Hum Bheed Hain
Author:
RaghuvanshPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
General-non-fiction0 Reviews
Price: ₹ 520
₹
650
Available
रघुवंश ने 'आधुनिकता’ को केवल 'व्यक्ति’ की विशिष्टता के रूप में नहीं, बल्कि अपने समाज के गतिशील होने की सांस्कृतिक आकांक्षा के वैशिष्ट्य के रूप में समझने की चेष्टा की। दरअसल वे सांस्कृतिक चिन्तक थे। संस्कृति को परम्परा की रूढ़ियों से मुक्त करके उन्होंने अपने समय के समाज को विभिन्न समस्याओं से सन्दर्भित किया। राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक दृष्टि से भारतीय समाज के लिए क्या ग्राह्य है और किस रूप में ग्राह्य है, इसके विश्लेषण में पूर्वग्रह-रहित होकर रघुवंश जी ने समय-समय पर जो लेख-निबन्ध इत्यादि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखे, उनका संकलन उनकी इस पुस्तक में किया गया है। राजनीति, धर्म, शिक्षा और विकास के नए मॉडलों पर रघुवंश जी के क्या विचार थे, उनको जानने में इस पुस्तक की उपयोगिता असन्दिग्ध है।</p>
<p>रघुवंश ‘मनुष्य की सांस्कृतिक उपलब्धियों’ की कसौटी पर अपने समय और समाज की स्थितियों को परखने के हिमायती थे। इस पुस्तक में संकलित लेखों से यह भी पता चलता है कि उन्होंने अपने चिन्तन का फलक कितना व्यापक रखा। इसीलिए वे शिक्षा, राजनीतिक व्यवस्थाओं और साम्प्रदायिक संकटों को समझने और समझाने में निरन्तर संलग्न रहे।</p>
<p>यह पुस्तक 'हम भीड़ हैं’ हमें बताती है कि उनमें आधुनिकता और विकास का एक ऐसा स्वरूप पहचानने की व्याकुलता थी, जो काल की दृष्टि से 'नया’ हो और देश की दृष्टि से 'भारतीय’ हो। यही आकांक्षा रघुवंश जी को आचार्य नरेन्द्र देव, डॉ. लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे चिन्तकों की ओर आकृष्ट करती रही।
ISBN: 9789352211753
Pages: 280
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: मनुष्य के दिल-दिमाग का बारीक अध्ययन कर जीवन जीने के व्यावहारिक सूत्र बताने और सकारात्मक सोच विकसित करने में दक्ष विश्वप्रसिद्ध व्यक्तित्व ओपरा विनफ्रे की यह पुस्तक पठनीयता से भरपूर है। सालों से उन्होंने सर्वाधिक रेटिंग वाले अपने बहुचर्चित टॉक शो के जरिए इतिहास रचा है, अपना स्वयं का टेलीविजन नेटवर्क शुरू किया है, और देश की पहली अफ्रीकी-अमेरिकी अरबपति बनी हैं। उन्हें हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी से मानद उपाधि और प्रेसीडेंशियल मेडल फॉर फ्रीडम से सम्मानित किया जा चुका है। अपने सारे अनुभवों से उन्होंने जीवन के सबक चुने हैं, जो उन्होंने चौदह सालों से ‘ओ-ओपरा मैग्जीन’ के लोकप्रिय स्तंभ ‘वॉट आय नो फॉर श्योर’ में प्रस्तुत किए हैं और जो हर माह पाठक को प्रेरित और आनंदित करते हैं। अब पहली बार इन वैचारिक रत्नों का पुनर्लेखन, अद्यतन संग्रह करके एक पुस्तक में पेश किया गया है, जिसमें ओपरा विनफे्र ने अपने आंतरिक उद्गार प्रकट किए हैं। प्रसन्नता, लचक, संवाद, आभार, संभावना, विस्मय, स्पष्टता और शक्ति के भावों के रूप में संगठित ये लेख दुनिया की सर्वाधिक असाधारण औरत के दिल और दिमाग की दुर्लभ, सशक्त और आंतरिक झलक प्रस्तुत करते हैं। साथ ही पाठकों को सर्वोत्तम बनने में मार्गदर्शक की भूमिका भी निभाते हैं। ‘ये जो है जिंदगी...’ में ओपरा विनफ्रे निर्भीक, मर्मस्पर्शी, प्रेरक और बार-बार परिहासपूर्ण शब्दों का इस्तेमाल करती हैं, जो सत्य की ऐसी जगमगाहट देते हैं कि पाठक उन्हें बार-बार पढ़ना चाहते हैं। प्रस्तुत हैं भारत की किसी भी भाषा में जिंदगी का सार बतानेवाले ओपरा विनफ्रे के उद्गार।
Beeswin Shatabdi Mein Darshanshastra
- Author Name:
Suman Gupta
- Book Type:

-
Description:
‘दर्शनशास्त्र : पूर्व और पश्चिम’ शृंखला की इस सातवीं पुस्तक में डॉ. सुमन गुप्ता ने समकालीन दार्शनिक चिन्तन की दो मुख्य प्रवृत्तियों—भाषिक दर्शनशास्त्र और अस्तित्ववाद—का मार्क्सवादी दृष्टि से अध्ययन किया है। इन दोनों विचारधाराओं को उनके सही सामाजिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखते हुए, डॉ. गुप्ता ने इनकी प्रचलित व्याख्याओं पर प्रश्नचिह्न लगाया है। उनका तर्क है कि गूढ़ पारिभाषिक शब्दावली के आवरण में इन विचारधाराओं की अमूर्त तत्त्वमीमांसी प्रणाली पर भी प्रश्नचिह्न लगाया है, जो एक सही विश्व-दृष्टि प्रस्तुत करने के स्थान पर यथार्थ को विरूपित करती है। भाषिक दर्शनशास्त्रियों और अस्तित्ववादियों के दृष्टिकोण के विपरीत, डॉ. सुमन गुप्ता ने एक ऐसा दृष्टिकोण अपनाया है, जो न केवल इन चिन्तनधाराओं के विविध पक्षों का एकीकरण करता है बल्कि उनके सामाजिक यथार्थ की जड़ों में भी जाता है। सुमन गुप्ता ने स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि भाषिक दर्शनशास्त्रियों और अस्तित्ववादियों द्वारा प्रतिपादित मनुष्य की संकल्पना मनुष्य को एक ऐसे अमूर्त रूप में चित्रित करती है जो अपने सामाजिक क्रियाकलाप से अपना या अपने चारों ओर की दुनिया का रूपान्तरण करने में असमर्थ है।
डॉ. गुप्ता ने समकालीन दर्शन की इन दोनों प्रवृत्तियों की न केवल समीक्षा प्रस्तुत की है, बल्कि वह विश्व-दृष्टि भी सामने रखी है जिसे वे सही मानती हैं।
सुमन गुप्ता ने भाषिक दर्शनशास्त्र और अस्तित्ववाद का विवेचन साधारण कुशलता से किया है लेकिन उनकी पद्धति निस्सन्देह विवादमूलक है, जिसके फलस्वरूप यह पुस्तक दर्शनशास्त्र के प्रति एक नई दृष्टि विकसित करने में सहायक होगी और जो पाठक दर्शनशास्त्र की सार्थकता को जीवन की यथार्थ समस्याओं से जोड़कर देखना चाहते हैं, उनके लिए यह निश्चय ही रोचक और पठनीय सिद्ध होगी।
Stritvavadi Vimarsh : Samaj Aur Sahitya
- Author Name:
Kshama Sharma
- Book Type:

