Bihar Ke Vyanjan – Sanskriti Aur Itihas
Author:
Ravishankar UpadhyayPublisher:
ESAMAAD PRAKASHANLanguage:
HindiCategory:
General-non-fiction0 Reviews
Price: ₹ 299
Unavailable
बिहारी खानपान का बेहद समृद्ध इतिहास रहा है. मगध साम्राज्य में जब बिहार लंबे समय तक सत्ता का केंद्र रहा तो यहां से शासन करनेवाले महान सम्राटों ने यहां के व्यंजनों को राज्याश्रय प्रदान किया. इसी कारण प्राचीन राजगृह के इर्दगिर्द आज भी व्यंजनों पर निर्भर कस्बे मौजूद हैं, चाहे वह खाजा के बेमिसाल स्वाद वाला सिलाव हो या पेड़ा बनाने वाला निश्चलगंज. गया में चावल और तिल के साथ प्रयोग कर तिलवा-तिलकुट से लेकर अनरसा जैसा प्रयोगधर्मी स्वाद बनाया गया. प्राचीन पाटलिपुत्र यानी आज का पटना देख लीजिए. यहां पर पुराने शहर में खुरचन, थोड़ी दूर पर बाढ़-बख्तियारपुर और धनरूआ में लाई, तो मनेरशरीफ में नुक्ती वाले लड्डू हैं. बड़हिया में रसगुल्ले हैं. भोजपुर इलाके के उदवंतनगर में खुरमा, ब्रह्मपुर में गुड़ई लड्डू, गुड़ की ही जलेबी तो बक्सर में सोनपापड़ी है. थावे, गोपालगंज चले जाइए तो वहां पर आपको पेडुकिया मिलेगा. मिथिला के दही- चूड़ा से लेकर अरिकंचन और बेसन के गट्टे की सब्जी के क्या कहने!
ये उदाहरण तो बस बानगी हैं, आप राज्य के जिस किसी हिस्से में चले जाइए वहां पर आपको कोई न कोई बेमिसाल स्वाद मिल जाएगा. इस किताब में आपको बिहार की स्वाद परंपरा का लिखित इतिहास और सांस्कृतिक प्रयोग के अनुभव पढ़ने को मिलेंगे जो चौथी शताब्दी से शुरू होकर आजतक जारी है.
ISBN: 9788195499533
Pages: 144
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: सभ्यता और संस्कृति के स्तर पर किसी भी समुदाय की जीवनीशक्ति मूलत: उस समुदाय के दार्शनिक चिन्तन में निहित होती है। जिज्ञासा इस चिन्तन का बीज है और कल्पना उसके अँखुआने के लिए आवश्यक जल। इस तरह जो यात्रा आरम्भ होती है वह दर्शन के दायरे में तब प्रवेश करती है जब कल्पना और कल्पनाशक्ति से आगे बुद्धि और विवेक प्रधान हो जाते हैं, तब अज्ञात की गुत्थी खोलने में अलौकिक माध्यमों का परित्याग कर दिया जाता है और अनुभव को तथ्यों की जाँच और व्याख्या का आधार बनाया जाता है। इस मामले में आदिवासी समुदाय भी अपवाद नहीं है। लेकिन दर्शन सम्बन्धी विचार-विमर्शों में आदिवासी समुदायों का सन्दर्भ अब तक प्राय: अनुपस्थित रहा है, जबकि पृथ्वी के प्राचीनतम बाशिन्दों के रूप में वे आदि जिज्ञासु और आदि चिन्तक रहे हैं। उनकी एक सुचिन्तित दर्शन-परम्परा है, जो उनके धर्म—जिन्हें आदि धर्म, सनातन धर्म, गोंडी धर्म, पूयेम धर्म जैसी कई संज्ञाओं से जाना जाता है—सम्बन्धी धारणाओं में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। यह जरूर है कि इतर समुदायों के विपरीत आदिवासी समुदायों का दार्शनिक चिन्तन वाचिक रूप में ही रहा है। यह हिन्दी में किंचित पहली पुस्तक है जिसमें आदिवासी दर्शन के बुनियादी तत्त्वों का परिचय और विवेचन प्रस्तुत किया गया है। भारत के विभिन्न भागों-अनेक आदिवासी समुदायों के दर्शन-चिन्तन, सृष्टि-कथा, तत्त्व मीमांसा, सत्ता-मीमांसा, ज्ञान-मीमांसा आदि विषयक विचारोत्तेजक सामग्री इस पुस्तक में संकलित की गई है। इसकी एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसमें आदिवासी दर्शन को प्रस्तुत करने वाले विद्धानों में गैर आदिवासी और विदेशी विद्वान भी शामिल हैं जिनके अनुभव, अध्ययन और चिन्तन-मनन ने इस विषय को व्यापकता प्रदान की है। संक्षेप में, इतर समुदायों की तरह मनुष्य या ईश्वर केन्द्रित न होकर प्रकृति केन्द्रित आदिवासी दार्शनिक चिन्तन के विविध पहलुओं को सामने लाने वाली यह कृति निश्चय ही पाठक को एक नई दृष्टि प्रदान करेगी।
Hum Bheed Hain
