Manikarnika
Author:
Tulsi ramPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
‘मणिकर्णिका’ डॉ. तुलसी राम की आत्मकथा का दूसरा खंड है। पहला खंड ‘मुर्दहिया’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि ‘मुर्दहिया’ को हिन्दी जगत की महत्तपूर्ण घटना के रूप में स्वीकार किया गया। साहित्य और समाज विज्ञान से जुड़े पाठकों, आलोचकों व शोधकर्ताओं ने इस रचना के विभिन्न पक्षों को रेखांकित किया। शीर्षस्थ आलोचक डॉ. नामवर सिंह के अनुसार ग्रामीण जीवन का जो जीवन्त वर्णन ‘मुर्दहिया’ में है, वैसा प्रेमचन्द की रचनाओ में भी नहीं मिलता।
‘मणिकर्णिका’ में ‘मुर्दहिया’ के आगे का जीवन है। आज़मगढ़ से निकलकर लेखक ने क़रीब 10 साल बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में बिताए। बनारस में आने पर जीवन के अन्त की प्रतीक ‘मणिकर्णिका’ से ही लेखक का जैसे नया जीवन शुरू हुआ। लेखक के शब्दों में ‘गंगा के घाटों तथा बनारस के मन्दिरों से जो यात्रा शुरू हुई थी, अन्ततोगत्वा वह कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर में समाप्त हो गई। मार्क्सवाद ने मुझे विश्व-दृष्टि प्रदान की, जिसके चलते मेरा व्यक्तिगत दुःख दुनिया के दुःख में मिलकर अपना अस्तित्व खो बैठा। मुर्दहिया में जो विचार सुप्त अवस्था में थे, वे ‘मणिकर्णिका’ में विकसित हुए।’
लेखक ने अपने जीवनानुभवों का वर्णन करते हुए उस ख़ास समय को भी विश्लेषित किया है जिसके भीतर प्रवृत्तियों का सघन संघर्ष चल रहा था। बनारस जैसे इस कृति के पृष्ठों पर जीवन्त हो उठा है। इस स्मृति-आख्यान में कलकत्ता भी है, अनेक वैचारिक सन्दर्भों के साथ।
‘मणिकर्णिका; डॉ. तुलसी राम के जीवन-संघर्ष की ऐसी महागाथा है जिसमें भारतीय समाज की अनेक संरचनाएँ स्वतः उद्घाटित होती जाती हैं।
ISBN: 9788126726271
Pages: 208
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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एक बच्चा चालीस साल की दूरी से दुनिया को देखता है, उसकी हथेलियों में कसैला पानी-फल है।
एक आक्रान्त, अपने आप में डूबा अकेला बचपन और एक आशंकाओं में घिरा अनिर्णीत भविष्य, एक हताश और गहराता हुआ अन्धकार और एक मुक्ति का विश्वास दिलाता जगमग रौशन क्षितिज, एक भयग्रस्त पलायन और फिर पलटकर एक निर्भय प्रत्याघात।
जीवन के अनगिन धुँधले सूर्यास्तों और फिर उजालों और उम्मीदों से भरे पुनर्जीवन की मिसाल या प्रतिमान बनते उत्कट जीवन-संग्राम की मार्मिक और रोमांचक कथा कहती, चर्चित युवा रचनाकार-लेखक यतीश कुमार की यह आत्मकथा इस नए वर्ष, सन् 2024 में स्वयं उनके लिए अतीत के बीहड़ यथार्थ में दुबारा लौटकर दाख़िल होने का एक नया, चुनौतियों से भरा सृजनात्मक प्रयास है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह साहित्यचिन्तन ही नहीं, मानविकी के समस्त अनुशासनों की मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति अपने बचपन में दुबारा नहीं लौट सकता। इसके लिए किसी न किसी ऐसी युक्ति या डिवाइस के ईज़ाद की ज़रूरत होगी, जो स्मृतियों के धुँधलके में घिरीं तमाम सँकरी-उलझी पगडंडियों में उल्टी दिशा में रेंग सके।
यतीश कुमार ने अपने बचपन और अतीत में जाने के लिए जिस ‘युक्ति’ का आविष्कार किया है, उसे वे ‘अतीत का सैरबीन’ का नाम देते हैं। यह कोई भौतिक गैजेट नहीं है, यह भाषा, शब्द और वाक्यार्थों में अवस्थित एक नितान्त निजी और सृजनात्मक माध्यम है, जिसके सहारे वे देश के सुदूर दक्षिण-पूर्व में अपनी ज़िन्दगी के लिए छटपटाती एक छोटी-सी नदी किऊल के तट पर बसे एक अर्द्ध-ग्रामीण क़स्बे के जीवन के बीस वर्षों (1980-2000) की स्मृतियों का मार्मिक, सम्मोहक, विकट, साहसिक और ईमानदार सार्वजनिक रचनात्मक रोजनामचा दर्ज करते हैं। स्मृतियों के पुनर्लेखन या उत्कीर्णन की यह श्रमसाध्य और कलात्मक कोशिश है।
पूरी उम्मीद है समकालीन रचनात्मक परिदृश्य में ‘बोरसी भर आँच’ अपनी ख़ास जगह बनाएगी।
—उदय प्रकाश
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