Asha Aur Vishwas : Ek Yatra
Author:
Dr. C.P. ThakurPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 320
₹
400
Available
डॉ.सी.पी. ठाकुर की ‘आशा और विश्वास : एक यात्रा’ उत्तर बिहार के एक गाँव में, एक साधारण किसान परिवार में पैदा हुए व्यक्ति की कहानी है। बचपन में वह अकसर बीमार रहते; हाई स्कूल में जाकर उन्हें ज्ञात हुआ कि वे कालाजार नामक रोग से पीडि़त हैं। बावजूद इसके, उन्होंने डॉक्टरी की शिक्षा प्राप्त की और लंदन और एडिनबरा, दोनों ही जगहों से एम.आर.सी.पी. परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। भारत आकर बतौर डॉक्टर एवं वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने अपार ख्याति प्राप्त की। कालाजार के क्षेत्र में उनके अग्रणी शोध ने उन्हें विश्वभर में पहचान दिलाई। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ ने उन्हें ‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’ से सम्मानित किया। 1984 में उन्होंने सार्वजनिक जीवन में कदम रखा और पटना से लोकसभा सांसद चुने गए। पूरी श्रद्धा और इमानदारी से वह जनसेवा में जुडे़ रहे।
ISBN: 9789390315758
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: यह पुस्तक सवालों के ज़रिए विश्वनाथ प्रताप सिंह की राजनीतिक जीवनी है, आत्मकथा और जीवन-वृतान्त से अलग। पूरी पुस्तक प्रश्नोत्तर शैली में है। राजा बहादुर मांडा राम गोपाल सिंह ने उन्हें बचपन में गोद लिया। इस तरह वे डैया से मांडा परिवार के हो गए। ये दोनों रियासतें पड़ोसी हैं। बचपन से वे सृजनशील रहे। राजनीति में क़दम रखने और शिखर तक पहुँचने की यात्रा का इस पुस्तक में रोचक वृतान्त है। कवि और कलाकार बने रहने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सक्रिय राजनीति से अवकाश लिया। उनका स्वास्थ्य जैसा भी रहा, वह उनकी संकल्प-शक्ति में कभी मामूली अड़चन भी नहीं डाल सका। इसीलिए वे मुम्बई, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के झुग्गी-झोंपड़ी वासियों के लिए उस तरह संघर्षरत रहे जैसे कि भरी जवानी में बने हुए थे। इस पुस्तक के ग्यारह अध्यायों में आख़िरी जो है उसमें कुछ मुद्दों पर उनके विचार हैं।
Rajpath Se Lokpath Par
- Author Name:
Vijayaraje Scindia
- Book Type:

- Description: "मेरे मानस पर अपने जीवनसाथी का ऐसा चित्र उभरता, जो देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे सूरमाओं में सबसे पहली पंक्ति का तेजपुंज हो।...स्वदेशी आग्रह का माहौल कुछ ऐसा बना कि प्रत्येक नागरिक विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कर देशभक्तों की पंक्ति में आ खड़ा होने लगा। इसी भावना से प्रेरित होकर मैंने प्रतिज्ञा की कि न केवल विदेशी वस्त्र अपितु अन्य कोई विदेशी वस्तु भी प्रयोग में नहीं लाऊँगी। अंग्रेज अधिकारियों के यहाँ जाना-आना रहता था, मैंने निर्णय लिया कि अब उनसे कोई संबंध नहीं रखूँगी। अतः उनके क्लबों, चाय-पार्टियों या भोज-समारोहों में जाना मैं टालने लगी। सफेद घोड़े पर एक लड़का सवार था और काले घोड़े पर एक लड़की। प्राणिउद्यान के एक नौकर ने पूछने पर बताया कि वे जिवाजीराव महाराज और उनकी बहन कमलाराजे थे। अर्थात् स्वयं महाराज सिंधिया अपनी बहन के साथ थे। हम लोगों द्वारा देखे गए उस प्रासाद, किले, उद्यान और उस शेर के भी स्वामी। नानीजी के मानस पर वह दृश्य बिजली की तरह कौंध गया। सहसा उनके मुँह से निकला, ‘‘हमारी नानी (मैं) की उनके साथ कितनी सुंदर जोड़ी लगेगी!’’ इतना सुनते ही मामा और सभी हँस पड़े। किसी के मुँह से निकला, ‘‘कल्पना की उड़ान ऊँची है।’’ मुझे लगा, राजनीतिक जीवन में रहकर सिद्धांतों एवं मूल्यों के संवर्धन के लिए जूझते रहना ही अपना कर्तव्य है। अतः मेरे मन में यह बोध जागा कि सम विचारवाले लोगों के साथ कार्य करना अधिक परिणामकारी होगा। ऐसे लोगों का दल, जिन्हें भ्रष्टाचार की लत नहीं लगी थी, मुझे अपना प्रतीत होने लगा।...वैचारिक दृष्टि से मुझे जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी की रीति-नीति अच्छी लगती थी, अतः दोनों ही दल मुझे करीबी लगते थे। किंतु मैं यह निर्णय नहीं कर पा रही थी कि दल की सदस्य बनूँ। अंततः मैंने दोनों ही दलों के टिकट पर चुनाव लड़ने का निश्चय कर लिया। मध्य प्रदेश विधानसभा के करेरा निर्वाचन क्षेत्र से मैं जनसंघ की प्रत्याशी बन गई। —इसी पुस्तक से तिहाड़ कारागृह नहीं है, यह धरती का नरक-कुंड है। और इस नरक-कुंड में वे लोग धकेल दिए गए थे, जिनके तपोबल से इंदिराजी का सिंहासन डिग रहा था।...तिहाड़ जेल में स्थान-स्थान पर गंदगी का ढेर जमा रहता। दुर्गंधयुक्त वायु में घुटन महसूस होती। भोजन के समय थाली पर से भिनभिनाती मक्खियों को लगातार दूसरे हाथ से उड़ाना पड़ता। कानों में कीट-पतंगों की आवाजें गूँजती रहतीं। अँधेरे में जुगनू का प्रकाश और कानों में झींगुर की झनकार। जीना दूभर था। इन सबके बावजूद हम चैन से थे। किंतु खुली हवा में साँस लेनेवाली इंदिराजी क्या चैन से थीं! उन्हें तो दिन में भी तारे नजर आ रहे थे। अयोध्या ईंट और पत्थर की बनी नगरी नहीं है। यह भारत की आत्मा और राष्ट्र की अस्मिता का प्रतीक है। इसीलिए जब रथयात्रा निकली तो हिंदू और मुसलमान दोनों इसमें समान रूप से शरीक हुए। राम और रहीम संग-संग चलते रहे। जनसभाओं में भी मुसलमान शिरकत करते रहे। न राग, न द्वेष; एक प्राण दो देह जैसी स्थिति थी। इस राष्ट्र-मिलन से उन मुट्ठी भर लोगों में खलबली मच गई, जो राजनीति की अँगीठी पर स्वार्थ की रोटियाँ सेंका करते थे। बाबरी ढाँचा टूटने का उनका भय और विरोध केवल इसी मात्र के लिए था। एक छोटे परिवार के दायरे से निकलकर विराट् में समाहित होने का सुख, वसुधैव कुटुंबकम् के आदर्श को जीने का प्रतीक था वह आयोजन। मुझसे छोटे से बने सुंदर, किंतु अति विशिष्ट मंदिर की सीढि़यों पर पैर का अँगूठा लगाने के लिए कहा गया। पर करती भी क्या! मजबूरी थी। उस मंदिर में एक ओर मेरे पति स्वर्गीय महाराज की मूर्ति रखी थी तो दूसरी ओर गुरुजी की। बीच में थे मेरे इष्टदेव श्रीकृष्ण। मैंने पाँव का अँगूठा नहीं, अपना माथा उस मंदिर से लगा दिया। इस प्रकार परदादी बनने का सुख मैंने संपूर्ण संघ परिवार के साथ जीया। ईश्वर से संपूर्ण भारतीय समाज के शुभ की कामना करती हूँ। —इसी पुस्तक से "
Ve Bhi Din The
- Author Name:
Shivnath
- Book Type:

- Description: ‘वे भी दिन थे’ शिवनाथ जी की आत्मकथात्मक डोगरी पुस्तक 'ओह बी दिन हे' का अनुवाद है। शिवनाथ बतौर व्यक्ति और लेखक, ऐसी शख़्सियत थे, जिनकी दृष्टि सूक्ष्म और सुदूर दोनों बिन्दुओं पर समान एकाग्रता से रहती थी। इस पुस्तक में उन्होंने 1950 में भारतीय डाक सेवा ज्वाइन करने के बाद से अपने संस्मरण, अनुवाद और विचार अंकित किए हैं। उनके विवरण की विशेषता यह है कि जहाँ-जहाँ वे रहे, उस शहर के वातावरण, साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों और महत्त्वपूर्ण स्थलों को उन्होंने गहरी नज़र से देखा, जिसका वर्णन भी वे इस पुस्तक में देते हैं। साथ ही डाक विभाग की कार्य-प्रक्रिया, संचार के इस देश-व्यापी संजाल की दिक़्क़तों और सम्भावनाओं की भी जानकारी देते चलते हैं। वे जिज्ञासु, ज्ञान-पिपासु और सेवा-भावी व्यक्ति थे। कर्तव्यनिष्ठा को उनके व्यक्तित्व से एक नया ही अर्थ मिलता था, जिसकी झलक हमें इस पुस्तक में भी मिलती है। कुछ स्थानों और व्यक्तियों का विवरण देखते ही बनता है। पुस्तक में डैनिश साधु शून्यता से उनकी पहली मुलाक़ात का वर्णन भी है। उनकी मैत्री 1952 से शुरू होकर 1982 तक चली। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने उनके पत्रों पर केन्द्रित एक पुस्तक 'शून्यता' का सृजन भी किया। डोगरी को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दिलाने में भी उन्होंने अहम भूमिका निभाई, इसका ज़िक्र भी उन्होंने विस्तार से किया है। “हिन्दी में आत्मकथाएँ और जीवनियाँ कम ही हैं। लेखकों की आत्मकथाएँ तो और भी बहुत कम, लगभग गिनती की। शिवनाथ डोगरी के एक बड़े लेखक होने के अलावा सिविल सेवक भी थे। उनकी यह आत्मकथा उनके निरभिमानी व्यक्तित्व, लम्बे सार्वजनिक जीवन, उसके उतार-चढ़ावों और लेखकीय संघर्ष की, बिना किसी नाटकीयता के, तथा कथा है। हमें उसे प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता है।" —अशोक वाजपेयी
Satrein Aur Satrein
- Author Name:
Anita Rakesh
- Book Type:

-
Description:
यह पुस्तक कथाकार मोहन राकेश के बारे में है जिसे लिखा है—अनीता राकेश ने। यह अनीता जी के अपने बारे में भी है; राकेश जी से उनके रिश्ते के बारे में भी। और इसकी विशेषता है, एक ऐसी क़लम से लिखा जाना जिसने लिखा बहुत कम, और जिया बहुत ज़्यादा। यही वजह है कि आप इसे एक ही बैठक में पढ़ने को बाध्य हो जाते हैं।
मोहन राकेश का अपना जीवन अनेक विडम्बनाओं, दु:खों और परेशानियों में बीता, उनका वैवाहिक जीवन कभी उस तरह सन्तोषजनक नहीं रहा, जैसे सामान्यत: लोगों का होता है। अनीता जी ने जब उनके जीवन में क़दम रखा, तब वे उनसे बहुत छोटी थीं, बहुत लम्बे समय उनके साथ रह भी नहीं पाईं। इससे पहले कि उनके रिश्ते एक स्थिर जीवन में बदलते, राकेश दुनिया छोड़ गए।
इस किताब में उन पेचीदगियों का वर्णन है जिससे कुछ समय के साथ के दौरान, ख़ासकर अनीता जी गुज़रीं, और राकेश भी। इसके बाद उस समय की कथा है जब वे अचानक अकेली रह गईं। एक तरफ़ भावनात्मक अकेलापन और दूसरी तरफ़ जीवन की व्यावहारिक चुनौतियाँ। इस किताब के पन्नों पर इस सबको बिना किसी आलंकारिकता के प्रस्तुत कर दिया गया है।