- Author Name:
Raghuvansh
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Description:
रघुवंश ने 'आधुनिकता’ को केवल 'व्यक्ति’ की विशिष्टता के रूप में नहीं, बल्कि अपने समाज के गतिशील होने की सांस्कृतिक आकांक्षा के वैशिष्ट्य के रूप में समझने की चेष्टा की। दरअसल वे सांस्कृतिक चिन्तक थे। संस्कृति को परम्परा की रूढ़ियों से मुक्त करके उन्होंने अपने समय के समाज को विभिन्न समस्याओं से सन्दर्भित किया। राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक दृष्टि से भारतीय समाज के लिए क्या ग्राह्य है और किस रूप में ग्राह्य है, इसके विश्लेषण में पूर्वग्रह-रहित होकर रघुवंश जी ने समय-समय पर जो लेख-निबन्ध इत्यादि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखे, उनका संकलन उनकी इस पुस्तक में किया गया है। राजनीति, धर्म, शिक्षा और विकास के नए मॉडलों पर रघुवंश जी के क्या विचार थे, उनको जानने में इस पुस्तक की उपयोगिता असन्दिग्ध है।
रघुवंश ‘मनुष्य की सांस्कृतिक उपलब्धियों’ की कसौटी पर अपने समय और समाज की स्थितियों को परखने के हिमायती थे। इस पुस्तक में संकलित लेखों से यह भी पता चलता है कि उन्होंने अपने चिन्तन का फलक कितना व्यापक रखा। इसीलिए वे शिक्षा, राजनीतिक व्यवस्थाओं और साम्प्रदायिक संकटों को समझने और समझाने में निरन्तर संलग्न रहे।
यह पुस्तक 'हम भीड़ हैं’ हमें बताती है कि उनमें आधुनिकता और विकास का एक ऐसा स्वरूप पहचानने की व्याकुलता थी, जो काल की दृष्टि से 'नया’ हो और देश की दृष्टि से 'भारतीय’ हो। यही आकांक्षा रघुवंश जी को आचार्य नरेन्द्र देव, डॉ. लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे चिन्तकों की ओर आकृष्ट करती रही।
The Parsi Contribution to Indian Literature
- Author Name:
Coomi S Vevaina
- Book Type:

- Description: Compilation of papers presented at symposium on Parsin Contribution to Indian Literature organised by Sahitya Akademi in 2015 at Mumbai.
IKKISVIN SEERHI
- Author Name:
Ravindra Kumar
- Book Type:

- Description: ‘‘रविन्द्र कुमार जी की कविताओं में जीवन के विविध रंग मिले हुए हैं। ‘इक्कीसवीं सीढ़ी’, ‘चौराहा’, ‘जड़ से जूझना, लहर से नहीं’, ‘ये चीख’, ‘सियार से भेड़ तक’, ‘सीमित-जीवन’, ‘मन’, ‘बढ़ते चंगुल’ तथा ‘धरती की कोख में’ आदि कविताएँ इन्हीं विविध रंगों की बानगी हैं। कवि के पास जीवन का व्यापक अनुभव है और सच पूछा जाए तो कविता की व्यापकता जीवन की व्यापकता के समानांतर ही चलती है; और चलनी भी चाहिए। रविन्द्र कुमारजी की कविताएँ किसी वाद या विचारधारा की गुलाम न होकर एक शुद्ध झरने की तरह हैं।’’ ‘‘संग्रह की कविता ‘एक सपना’ में कवि के शब्द—‘‘एक सपना/जो मुझे बार-बार कचोटता/मेरे मन को मरोड़ता/जल की सतह के ऊपर नीचे डुबोता’’ और ‘‘कोई ध्वनि घनघनाकर धुएँ सा देता/और अंत में/एक हल्की/छोटी सी ज्वाला दे/खत्म हो जाता/ ...कितना अच्छा होता/ जो तू रहता अभी तक!’’—देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलामजी के उन शब्दों की याद दिलाती है कि सपने वे नहीं होते, जो सोते हुए देखते हैं वरन् सपने वे होते हैं, जो आपको सोने नहीं देते। इसलिए कवि हमेशा सपनों के साथ रहना चाहता है। पाठक को थोड़ी गहराई में जाकर ही ऐसी कविताओं का भावार्थ समझ में आएगा। जीवन की जटिलताओं के बीच भी उम्मीद की कुछ हरियाली सदा मौजूद रहती है और जीवन में कुछ हासिल करने का, सपनों को पाने का यही रास्ता है। व्यक्ति के लिए भी, समाज के लिए भी और देश के लिए भी।’’ —प्रेमपाल शर्मा वरिष्ठ साहित्यकार, पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय, नई दिल्ली
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