Vivah Sanskar : Swaroop Evam Vikas
Author:
Tapi Dharma RaoPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Society-social-sciences0 Reviews
Price: ₹ 32
₹
40
Available
तेलगू के ख्यात लेखक तापी धर्माराव के लेखन का आधार इतिहास व किंवदन्तियों का वैज्ञानिक अन्वेषण है। प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर उन्होंने सामाजिक यथार्थ की पुस्तकें लिखी हैं। स्थापित रूढ़ मान्यताओं के पैरवीकारों को थोड़ी आपत्ति अवश्य हो सकती है, लेकिन इन मुद्दों पर विचार करने के लेखकीय आग्रह को वे टाल नहीं सकते।</p>
<p>यह पुस्तक विवाह संस्कार के स्वरूप और विकास का बख़ूबी मनोविश्लेषण करती है। नर तथा नारी के सम्बन्धों के समाज पर पड़े प्रभाव के कारण बहुतेरी कुप्रथाएँ भी प्रचलित हो जाती हैं और उचित जानकारी के अभाव में यह यथावत् रहती हैं। यदि समाज के सम्मुख इन कुप्रथाओं को उजागर किया जाए तो इसके नैतिक स्वरूप में परिवर्तन सम्भव है। समस्याओं की यथावत् पहचान कर उन्हें स्पष्ट कर दिया जाए तो स्वयमेव उनके नैतिक स्वरूप में अन्तर आ जाता है। ऐसा ही सार्थक प्रयास तापी धर्माराव ने अपनी इस समाज–मनोविज्ञान की पुस्तक में किया है।
ISBN: 9788171196142
Pages: 119
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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गोष्ठियों के रूप अभी भी शादी-ब्याह की तरह हैं। एक दूल्हा, बाक़ी बाराती। गोष्ठी के मंच जातिभेद कराते हैं। ऊपर महान बैठेंगे। नीचे दासानुदास। एकदम विनय पत्रिका वाली हाइरार्की। प्रगतिशील, रूपवादी सब ये ही करते हैं।
बहस न सही, तू-तू, मैं-मैं ही सही। कुछ तो है। बुरा क्या है? नए पूँजीवाद में ये तो होना ही है।
मशाल टार्च बन चुकी है। राजनेता के पास जो ब्रांड टार्च है, वही साहित्यकार के पास है। ‘साहित्य और राजनीति’ की चिर बहस अब मर चुकी है। यही अच्छा है।
पढ़ें तो जानें, क्योंकि ये ‘अन्दर की बात है’। साहित्य का असल समाजशास्त्र है। यह ‘अन्दर की बात’ बहुत जटिल है रे!
और हम सब जो ‘बचे-खुचे’ हैं, तरह-तरह की ‘पूरणीय क्षतियाँ’ हैं जो हर गोष्ठी, सेमिनार, शोकसभा में मौजूद रहती हैं। होंगी कोई हज़ार-पाँच सौ। हम सब अपूरणीय ‘क्षति’ करके ही जाएँगे। बच्चो सावधान!
