Aadhunikata Aur Hindi Aalochana
Author:
Indranath MadanPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 636
₹
795
Available
बीसवीं सदी में आलोचना की अनेक धारणाओं का विकास हुआ है जिनमें भाषागत और शैलीगत आलोचना, अस्तित्ववादी आलोचना, मिथकीय आलोचना को गिना जाता है। इनके मूल में आधुनिकता की चुनौती है और इनमें आपसी विरोध भी है। हर धारणा की अपनी-अपनी उपलब्धियाँ और सीमाएँ भी हैं जिनका विश्लेषण और विवेचन अनेक दृष्टियों से किया गया है।</p>
<p>आलोचना की इन धारणाओं और दृष्टियों का अपना-अपना इतिहास और विकास है जिनकी राह से गुज़रकर एक बात रोशन होने लगती है कि इनका विकास कविता को लेकर अधिक हुआ है, उपन्यास, कहानी और नाटक को लेकर कम। यह शायद इसलिए कि कविता में आधुनिकता की चुनौती का अधिक सामना किया गया है और इसकी आलोचना की परम्परा भी अधिक लम्बी है। नाटक की आलोचना की परम्परा भी काफ़ी पुरानी है। उपन्यास और कहानी की विधा हाल की है और हाल में उपन्यास और कहानी की आलोचना के अन्दाज़ और मिज़ाज भी बदले हैं।</p>
<p>आधुनिकता के बोध ने अरस्तू आदि के सिद्धान्तों पर नई रोशनी भी डाली है; लेकिन भारतीय काव्यशास्त्र पर रोमांटिक बोध की छाप तो लग चुकी है, आधुनिकता की दृष्टि से इसका फिर से आँका जाना अभी शेष है। इस तरह आलोचना फिर से अपने अस्तित्व को क़ायम रखने के लिए, अपनी अस्मिता को जानने-पहचानने के लिए अनेक दिशाओं में भटकने की गवाही दे रही है।</p>
<p>इस पुस्तक में समकालीन आलोचना में आधुनिकता की खोज, उसे समझने और रेखांकित करने के प्रयासों का जायज़ा लिया गया है। चार प्रमुख साहित्यिक विधाओं की आलोचना का ऐतिहासिक और वैचारिक विश्लेषण करते हुए यह जानने की कोशिश की गई है, कि हिन्दी की आलोचना आधुनिकता को किस रूप में और किस हद तक पहचान पा रही है।
ISBN: 9788183618731
Pages: 184
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास का एक ऐसा दिव्य तथा भव्य अध्याय है, जिसमें धर्म, वर्ग, जातियों की सभी दीवारें ध्वस्त हो जाती हैं और जनसमूह के रूप में भारत की आत्मा मुखर होती है| अंग्रेजी तथा वामपंथी इतिहासकार भले ही इस महासमर को गदर या विद्रोह की संज्ञा दें, परंतु यह भारतीय आत्मा की आवाज थी। इस आवाज का स्पंदन सनातन राष्ट्र की पावन माटी के कण-कण में सुरभि- स्वरूप अनुभूत किया जा सकता है।जंग-ए-आजादी में जनचेतना और मनचेतना का कार्य हर स्तर पर हुआ। उस वक्त की व्रतधारी पत्रकारिता ने भी आजादी के पहले समर में क्रांति का बीजारोपण किया | जन-जन तक, मन-मन तक आजादी के समर को पहुँचाया और फिरंगी हुकूमत के खिलाफ उठ खड़े होने का शंखनाद किया | ऐसा शंखनाद, जिसने अनंत नभ में आजादी की क्रांति को हवा दी | उसी हवा को महसूस और आत्मसात् करने के लिए, इस युग के कोठि-कोटि जनों में समझ पैदा करने के उद्देश्य से और क्रांति की उस सुगंध से जोड़ने के लिए पत्रकारिता व्रत तथा दायित्व का दस्तावेज पुस्तक के रूप में आपके हाथों में है । यह पुस्तक केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि राष्ट्र और राष्ट्रगायकों को हमारी ओर से सादर शब्दांजलि है, भावांजलि है|
