हिंदी कविता की डिजिटल विडंबना

हिंदी कविता की डिजिटल विडंबना

सोशल मीडिया की दुनिया में जैसे ही कोई सेलेब्रिटी कविता की कुछ पंक्तियाँ पढ़ता है, माइक के सामने हल्की रोशनी, धीमा बैकग्राउंड म्यूजिक, और एक ‘फील’ वाला एक्सप्रेशन, कमेंट बॉक्स में आग लग जाती है:


"वाह! दिल छू लिया🥰🥰🤟!"

"आवाज़ में जादू है!🪄✨"

"ऐसी कविताएँ रोज़ सुनने को मिलें! ♥️"


लेकिन जब वही कविता एक किताब में छपी होती है, तो वह कहीं शांत पड़ी रहती है। क्यों?

क्या पढ़ने की हमारी आदत गई है? या फिर हमें "सुनना" ज़्यादा पसंद है?


तथ्य बनाम भावना: कविता पढ़ने और सुनने की लड़ाई

2022-23 की नेशनल बुक ट्रस्ट रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रकाशित किताबों में सबसे ज़्यादा हिस्सा शिक्षा (academic) और फिक्शन का है। हिंदी में हर साल औसतन 4500-5000 किताबें प्रकाशित होती हैं, जिनमें से कविता संग्रह मात्र 7-8% होते हैं। वहीं, नॉवेल, समसामयिक लेखन, आत्मकथाएँ और प्रेरणादायक किताबें लगातार बढ़ रही हैं।


लेकिन यूट्यूब, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर जाओ, गुलज़ार, जावेद अख्तर, कुमार विश्वास, इरशाद कामिल, राहत इंदौरी की पुरानी क्लिप्स से लेकर नए शायरों की लाइव कविता वाचन तक, हर वीडियो पर लाखों व्यूज़।


तो सवाल यह है: कविता तो पसंद है, फिर किताबें क्यों नहीं बिकतीं?


सुनने की आदत, पढ़ने की दूरी

हमारे यहाँ एक परंपरा रही है – कविसम्मेलन, मुशायरे, दस्तक जैसे कार्यक्रमों की। कविता का जन्म ही मौखिक परंपरा से हुआ था। और हिंदी-उर्दू की कविता तो खासकर गायनात्मक लय से बंधी होती है। जब कोई कविता “गाकर” सुनाई जाती है, आवाज़ में उतार-चढ़ाव, ठहराव, और खास बोली (जैसे अवधी, बुंदेलखंडी, या ब्रज) मिलती है, तो उसका असर सीधा दिल पर होता है।

कवि “सुना” जाता है, “पढ़ा” नहीं जाता।


सोशल मीडिया = मुफ्त में भावनायें

सच यह भी है कि सोशल मीडिया ने कविता को “इंस्टेंट फील” बना दिया है। आपको किताब खरीदने, खोलने, समझने की मेहनत नहीं करनी पड़ती। बस रील पर स्क्रॉल कीजिए, 30 सेकंड में भावनाएं डाउनलोड कीजिए, और अगले वीडियो पर चले जाइए।

इसमें न पैसे खर्च होते हैं, न दिमाग।


रील की कविता: "तू मुझे छोड़ गया..."

किताब की कविता: "विरह की पीड़ा में नयन अश्रुपूरित हैं..."


रील में जो "feel" है, वह किताब के "font" में नहीं है, यही दुर्भाग्य है।


कवि की आवाज़ > पाठक की कल्पना

जब राहत इंदौरी अपनी ग़ज़ल पढ़ते थे – “बुलाती है मगर जाने का नहीं...”, तो उस ‘जाने का नहीं’ में जो रुकावट थी, वह पाठक पढ़ते हुए महसूस नहीं कर सकता। कविता में अक्सर स्वर, भाव, और बोलियों का इस्तेमाल होता है, जो सिर्फ कवि की जुबान से ही सही तरीके से अभिव्यक्त होता है।

आपने शायद ये सुना हो:

मीर को पढ़ा नहीं, सुना जाना चाहिए।

और यही बात आज भी लागू होती है।


पब्लिशर्स का भ्रम: कविता बिकती नहीं

प्रकाशक यह कह कर कविता संग्रह छापने से हिचकिचाते हैं कि “कविता बिकती नहीं”। अब यहाँ भी एक प्रश्न हैं, क्या उन्होंने इसे सही तरीके से पेश किया है?

