Paro: Dreams Of Passion
Author:
Namita GokhalePublisher:
Penguin IndiaLanguage:
EnglishCategory:
Contemporary-fiction1 Reviews
Price: ₹ 207.5
₹
250
Unavailable
First published in 1984, to both notoriety and critical acclaim, Paro remains a social comedy without parallel in contemporary Indian writing.
Paro, heroic temptress, glides like an exotic bird of prey through the world of privilege and Scotch that the rich of Bombay and Delhi inhabit. She is observed closely by the acid Priya, voyeur and obsessive diarist, who lost her heart to the sewing machine magnate BR, and then BR to Paro. But he is merely one among a string of admirers. Paro has seduced many: Lenin, the Marxist son of a cabinet minister; the fat and sinister Shambhu Nath Mishra, Congress Party éminence grise; Bucky Bhandpur, test cricketer and scion of a princely family; Loukas Leoras, a homosexual Greek film director; and, very nearly, Suresh, the lawyer on the make whom Priya has married . . .
ISBN: 9780143416968
Pages: 164
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Pratibha Katiyar
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- Description: मूलतः एक संवेदनशील कवि के रूप में अपनी पहचान बनाने वाली प्रतिभा कटियार का यह पहला उपन्यास अपनी पठनीयता और अपने सरोकार दोनों वजहों से लगभग चकित करता है। उपन्यास एक कोचिंग सेंटर से शुरू होता है जहाँ अलग-अलग वर्गों के छात्र एक-सी महत्वाकांक्षा के साथ पहुँचते हैं। मगर वहाँ भी छात्रों की पसन्द-नापसन्द, उनकी मैत्री और उनके सम्बन्धों में एक स्पष्ट भेदभाव चला आता है। उपन्यास में ऐसे किरदार हैं जो इस भेदभाव को तोड़कर आगे बढ़ते हैं और बताते हैं कि दुनिया इन खानों से बड़ी है। जाहिर है, यह प्रेम और आपसी समझ के रसायन से बनी मनुष्यता है जो सामाजिक चाल-चलन पर भारी पड़ रही है। उपन्यास की नायिका दलित समाज से आती है और बचपन से ही देखती है कि उसकी प्रतिभा दूसरों की आँख का काँटा बनी हुई है। उसकी सफलता भी उसका अभिशाप है। जब उसे कोचिंग सेंटर में ऐसा दोस्त मिलता है जो बराबरी पर भरोसा करता है और उससे प्रेम करने लगता है तब वह कुछ बदलती दिखती है। उपन्यास अगर इसी दिशा में बढ़कर एक सुखान्त पर खत्म हो जाता तो तो शायद वह बराबरी की कामना का एक रूमानी बयान होकर रह जाता। यहाँ लेखिका साबित करती हैं कि उनके लहजे में चाहे जितनी रूमानियत हो, यथार्थ की उनकी समझ बहुत खरी है। वे घर-परिवार और समाज के सारे पूर्वग्रह और पाखंड जैसे तार-तार कर देने पर तुली हैं। वे एक पल के लिए भी इस बात को ओझल नहीं होने देतीं कि यह समाज बहुधा कुछ लोगों के प्रति बहुत अमानुषिक व्यवहार करता है और अगर यह भी न हो तो अपनी उदारता के चरम लम्हों में भी वह उनके अवसर छीनने में कोई कोताही नहीं करता, कोई हिचक नहीं दिखाता। इसमें सन्देह नहीं कि यह उपन्यास एक साँस में पढ़ा जा सकता है, लेकिन उसके बाद जिस गहरी और लम्बी साँस की ज़रूरत पड़ती है, वह कहीं हलक में अटकी रह जाती है। कई किरदारों और स्थितियों के बीच रचा गया यह उपन्यास हमारे समय की एक बड़ी विडम्बना पर उँगली रखता है और अपने छोटे कलेवर के बावजूद एक बड़ा वृत्तान्त रचता है। —प्रियदर्शन
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