- Description: किसी बुज़ुर्ग के पाँव छुइए और आशीर्वाद पाइए—‘मेरे पूत बने रहें,’ या कि ‘अखंड सौभाग्यवती रहो,’ यानी कि जब मरो तो सुहागिन मरो। यह जीवन का नहीं, मृत्यु का वरदान है। इस प्रकार के वरदानों से हमारा प्राचीन साहित्य भरा पड़ा है। जहाँ एक ओर नायिका–भेद पढ़ाए जाते हैं तो दूसरी ओर स्त्रियों से बचने के तरीक़े। ‘औरत पर कभी भरोसा न करो।’—यह इन महान ग्रन्थों का सूत्र–वाक्य है। स्त्रियों और दलितों से इस समय का समाज इतना आक्रान्त है कि उन्हें पीटने का कोई तरीक़ा नहीं छोड़ता। चूँकि सारे विधान, सारी संहिताएँ, सारे नियम, धर्म, क़ानून पुरुषों ने रचे हैं, इसलिए हर क़ानून, हर रीति–रिवाज और परम्परा का पलड़ा उनके पक्ष में झुका हुआ है। माफ़ कीजिए, साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। एक भारतीय नारी जो त्यागमयी है, सती–सावित्री है, जिसके मुँह में ज़ुबान नहीं है, जो सबसे पहले उठती है, दिन–भर घर की चक्की में पिसती है, सबसे बाद में सोती है, जो कभी शिकायत नहीं करती और इसी के बरक्स एक पश्चिमी नारी जो स्कर्ट पहनती है, सिगरेट पीती है, मर्दों के साथ क्लबों में नाचती है, एक नहीं, बहुत सारे प्रेमी पालती है—इन दो स्टीरियो टाइप में हर कठिन परिस्थिति के बाद भारतीय नारी की विजय होती है और पश्चिमी संस्कृति की प्रतीक नारी या तो किसी की गोली का शिकार होती है अथवा भारतीय नारी अपने पति, जो इस ‘कुलटा’ द्वारा फँसा लिया गया था, के द्वारा झोंटा पकड़कर बाहर निकाल दी जाती है। जितनी दूर तक उसे घसीटा जाता है, उतनी ही दूर और देर तक पश्चिमी संस्कृति पर भारतीय संस्कृति की विजय की तालियाँ आप सुन सकते हैं। ऐसे ही समाज और साहित्य के विभिन्न आयामों से गुज़रती यह पुस्तक स्त्री-परिदृश्य में एक बड़े विमर्श को जन्म देती है, और कई अनदेखी चीज़ों को देखने की दृष्टि भी। आज के दौर में एक बेहद ही महत्त्वपूर्ण कृति है ‘स्त्रीवादी-विमर्श : समाज और साहित्य’।
Marxwad Aur Bhasha Ka Darshan
- Author Name:
V. N. Voloshinov
- Book Type:

-
Description:
मार्क्सवाद और समकालीन भाषा-विज्ञान के सम्बन्धों के मद्देनज़र, यह सवाल किया जा सकता है कि क्या ‘मार्क्सवादी भाषा-विज्ञान’ जैसी कोई चीज़ मौजूद है? और इसका उत्तर देने में कोई हिचक या कठिनाई नहीं महसूस होती क्योंकि मार्क्सवाद मानव-सभ्यता के भौतिक-आत्मिक विकास का इतिहास प्रस्तुत करते हुए मानव-भाषाओं की व्याख्या के प्रति एक सुनिश्चित ‘अप्रोच’ प्रस्तुत करता है और एक सुनिश्चित पद्धति लागू करते हुए कुछ सुनिश्चित स्थापनाएँ प्रस्तुत करता है।
एक सामाजिक एवं विचारधारात्मक परिघटना के रूप में, भाषा की प्रकृति और प्रकार्यों पर मार्क्सवादी चिन्तन को 1920 और 1930 के दशक में सोवियत भाषा-वैज्ञानिकों ने बहुपक्षीय रूप में आगे बढ़ाया। 1929 में प्रकाशित वी.