Pant Ki Kavya Bhasha : Shaili-Vaigyanik Vishleshan
- Author Name:
Kanta Pant
- Book Type:

- Description: आठ अध्यायों में विभाजित तथा शैली विज्ञान पर आधारित कान्ता पंत की महत्त्वपूर्ण आलोचना पुस्तक है : ‘पंत की काव्य-भाषा’। पहला अध्याय कृतियों का परिचय तथा उनके शैलीगत वर्गीकरण का है। इस अध्याय के अध्ययन के उपसंहारस्वरूप यह कहा जा सकता है कि पन्त जी की शैली के तीन रूप मिलते हैं : छायावादी, प्रगतिवादी, अरविन्द-दर्शन और वेदान्तवादी। इनमें सबसे अधिक रचनाएँ तीसरी शैली में हैं, किन्तु उनकी सर्वोत्तम कृतियाँ पहली शैली में हैं। दूसरे अध्याय में पंत जी की शैली के ध्वनि पक्ष पर विचार किया गया है, तो तीसरा अध्याय है—शब्दीय अध्ययन का। ये दोनों अध्याय एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं, क्योंकि शैली में शब्द-चयन महत्त्वपूर्ण होता है, और चौथा अध्याय है—रूपीय विश्लेषण का। पाँचवाँ अध्याय वाक्यीय विश्लेषण का है। इसके उपसंहार-स्वरूप पंत जी की शैली को मुख्यतः सरल वाक्यों तथा कुछ-कुछ मिश्रित वाक्यों की शैली कहा जा सकता है। वाक्य स्तर पर उनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता अनावश्यक शब्दों का लोप है। छठा अध्याय ‘अर्थ’ का है। अर्थ के प्रसंग में एक उल्लेखनीय बात यह है कि पंत जी शब्द का नए अर्थों में भी प्रयोग करते हैं। उदाहरणार्थ—‘दो शब्द’, ‘भूमिका’ या ‘प्रस्तावना’ के अर्थ में ‘विज्ञापन’ शब्द का प्रयोग उन्होंने अपनी अधिकांश पुस्तकों में किया है।
Hindi Aalochana Mein Canon Nirman Ki Prakriya
- Author Name:
Mrityunjay
- Book Type:

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Description:
हिन्दी में ‘कैनन’ शब्द के लिए मान, मूल्य, प्रतिमान, मानक आदि शब्द प्रयुक्त किए जाते रहे हैं, लेकिन बतौर अवधारणा ‘कैनन’ के आशय का वहन इनमें से कोई भी शब्द नहीं करता। हाँ, हिन्दी आलोचना में सैद्धान्तिक बहसों से इस अवधारणा के कुछ सूत्र अवश्य निकाले जा सकते हैं।
बकौल लेखक, “मैंने पाया कि हिन्दी आलोचना में कैनन-निर्माण की प्रक्रिया इतिहास की बहसों से गहरे रची-बसी है। लगभग हर आलोचक ने अपने समय-समाज पर टिप्पणी की है। ये टिप्पणियाँ कभी सीधी राजनीतिक हैं तो कभी वे आलोचना के बीच से झाँकती हैं। अपने समय-समाज में चल रहे नवजागरण और हिन्दी आलोचना के उद्भव का सम्बन्ध बहुत घना है। हमारे राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया से कैनन-निर्माण की प्रक्रिया का बहुत दूर तक सम्बन्ध है। जैसे-जैसे देश बन रहा था, वैसे-वैसे आलोचना के कैनन और उनके आधार भी बदल रहे थे।