Reetikaleen Bharatiya Samaj
- Author Name:
Shashiprabha Prasad
- Book Type:

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वीरकाव्य–प्रणेताओं को चरित कवि कहा गया है। क्योंकि उनके काव्य का उद्देश्य अपने चरितनायक के जीवन के विभिन्न पक्षों का यशोगान ही है।
सामान्यत: ‘रीतियुग के कवि’ से तात्पर्य रीतिमुक्त एवं रीतिभुक्त कवियों से है, क्योंकि साहित्य की दृष्टि से उन्हें ही आलोच्यकाल का प्रतिनिधि कवि माना गया है।
कवि भावलोक का प्राणी होता है। युग–जीवन उसके सृजन में प्रतिबिम्बित अवश्य होता है, किन्तु उसके चित्र को सम्यक् एवं पूर्णरूप से देखने के लिए काव्येतर स्रोतों से विवेच्य काल की सामाजिक परिस्थितियों का ज्ञान अपेक्षित है। इस दृष्टिकोण से पहले अध्याय में काव्येतर स्रोतों से तत्कालीन समाज की प्रतिमा निर्मित करने का प्रयास किया गया है। दूसरे अध्याय से काव्य–स्रोतों के आधार पर तत्कालीन समाज का अध्ययन आरम्भ होता है जिसमें समाज की सामान्य रचना को लिया गया है। इसमें समाज के भौतिक एवं धार्मिक विभाग, हिन्दुओं की वर्णाश्रम व्यवस्थाएँ और पारिवारिक रचना अन्तर्भुक्त हैं। तीसरे अध्याय में तत्कालीन समाज के राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन को देखने का प्रयत्न किया गया है। चौथे अध्याय में रहन–सहन के अन्तर्गत मानव जीवन की मूल आवश्यकताएँ, असन–वसन–आवास, और मनुष्य के सहज सौन्दर्यबोध से परिचालित शृंगार–प्रसाधन और अलंकरण के उपविभाग हैं। पाँचवें अध्याय में लोकजीवन के उल्लास एवं आह्लाद को वाणी देनेवाले संस्कार–पर्वादि का विवेचन किया गया है। छठे अध्याय में रीतिकालीन काव्य में चित्रित समाज के नारी–सम्बन्धी दृष्टिकोण की विवेचना की गई है। सातवें अध्याय में आलोच्यकाल के उन विश्वासों एवं प्रत्ययों का अध्ययन किया गया है जो हिन्दू जाति को एक अलग व्यक्तित्व और विवेच्य युग को अलग सत्ता प्रदान करते हैं। इसे जीवन–दृष्टि के नाम से अभिहित किया गया है, जिसके अन्तर्गत सम्बन्धित युग की विभिन्न प्रवृत्तियों, धर्म एवं धर्माभास, विश्वासों एवं अज्ञात आधारवाले विश्वासों, कर्मफलवाद, भाग्यवाद व पुनर्जन्म एवं सांस्कृतिक समन्वय आदि हैं।
सात अध्यायों में विभाजित शशिप्रभा प्रसाद की महत्त्वपूर्ण आलोच्य कृति है ‘रीतिकालीन भारतीय समाज’। अध्येताओं, शोध–छात्रों एवं पुस्तकालयों के लिए अत्यन्त उपयोगी पुस्तक।
Aadhunik Bharat Mein Jati
- Author Name:
M.N. Shrinivas
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अथक अध्ययन और शोध के परिणामस्वरूप एम.एन. श्रीनिवास के निबन्ध आकार ग्रहण करते हैं। भारतीय समाज की नब्ज़ पर उनकी पकड़ गहरी और मज़बूत है। उनके लेखन में इतिहास और बुद्धि का बोझिलपन नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक में संगृहीत निबन्धों में समाजशास्त्र व नृतत्त्वशास्त्र विषयक समस्याओं के व्यावहारिक पक्षों पर रोशनी डाली गई है। लेखक समस्याओं की तह में जाना पसन्द करता है और उसके विश्लेषण का आधार भी यही है।
हर समाज की अपनी मौलिक संरचना होती है। जिस संरचना को उस समाज के लोग देखते हैं, वह वैसी नहीं होती जैसी समाजशास्त्री शोध और अनुमानों के आधार पर प्रस्तुत करते हैं। भारतीय समाजशास्त्रियों ने जाति- व्यवस्था के जटिल तथ्यों को ‘वर्ण’ की मर्यादाओं में समझने की भूल की और जिसके चलते सामाजिक संरचना का अध्ययन सतही हो गया। गत सौ-डेढ़ सौ वर्षों के दौरान जाति-व्यवस्था का असर कई नए-नए कार्यक्षेत्रों में विस्तृत हुआ है और उसकी ऐतिहासिक व मौजूदा तंत्र की नितान्त नए दृष्टिकोण से विश्लेषण करने की माँग एम.एन. श्रीनिवास करते हैं। हमारे यहाँ जाति-व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि बिना इसके सापेक्ष परिकलन किए मूल समस्याओं की बात करना बेमानी है। एम.एन. श्रीनिवास का मानना है कि समाज-वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए राजनीतिक स्तर के जातिवाद तथा सामाजिक एवं कर्मकांडी स्तर के जातिवाद में फ़र्क़ करना ज़रूरी है।
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