एन. वोलोशिनोव की पुस्तक मार्क्सवाद और भाषा का दर्शन पहली ऐसी पुस्तक थी जिसमें भाषा-विज्ञान के कुछ प्रमुख आधारभूत प्रश्नों पर मार्क्सवादी विश्व-दृष्टिकोण और पद्धति से विचार करने का प्रयास दिखाई देता है। वोलोशिनोव ने विचारधारा और भाषा के प्रति सॉस्युर के संरचनावाद और विटगेंस्टाइन के भाषायी दर्शन से सम्बद्ध परम्पराओं से सर्वथा अलग ‘अप्रोच’ अपनाया तथा संकेत-विज्ञान और विमर्श-सिद्धान्त की ऐसी प्रणालियाँ प्रस्तावित कीं जो मार्क्सवादी साहित्यिक आलोचना को कई धरातलों पर समृद्ध बनाने की सम्भावना से युक्त थीं। मार्क्सवाद और भाषा का दर्शन पहला संस्करण 1929 में और दूसरा संस्करण 1930 में प्रकाशित हुआ। इसमें वोलोशिनोव ने भाषा और विचारधारा के बीच के सम्बन्धों का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया, वह अपने कई विवादास्पद उपप्रमेयों और उपांगों के बावजूद, भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में मार्क्सवाद को लागू करने का अभूतपूर्व उदाहरण था। न केवल दशकों बाद तक, मार्क्सवादी भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में मार्क्सवादी भाषा-विज्ञान इसे एक सन्दर्भ-बिन्दु के रूप में देखता रहा और इसके द्वारा प्रस्तुत प्रस्थापनाओं तथा उठाए गए अनसुलझे प्रश्नों से जूझता रहा, बल्कि आज भी यह प्रक्रिया जारी है।
Tum Pahle Kyon Nahi Aaye
- Author Name:
Kailash Satyarthi
- Book Type:

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Description:
तुम पहले क्यों नहीं आए में दर्ज हर कहानी अँधेरों पर रौशनी की, निराशा पर आशा की, अन्याय पर न्याय की, क्रूरता पर करुणा की और हैवानियत पर इंसानियत की जीत का भरोसा दिलाती है। लेकिन इस जीत का रास्ता बहुत लम्बा, टेढ़ा-मेढ़ा और ऊबड़-खाबड़ रहा है। उस पर मिली पीड़ा, आशंका, डर, अविश्वास, अनिश्चितता, ख़तरों और हमलों के बीच इन कहानियों के नायक और मैं, वर्षों तक साथ-साथ चले हैं। इसीलिए ये एक सहयात्री की बेचैनी, उत्तेजना, कसमसाहट, झुँझलाहट और क्रोध के अलावा आशा, सपनों और संकल्प की अभिव्यक्ति भी हैं।
पुस्तक में ऐसी बारह सच्ची कहानियाँ हैं जिनसे बच्चों की दासता और उत्पीड़न के अलग-अलग प्रकारों और विभिन्न इलाक़ों तथा काम-धंधों में होने वाले शोषण के तौर-तरीक़ों को समझा जा सकता है। जैसे; पत्थर व अभ्रक की खदानें, ईंट-भट्ठे, क़ालीन कारख़ाने, सर्कस, खेतिहर मज़दूरी, जबरिया भिखमंगी, बाल विवाह, दुर्व्यापार (ट्रैफ़िकिंग), यौन उत्पीड़न, घरेलू बाल मज़दूरी और नरबलि आदि। हमारे समाज के अँधेरे कोनों पर रोशनी डालती ये कहानियाँ एक तरफ हमें उन खतरों से आगाह करती है जिनसे भारत समेत दुनियाभर में लाखों बच्चे आज भी जूझ रहे हैं। दूसरी तरफ धूल से उठे फूलों की ये कहानियाँ यह भी बतलाती हैं कि हमारी एक छोटी-सी सकारात्मक पहल भी बच्चों को गुमनामी से बाहर निकालने में कितना महत्त्वपूर्ण हो सकती है, नोबेल पुरस्कार विजेता की कलम से निकली ये कहानियाँ आपको और अधिक मानवीय बनाती हैं, और ज़्यादा ज़िम्मेदार बनाती है।
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