...बाद इसके आलोचना के कैनन-निर्माण की प्रक्रिया मार्क्सवाद के समर्थन और विरोध की धुरी पर गतिशील रही। ...अभी हिन्दी आलोचना में कैनन-निर्माण के लिहाज़ से अस्मिता-विमर्श, स्त्री और दलित-विमर्श महत्त्वपूर्ण हैं। इनसे जुड़े आलोचक पुराने कैननों और उनके निर्माण की प्रक्रियाओं पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं।” इस पुस्तक में कैनन की व्युत्पत्ति, इतिहास, पश्चिमी आलोचना में कैनन पर हुए विमर्श, और तदुपरान्त हिन्दी आलोचना में मिश्र-बन्धु, रामचन्द्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, नामवर सिंह और निर्मल वर्मा से होते हुए दलित तथा स्त्री-अस्मिता के विमर्शों तक की कैनन-निर्माण प्रक्रिया को समझने की कोशिश की गई है।
Bisvin Shatabdi Ka Hindi Sahitya
- Author Name:
Vijay Mohan Singh
- Book Type:

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Description:
‘बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य’ विजयमोहन सिंह की नवीनतम समीक्षा-कृति है। लगभग ढाई सौ पृष्ठों के अपने सीमित आकार में, एक पूरी सदी के साहित्य की पड़ताल करने वाली यह एक ऐसी किताब है, जिसे एक सर्जक-आलोचक के सुदीर्घ अध्ययन तथा मनन का परिपाक कहा जा सकता है। पिछले कुछ समय से पश्चिम में और अपने यहाँ भी, साहित्येतिहास के लेखन की परम्परा कुछ ठहर-सी गई है—बल्कि कुछ हलकों में तो ऐसे लेखन की क्रमबद्ध पद्धति को सन्देह की दृष्टि से भी देखा गया है। ऐसी स्थिति में इस प्रश्न का उठना स्वाभाविक है कि इक्कीसवीं सदी के जिस बिन्दु पर हम खड़े हैं वहाँ साहित्य के विकास की प्रक्रिया को किस तरह देखा-परखा जाए या फिर उसकी पद्धति क्या हो? इस पुस्तक को पढ़ते हुए मेरे मन पर पहला प्रभाव यही पड़ा कि यह उसी प्रश्न के उत्तर की दिशा में की गई एक कोशिश है—शायद पहली मगर गम्भीर कोशिश।
अपनी भूमिका में लेखक ने ज़ोर देकर कहा है कि ‘इस पुस्तक को किसी भी अर्थ में इतिहास न माना जाए’— क्योंकि न तो यहाँ तिथियों का अंकगणित मिलेगा, न किसी तरह के फुटनोट, न ही पूर्वापर सम्बन्धों की क्रमिकता। यदि मिलेगी तो कुछ अलक्षित अन्तःसूत्रों की निशानदेही और कई बार कुछ स्थापित मान्यताओं के बरक्स कोई सर्वथा नया विचार और हाँ, वह नैतिक साहस भी जो किसी नए विचार की प्रस्तावना के लिए ज़रूरी होता है।
अनुभव पकी दृष्टि, गहरी सूझ-बूझ और विश्लेषणपरक पद्धति के साथ किया गया, पिछली सदी के साहित्य का यह पुनरवलोकन, साहित्य के अध्येताओं का ध्यान तो आकृष्ट करेगा ही—शायद कुछ प्रश्नों पर नए सिरे से सोचने के लिए उत्प्रेरित भी करे।
—केदारनाथ सिंह
Tulanatmak Saahitya Saiddhantik Pariprekshya
- Author Name:
Hanumanprasad Shukla
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Description:
तुलनात्मक साहित्य के विकास की पिछली डेढ़-दो शताब्दियों में बहुत सारे सवालों, संकटों, चुनौतियों और सच्चाइयों से हमारा साक्षात्कार हुआ है। यह बात अब सिद्ध हो चुकी है कि तुलनात्मक साहित्य एक अध्ययन-पद्धति मात्र होने के बजाय एक स्वतंत्र ज्ञानानुशासन का रूप ले चुका है। एकल साहित्य से उसका कोई विरोध नहीं है, बल्कि दोनों के अध्ययन का आधार और पद्धति एक ही तरह की होती है। तुलनात्मक साहित्य का एकल साहित्य अध्ययन से अन्तर अन्तर्वस्तु, दृष्टिबिन्दु और परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से होता है।