यह इस संस्मरण शृंखला की दूसरी पुस्तक है। इसमें हम मोहन राकेश के बारे में जितना जान पाते हैं, उतनी ही उस दौर के साहित्यिक माहौल के बारे में भी, और उतना ही मनुष्य जीवन की विकट सच्चाइयों के बारे में भी।
Aamne-Saamne
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

- Description: नामवर सिंह अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनका बोला-बताया अब भी ऐसा बहुत कुछ है जो सामने आना बाकी है। लम्बे समय तक उन्होंने व्यवस्थित ढंग से कुछ नहीं लिखा था; व्याख्यानों और वक्तव्यों के रूप में ही उन्होंने आलोचना के नए-नए पैमाने तोड़े और बनाए। युवाओं, वरिष्ठों, छात्रों-पत्रकारों और समकालीन रचनाकारों को दिए साक्षात्कारों में भी उन्होंने सदैव एक उत्तरदायी आलेचकीय चेतना को अभिव्यक्ति दी। उनकी आश्चर्यजनक स्मृति, वैचारिक स्पष्टता और आस्वादपरक समीक्षा के चलते व्याख्यानों की तरह उनके साक्षात्कार भी सदैव चर्चित रहे। इस पुस्तक में उनके ऐसे साक्षात्कारों को संकलित किया गया है जो अब तक किसी और पुस्तक में नहीं आए थे। कई वरिष्ठ और कनिष्ठ रचनाकारों और सम्पादकों के साथ हुए ये वार्तालाप उनकी आलोचना-दृष्टि, समकालीन रचनात्मकता पर उनके विचारों और सरोकारों को रेखांकित करते हैं। इनमें से कुछ साक्षात्कार इसलिए और भी दिलचस्प है कि इनमें उन्होंने किसी एक ही रचनाकार या कृति पर केन्द्रित प्रश्नों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। मसलन स्वयं प्रकाश, त्रिलोचन, काशीनाथ सिंह का ‘काशी का अस्सी’ आदि पर केन्द्रित बातचीत। साक्षात्कारकर्ताओं में भी अलग-अलग पीढ़ियों के लोग हैं; जिन्होंने अपने-अपने ढंग से उनसे अपनी जिज्ञासाओं पर विचार-विनिमय किया है।
An Unsuitable Boy
- Author Name:
Karan Johar +1
- Book Type:

- Description: Karan Johar is synonymous with success, panache, quick wit, and outspokenness, which sometimes inadvertently creates controversy and makes headlines. KJo, as he is popularly called, has been a much-loved Bollywood film director, producer and actor. With his flagship Dharma Production, he has constantly challenged the norms, written and rewritten rules, and set trends. But who is the man behind the icon that we all know? Baring all for the first time in his autobiography, An Unsuitable Boy, KJo reminisces about his childhood, the influence of his Sindhi mother and Punjabi father, obsession with Bollywood, foray into films, friendships with Aditya Chopra, SRK and Kajol, his love life, the AIB Roast, and much more. In his trademark frank style, he talks about the ever-changing face of Indian cinema, challenges and learnings, as well as friendships and rivalries in the industry. Honest, heart-warming and insightful, An Unsuitable Boy is both the story of the life of an exceptional film-maker at the peak of his powers and of an equally extraordinary human being who shows you how to survive and succeed in life.
