Madhyakaleen Bharat : Naye Aayam
Author:
Harbans MukhiaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 160
₹
200
Available
क्या भारतीय इतिहास में फ़्यूडलिज़्म था? इस सवाल पर विचार करने से पहले कुछ ख़ास शब्दों की परिभाषा तय कर लेना उचित होगा। दूसरे शब्दों में फ़्यूडलिज़्म क्या है, इसे साफ़ कर लेना चाहिए। बदक़िस्मती से इस आसान सवाल का जवाब भी इतिहासकारों ने अलग-अलग ढंग से दिया है। अगर फ़्यूडलिज़्म की कोई ऐसी परिभाषा नहीं मिलती जिसे समान रूप से पूरी दुनिया पर लागू किया जा सके, तो इसका वस्तुगत कारण है और उसका हमारी बात के लिए ख़ास महत्त्व है : फ़्यूडलिज़्म कोई विश्व-व्यवस्था नहीं था, पूँजीवाद ही सबसे पहली विश्व-व्यवस्था बना। इसका मतलब यह हुआ कि फ़्यूडलिज़्म का कोई ऐसा सारतत्त्व नहीं रहा है जो पूरी दुनिया पर लागू हो सके, जैसा कि पूँजीवाद का है। जब हम पूँजीवाद की चर्चा अमूर्त रूप में, सार रूप में, माल की सामान्यीकृत उत्पादन प्रणाली के रूप में करते हैं जिसमें श्रमशक्ति ख़ुद भी एक माल होती है, तो हमें इसका एहसास रहता है कि पूरा मानव समाज अपने विकास के किसी न किसी स्तर पर इस उत्पादन प्रणाली की गिरफ़्त में आ चुका है। दूसरी ओर, फ़्यूडलिज़्म पूरे इतिहास के दौरान पूरी दुनिया पर एक साथ कभी भी काबिज़ नहीं रहा। यह किसी ख़ास काल और ख़ास इलाक़ों में, जहाँ उत्पादन के ख़ास तरीक़े और संगठन मौजूद थे, सामाजिक-आर्थिक संगठन का एक ख़ास रूप था।</p>
<p>—इसी पुस्तक से
ISBN: 9789389598315
Pages: 247
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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इस पुस्तक के दादा जी यूँ तो काल्पनिक पात्र हैं, लेकिन यदि कहा जाए कि राष्ट्रीय आन्दोलन की आत्मा को उनमें केन्द्रित किया गया है तो झूठ न होगा। उस दौर में अनेक ऐसे लोग थे जिन्होंने आन्दोलन के पीछे रहकर काम किया। साम्राज्यवाद की मार से बिखरे-टूटे परिवार के सदस्यों को सहारा ही नहीं दिया, उन्हें माता-पिता की कमी तक खलने नहीं दी। साम्प्रदायिक दंगों तथा विभाजन के अवसर पर हारे-थके बेसहारा लोगों की रक्षा की। अपने को, अपने व्यक्तिगत सुख, लाभ-हानि को भुलाकर पूरी तरह गांधीवादी विचारधारा में डूब गए। मगर आज वे गुमनामी की दुनिया में खो गए हैं। ऐसी सभी पुण्य आत्माओं को दादा जी के रूप में याद किया गया है। दादा जी के सहारे ही इस इतिहास खंड को कथात्मक रूप दिया जा सका है।
ज़रूरत इस बात की है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता-संग्राम से किशोर पाठकों का भावनात्मक लगाव उत्पन्न
हो। वे इस संघर्ष की गौरवमय कथा को जानें, स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करें और आज़ादी के वास्तविक मूल्य को पहचानें। किशोर पाठकों के लिए सरल-सहज भाषा-शैली में लिखी गई यह पुस्तक निश्चय ही चाव से पढ़ी जाएगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
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