दी व्यंग्य लेखकों की चर्चा के प्रसंग में श्रीलाल जी ने यूरोपीय व्यंग्य की सूक्ष्म विवेचना भी दी है। श्रीलाल जी का निष्कर्ष यह है कि ‘एक शताब्दी की यात्रा कर चुकने के बाद हिन्दी व्यंग्य ने अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली है। वह साहित्य की प्रमुख धारा से दूर नहीं है।’</p>
<p>इस छोटी-सी पुस्तक को पढ़ते हुए मुझे लगा कि मैं अपनी तमाम पढ़ी हुई पुस्तकों को फिर से पढ़ रहा हूँ। ऐसी पुस्तकें कम लिखी जाती हैं। समग्र दृष्टि से मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि श्रीलाल जी ने आकार में छोटी पर अपने पाठकीय आयाम में व्यापक और विस्तृत तथा उन्मुक्त समीक्षा के द्वारा बिना किसी प्रयत्न के आधुनिक साहित्य को देखने की दृष्टि दी है।</p>
<p>—विद्यानिवास मिश्र
ISBN: 9788126722280
Pages: 96
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
‘कामायनी’ हिन्दी की प्रौढ़ कृति है। इसमें मानवता का बचपन अभिव्यक्त हुआ है। बचपन हमें मोहित करता है। वह भविष्य की प्रेरणा का काम करता है। ‘कामायनी’ काव्याभिव्यक्ति के रूप में यह क्षमता रखती है। इसमें युग-चिन्ता है; आशा है; ‘काम-राग’ है; कर्म है; संघर्ष है; और साम्य-विचार की गूँज भी है। कलात्मक अभिव्यक्ति की दृष्टि से यह एक श्रेष्ठ काव्य है। इसने चार दशकों तक हिन्दी आलोचना को प्रभावित किया है। आधुनिक कविता पर विचार की दृष्टि से इसने सबसे अधिक स्थान घेर रखा है। हिन्दी की कोई एक कविता नहीं, जिसने इसके बराबर हलचल पैदा की हो। ‘राम की शक्ति-पूजा’ भी नहीं। ‘अँधेरे में’ भी नहीं। ‘असाध्य वीणा’ भी नहीं। और ‘कामायनी’ के बाद हिन्दी कविता ने जो नया किया है, उसमें ‘कामायनी’ का कितना योग है, यह भी अध्ययन का दिलचस्प विषय है।
‘कामायनी’ की व्याख्या की कई दृष्टियाँ हैं, कई रूप हैं। इस पुस्तक में ‘कामायनी’ सम्बन्धी प्रतिनिधि आलोचना का अध्ययन किया गया है। ‘कामायनी’ और उसकी आलोचना में दिलचस्पी रखनेवाले पाठक इस पुस्तक से लाभान्वित होंगे।
—भूमिका से
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