तुलनात्मक साहित्य अध्ययन को लेकर सबसे बड़ी भ्रान्ति तुलनीय साहित्यों की भाषाओं की विशेषज्ञता को लेकर है। केवल भाषाज्ञान से साहित्यिक अध्ययन की योग्यता या समझ हासिल हो जाना ज़रूरी नहीं है, इसलिए तुलनीय साहित्यों के मूल भाषाज्ञान पर तुलनात्मक साहित्य अध्ययन के प्रस्थान बिन्दु के रूप में अतिरिक्त बल देना इस अनुशासन से अपरिचय का द्योतक है। तुलनीय साहित्यों का भाषाज्ञान और उसमें दक्षता निश्चय ही वरेण्य है और तुलनात्मक साहित्य अध्ययन में साधक भी है, पर अधिकांश अध्ययनों के लिए अनुवाद (निश्चय ही अच्छा अनुवाद) आधारभूत और विकल्प हो सकता है। दरअसल अनुवाद को तुलनात्मक साहित्य के सहचर के रूप में देखना चाहिए।
भारत में तुलनात्मक साहित्य अध्ययन के क्षेत्र में अधिकांश कार्य अंग्रेज़ी में और उसके माध्यम से हुआ है; अतः उसमें तुलनात्मक चिन्तन के भारतीय सन्दर्भ बहुत कम हैं। आज तुलनात्मक अध्ययन अनुशासन की उस सैद्धान्तिकी की तलाश अनिवार्य है, जो भारतेतर विचारकों और पश्चिमी चिन्तन को भी ध्यान में रखते हुए भारतीय मनीषा के अन्तर्मन्थन से निकली हुई मौलिक अवधारणाओं के सहारे विकसित हो।
प्रस्तुत पुस्तक उपर्युक्त दिशा में आधार विकसित करने का हिन्दी में पहला व्यवस्थित उद्यम है।
Chhayavad Aur Uske Kavi
- Author Name:
Vijay Bahadur Singh
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महान हिन्दी आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की कक्षा में बैठकर जिस एक छात्र ने अपने आचार्य की सीमाओं को आक्रामक शैली में इंगित किया उसका नाम नन्द दुलारे वाजपेयी था। उसी छात्र ने यह भी घोषित किया कि उनकी लिखी हुई पुस्तकें और उनके तैयार किए हुए विद्यार्थी, जिनमें मैं भी एक होने का गर्व करता हूँ, किन्तु मैं उनकी प्रतिध्वनि नहीं हूँ, क्योंकि प्रतिध्वनि कभी मूल ध्वनि की बराबरी नहीं कर सकती। अस्तु, मेरी अपनी ध्वनि है।
यही आलोचक नन्द दुलारे वाजपेयी अपने आचार्य शुक्ल से छायावादी काव्य को लेकर असहमत होकर इस परिभाषा और व्याख्या पर उतर आया कि कविता जिस स्तर पर पहुँचकर अलंकार-विहीन हो जाती है। वहाँ वह वेगवती नदी की भाँति हाहाकार करती हुई हृदय को स्तम्भित कर देती है। उस समय उसके प्रवाह में अलंकार ध्वनि वक्रोक्ति आदि न जाने कहाँ बह जाते हैं और सारे सम्प्रदाय न जाने कैसे मटियामेट हो जाते हैं।'
शुक्ल जी को युग प्रवर्तक आलोचक मानते हुए भी आचार्य वाजपेयी ने उनकी प्रबन्ध काव्य सम्बन्धी अवधारणा के विपरीत यह स्थापित किया कि प्रगीतों में ही कवि का व्यक्तित्व पूरी तरह प्रतिबिम्बित होता है।'
शुक्लोत्तर आलोचना के इस सर्वप्रथम आलोचक आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी ने हिन्दी में स्वच्छन्दतावादी आलोचना का प्रवर्तन किया। यह पुस्तक इसी का एक जीवन्त दस्तावेज है।विजय बहादुर सिंह
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