अगर कविता को ऑडियोबुक के रूप में, कवि की ही आवाज़ में, म्यूजिक बैकग्राउंड के साथ, और rachnaye जैसे प्लेटफॉर्म पर लाया जाए, तो इसका प्रभाव कहीं अधिक हो सकता है।


गद्य को पढ़ा जाता है, लेकिन कविता को महसूस किया जाता है, और वह अनुभव सुनने से ही आता है।


कविता की मार्केटिंग होती है, ज़ीरो

प्रकाशक अगर नॉवेल के लिए बुक ट्रेलर बना सकते हैं, तो कविता के लिए क्यों नहीं?

क्यों नहीं सोशल मीडिया पर एक मिनट की कविता वाचन क्लिप, उसी कवि की आवाज़ में? क्यों नहीं पॉडकास्ट सीरीज? क्यों नहीं कविता वाचन के लाइव इवेंट्स?

बिक्री तभी बढ़ेगी जब पैकेजिंग और प्रेजेंटेशन बदलेंगे। आज की पीढ़ी कविता पढ़ना नहीं भूल गई है, बल्कि पढ़ने के अनुभव को सही माध्यम में ढालना जरूरी है


पाठकों का गिल्ट ट्रिप: “हम पढ़ते तो हैं…”

कई पाठक सोशल मीडिया पर लिखते हैं, “कविता तो बहुत पसंद है, लेकिन समय नहीं मिलता”, या फिर “अब किताबें कौन पढ़ता है यार!”

और वही पाठक पाँच मिनट बाद 25वीं इंस्टा रील पर होते हैं।

यह हमारी attention span की त्रासदी है। हम चाहते हैं कि भावनाएं टेबल सर्व की जाएं, उन्हें चबाने, निगलने की मेहनत न करनी पड़े।


अब समाधान क्या है?


लेखकों के लिए:

  1. Rachnaye जैसे प्लेटफार्म को अपनायें, अपनी कविताएं स्वयं रिकॉर्ड करें।
  2. किताब के साथ साथ ऑडियोबुक का भी प्रचार करें।
  3. इंस्टा रील्स को प्रचार नहीं, कविता अनुभव बनाने में इस्तेमाल करें।

प्रकाशकों के लिए:

  1. कवि की आवाज़ में ऑडियोबुक लॉन्च करें।
  2. कवि वाचन सीरीज बनाएं
  3. कविता संग्रह के साथ पॉडकास्ट करें, ताकि "बुक + अनुभव" पैकेज बिके।

पाठकों के लिए:

  1. अगली बार जब आप किसी कविता वाचन पर “दिल से ❤️” लिखें, एक कविता की किताब भी ऑर्डर कर लें।
  2. कवियों को उनकी रचना के लिए रॉयल्टी तभी मिलेगी जब आप उन्हें पढ़ेंगे, न कि सिर्फ तालियां बजाएंगे।


अंत में...

सोशल मीडिया पर कविता को पॉप संस्कृति का हिस्सा बना दिया गया है, लेकिन उसके लेखक अब भी हाशिए पर हैं।

कविता को सिर्फ सुनने का नहीं, समझने और खरीदने का भी चलन बनाएं

वरना आने वाले समय में ये होगा:

"कविता वाचन हुआ 10 लाख बार,
पर किताब बिकी सिर्फ चार।"

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