Kautilya Ka Arthashastra
Author:
Om Prakash PrasadPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 1116
₹
1395
Unavailable
अर्थशास्त्र मात्र राजनीतिशास्त्र की पुस्तक नहीं, इसमें राजतंत्रात्मक शासन–पद्धतियों का ऐतिहासिक अध्ययन भी होता है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के तमाम पहलुओं पर विचार करते हुए इसे राजनीतिविज्ञान भी माना है। इसीलिए कौटिल्य का सारा ज़ोर राजा, राजकोष, प्रजा और शासन के केन्द्रीकरण पर था।</p>
<p>‘कौटिल्य का अर्थशास्त्र : एक ऐतिहासिक अध्ययन’ इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण है कि भारत के इस पहले अर्थशास्त्र ग्रन्थ को सदियों के मत–मतान्तरों के परिप्रेक्ष्य में समकालीनता की नई दृष्टि के साथ गहराई और गम्भीरता से देखा–परखा गया है, ताकि अर्थशास्त्र के मूल को मूलत: परिभाषित और आत्मसात् किया जा सके।</p>
<p>यह पुस्तक ऐतिहासिक अध्ययन के साथ–साथ यह विमर्श भी खड़ा करती है कि इतिहास–प्रदत्त किसी भी प्रकार के सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक बदलाव में आर्थिक कारण को सर्वाधिक ठोस कारण मानने का सिलसिला अभी भी जारी है। नए शोधकार्यों ने अब यह प्रश्न खड़ा किया है कि सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक बदलाव का अगर प्रधान कारण आर्थिक परिवेश होता है तो आर्थिक बदलाव किस तथ्य पर आधारित है? 21वीं सदी में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इस तथ्य को स्वीकृति मिली है कि आर्थिक बदलाव का सबसे ठोस आधार होता है—विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी। पूरा विश्व इस तथ्य को स्वीकारने लगा है कि जिस देश में जिस समय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की जैसी स्थिति रही, वैसी ही उसकी आर्थिक स्थिति रही और जैसी आर्थिक स्थिति रही, वैसी ही सामाजिक और राजनीतिक दशा।</p>
<p>इससे स्पष्ट है कि कौटिल्य की निरंकुश नीतियों के मूल में वैज्ञानिकता अपनी अहम भूमिका में थी कि बग़ैर इसके सशक्त और विशाल साम्राज्य की स्थापना सम्भव नहीं, और इसके लिए राजा प्रजा की सुख–सुविधाओं एवं उसकी भलाई की व्यवस्था करनेवाला एक व्यवस्थापक मात्र है, जिसकी अवहेलना कर सभ्यता की उच्च अवस्था सम्भव नहीं।</p>
<p>यह पुस्तक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, नगरीकरण, कृषि एवं कृषक, शिल्पकार एवं कर्मकार, प्रशासन तथा स्त्रियों के बारे में विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती है, जो इतिहास और अब तक के अँधेरे से बाहर निकल एक नई दिशा में क़दम बढ़ाने जैसा है।
ISBN: 9788126727346
Pages: 447
Avg Reading Time: 15 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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इस पुस्तक में मुगलों की नई काराधान व्यवस्था के आने से कृषि के क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली संकटपूर्ण परिस्थितियों को उजागर किया है। लेखक का मानना है कि इस संकट के बावजूद ग्रामीण घरों में सूत कातने और कपड़ा बुनने की परम्पराएँ कायम रहीं। किन्तु मुग़ल नीतियों का दूरगामी परिणाम यह हुआ कि कृषि और शिल्प दो अलग-अलग व्यवसायों के रूप में नज़र आने लगे। अध्याय के अन्त में लेखक ने परम्परागत शिल्पों को स्वतन्त्र व्यवसाय के रूप में प्रस्तुत कर लम्बे अरसे से चली आ रही भ्रान्तियों को दूर किया है। शिल्प उत्पादन के सम्बन्ध में विस्तृत वृत्तान्त मिलता है।
दक्षिण भारत के राजस्व इतिहास को समाहित कर इस पुस्तक को पूर्णतः समावेशी बना दिया गया है। पाँचवें अध्याय में मध्यकालीन कराधान की व्यवस्था, शहरी उत्पादन, सिक्कों के प्रकार और प्रसार का उल्लेख है। मध्यकालीन भारत में नाप-तौल की प्रणालियों, मजदूरी और उत्पादकों पर विदेशी पूँजी के बढ़ते दबाव से सम्बन्धित है। लेखक ने तालिकाओं और आँकड़ों की सहायता से व्यापार और व्यवसायों के समक्ष बढ़ती चुनौतियों को स्पष्ट किया है।
विश्वास है कि सुधी पाठकों तथा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे पाठकों को यह रचना समान रूप से पसन्द आएगी।
ललित जोशी
प्रोफेसर, इतिहास विभाग
Bharatiya Videsh Neeti
- Author Name:
Jn Dixit
- Book Type:

- Description: प्रस्तुत पुस्तक में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्री जे.एन. दीक्षित द्वारा पचास वर्षो की अवधि के विस्तृत फलक पर भारतीय विदेश नीति के विभिन्न चित्र सशक्त तथा प्रभावशाली ढंग से उकेरे गए हैं । लेखक ने 1947 को भारतीय विदेश नीति का आरंभ काल माना है । इन्होंने बताया है कि पं. जवाहरलाल नेहरू ने भारत की विदेश नीति का मूलाधार रखा तथा इसके बाद उनके उत्तराधिकारियों ने इस दिशा में किस प्रकार से व्यापक और महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । इस महत्त्वपूर्ण आख्यान का वर्णन करते समय लेखक ने कालक्रमानुसार भारत की विदेश नीति के विविध पक्षों को उजागर किया है । इसके साथ ही उन पक्षों के राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पड़नेवाले प्रभावों का भी विवेचन किया है तथा ऐसी युगांतकारी घटनाओं को शामिल किया है जिनका भारतीय विदेश नीति की प्राथमिकताओं पर प्रभाव पड़ा है । इसके अतिरिक्त इस पुस्तक में उन घटनाओं के परिणामों तथा प्रतिक्रियाओं का भी विश्लेषण किया गया है । उदाहरण के तौर पर-सन् 1947-48, 1965 तथा 1971 में भारत-पाक युद्ध; संयुक्त राष्ट्र का संदेहास्पद रवैया तथा कश्मीर का मुद्दा; 1962 में भारत-चीन युद्ध; 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का कब्जा; महाशक्तिशाली सोवियत संघ का विघटन; कश्मीर की समस्या तथा पाकिस्तान की ' परोक्ष युद्ध ' की कार्यनीति; 1991 में खाड़ी युद्ध; मई 1998 में भारत-पाक द्वारा किए गए परमाणु परीक्षण । इस पुस्तक में विश्व के विभिन्न देशों-विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ, चीन तथा पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करते हुए घटनाओं के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय संबंधों का विशद विवेचन किया गया है । भारतीय विदेश नीति को आधार बनाकर लिखी गई यह पुस्तक निस्संदेह एक उत्कृष्ट कृति है ।
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