Komal Gandhar
- Author Name:
Vilayat Khan
- Book Type:

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Description:
उस्ताद विलायत ख़ाँ अप्रतिम सितार वादक थे। उनके बजाने-गाने की कई कथाएँ भी किंवदन्तियों की तरह प्रचलित हैं। वह ओज, सरसता, सूक्ष्मतम ध्वनि तरंगों और माधुर्य के धनी थे। जिन्होंने उनको सुना है—आमने-सामने बैठकर—वे तो उनके ‘बजाने की छवि’ को भी याद करते हैं, सिर्फ़ उनके सुरों को ही नहीं। यहाँ हम लेखक और संगीतविद् शंकरलाल भट्टाचार्य द्वारा मूल रूप से बांग्ला भाषा में उस्ताद विलायत ख़ाँ की आत्मकथा के तैयार किए गए वार्तालेख के साथ उन पर एकाग्र तीन आलेखों को सुपरिचित आलोचक और अनुवादक रामशंकर द्विवेदी के अनुवाद में प्रस्तुत कर रहे हैं। पहले दो आलेख, क्रमश: दो संगीत-पारखियों नीलाक्ष दत्त और आशीष चट्टोपाध्याय के हैं, तीसरा बांग्ला के विख्यात कवि जय गोस्वामी का है। तीनों आलेख अपने-अपने ढंग से विलायत ख़ाँ के सितार के गुणों को तो उभारते ही हैं, उनके व्यक्तित्व की भी एक झलक प्रस्तुत करते हैं। नीलाक्ष दत्त के आलेख में तो स्वयं विलायत ख़ाँ के सितार की बनावट-बुनावट, और उसे बजाने की तकनीक की भी चर्चा है। इन आलेखों में उन कई सामान्य श्रोताओं की भी एक मर्मभरी उपस्थिति है, जो मानो उनके सितार के पीछे 'पागल' ही तो थे।
सामान्य श्रोताओं से लेकर गुणी संगीत पारखियों, समीक्षकों, लेखकों-कवियों-कलाकारों, बुद्धिजीवियों तक में संगीत के प्रति यह जो अनुराग रहा है, वह इस आत्मकथा को पढ़कर भी जाना जा सकता है। कहना न होगा कि ‘कोमल गांधार' पठनीय ही नहीं, बल्कि संग्रहणीय पुस्तक भी है।
“उस्ताद विलायत ख़ाँ भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक विभूति थे। उनकी दो सौ अट्ठाइस पृष्ठों में फैली आत्मकथा के साथ-साथ इस पुस्तक में परिशिष्ट के रूप में नीलाभ दत्त, आशीष भट्टाचार्य और प्रसिद्ध बांग्ला कवि जय गोस्वामी द्वारा उन पर लिखे निबन्ध भी शामिल किए गए हैं। यह मूल्यवान उपक्रम प्रयत्नपूर्वक किया है संगीतविद् शंकरलाल भट्टाचार्य ने। हिन्दी में एक महान संगीतकार से सम्बन्धित ऐसी दुर्लभ सामग्री को लाने की ज़िम्मेदारी पूरी की है वरिष्ठ विद्वान, रसिक और अनुवादक डॉ. रामशंकर द्विवेदी ने। आत्मकथा, निबन्ध, लेखन और अनुवाद सभी सृजन और संगीत के गहरे और निश्छल प्रेमवश किए गए हैं। रज़ा पुस्तक माला 'कोमल गांधार' को बहुत प्रसन्नता और कृतज्ञता के साथ प्रस्तुत कर रही है।"
—अशोक वाजपेयी
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