Vedanta Va Jeevan Prabandhan
Author:
Dr. Vikrant Singh TomarPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Society-social-sciences0 Reviews
Price: ₹ 320
₹
400
Unavailable
ऋषियों की भूमि भारत, जहाँ वेद और उपनिषदों का प्रादुर्भाव हुआ। ऐसे शास्त्र, जिन्होंने न केवल मनुष्य को उसके जीवन के मुख्य उद्देश्य के बारे में अवगत कराया, बल्कि उसके साथ ही उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मार्ग भी बताया और प्रशस्त किया। वेदांत मनुष्य के जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य ‘स्वाआत्मानुभूति’ का राजमार्ग है। इस पुस्तक के प्रारंभिक तीन अध्यायों में वेदांत का प्रारंभिक परिचय कराने का प्रयास किया गया है और अंतिम तीन अध्यायों में जीवन प्रबंधन के वैदिक मॉडल पर चर्चा की गई है। इस पुस्तक के प्रथम अध्याय ‘वेदांत की रूपरेखा’ में वेदांत के सृजन का कारण और उसके उद्देश्यों को उल्लेखित किया गया है। दूसरे अध्याय ‘चार पुरुषार्थ’ में मनुष्य के जीवन के चार प्रमुख लक्ष्यों का उल्लेख है। तीसरे अध्याय ‘शास्त्र में भारतीय दर्शन’ में विभिन्न शास्त्रों का संक्षेप में वर्णन है, जो उन लक्ष्यों को प्राप्त करने का मार्ग सुझाते हैं। चौथे अध्याय ‘वर्ण व्यवस्था’ में उस मार्ग पर चलने की व्यक्तिगत तैयारी का मार्गदर्शन है। पाँचवाँ अध्याय ‘आश्रम व्यवस्था’ उन लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु वृहद् सामाजिक संरचना प्रस्तुत करता है। छठे अध्याय ‘सोलह संस्कार’ में मील के वे पत्थर हैं, जो हमें बताते हैं कि हम सही रास्ते पर चल रहे हैं।
ISBN: 9789390900374
Pages: 208
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: इज़्ज़त से जीना रेवड़ी नहीं, हक़ है। इस सहज पुस्तक को पढ़कर न केवल आपकी समझ बढ़ेगी, आपका दिल भी बढ़ेगा। —ज्याँ द्रेज़ पिछले बीस सालों में रीतिका खेरा और उनकी टीम ने देश के ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक नीतियों के ज़मीनी हालात पर कई प्राथमिक सर्वेक्षण किये हैं, इस पुस्तक का आधार वही सर्वेक्षण हैं। सामाजिक नीतियों का दायरा तय करना आसान नहीं है, लेकिन इनके दायरे में स्कूली शिक्षा, सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएँ, आँगनवाड़ियाँ, स्कूलों में मध्याह्न भोजन, राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (नरेगा), जन-वितरण प्रणाली, वृद्धावस्था, विधवा और विकलांगता पेंशन एवं मातृत्व लाभ ज़रूर आते हैं। इस किताब में जन्म से मृत्यु तक हमारे सहारे के लिए बनी इन सामाजिक नीतियों का आकलन किया गया है। चर्चा के मुख्य बिन्दुओं में इन योजनाओं का क्रियान्वयन, उसमें रह गईं त्रुटियाँ, उपलब्धियाँ और राज्यों के बीच इनके स्वरूप में जो अन्तर देखने को मिले, उन पर चर्चा की गई है। इस किताब का मक़सद है कि पाठक भारत की सामाजिक नीतियों से परिचित हों, वे इस ढाँचे को पहचानें और उसके पीछे के तर्क को समझें। उनके सामने यह बात स्पष्ट हो कि वे क्या नैतिक और आर्थिक सिद्धान्त हैं जिनके आधार पर न केवल भारत में, बल्कि दुनिया-भर में सरकारें इस तरह के हस्तक्षेप करती हैं? और हमें क्यों इन सामाजिक नीतियों को लोगों के हक़ के रूप में देखना चाहिए, न कि ‘माई-बाप सरकार’ की कृपा या ‘रेवड़ी’ के रूप में। ‘रेवड़ी या हक़ ’ पुस्तक को यह रूप देने और अपने निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए विविध पृष्ठभूमियों और नज़रियों के लोगों और संस्थाओं से भी संवाद किया गया। शोध के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के जीवन-संघर्ष को तो सर्वेक्षणकर्ता ने नज़दीक से देखा ही, नई पीढ़ी के इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट के छात्रों से भी बातें हुईं और शहरी मध्यवर्ग से आने वाले मित्र-परिवारों से इन सामाजिक नीतियों को लेकर उनकी सोच क्या है, वह भी जाना। कह सकते हैं कि यह किताब सामाजिक नीतियों पर, इन विभिन्न समूहों और अपने नज़रिये के बीच एक संवाद की कोशिश है।
Dr. Rammanohar Lohia Ka Samajwadi Darshan
- Author Name:
Tarachand Dixit
- Book Type:

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Description:
डॉ. लोहिया का समाजवादी चिन्तन देश-प्रेम एवं जन-कल्याण की भावनाओं से ओतप्रोत है, उसका दर्शन नितान्त मौलिक है। जहाँ वे मार्क्स या गांधी से असहमत हैं, उन्होंने अत्यन्त निर्भीकता एवं ईमानदारी से अपनी असहमति व्यक्त की है। उन्होंने समाजवाद पर अत्यन्त गहराई से सोचा-समझा है। उनके समर्थकों का दावा है कि समाजवाद का अस्थिपंजर तो बहुत पहले से तैयार हो गया था, डॉ. लोहिया ने इसमें ‘फ्लैश एंड ब्लड’ डालकर इसको एक नया जीवन दिया है। उनका समाजवादी दर्शन मानवतावाद की पूर्ण अभिव्यक्ति है। उनके सिद्धान्त और कर्म वे आधार हैं जिन पर एक नवीन विश्व-व्यवस्था, नवीन संस्कृति और नवीन सभ्यता के कल्याणकारी भवन निर्मित हो सकते हैं और उनमें सम्पूर्ण मानवता जाति, धर्म, वंश, लिंग, संस्कृति, सम्पत्ति आदि की भिन्नता (कटुता) से मुक्त हो निवास कर सकती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि लोहिया जी भारत के ही नहीं, अपितु विश्व के मौलिक राजनीतिक विचारकों में प्रतिष्ठित स्थान रखते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में न तो डॉ. लोहिया की अन्धविश्वास के साथ प्रशंसा की गई है और न ही किसी पूर्वग्रह के साथ आलोचना। जहाँ उनकी प्रशंसा अपेक्षित है वहाँ प्रशंसा की गई है और जहाँ आलोचना आवश्यक है वहाँ आलोचना। इस प्रकार इस दृष्टि को सामने रखकर डॉ. लोहिया के सम्बन्ध में सम्यक् विचार प्रस्तुत किए गए हैं।
इस पुस्तक में डॉ. लोहिया के कृतित्व और व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने के अतिरिक्त समाजवाद की विशिष्टताओं को देते हुए डॉ. लोहिया द्वारा चलाए गए समाजवादी आन्दोलन का भी उल्लेख किया गया है। डॉ. लोहिया की सामाजिक साधना, समाजवादी राज्य का स्वरूप एवं उसके प्रशासनिक ढाँचे का तुलनात्मक ढंग से उल्लेख किया गया है। भाषा-विषयक विचारों और लोहिया की मौलिक अधिकार-सम्बन्धी धारणा का विश्लेषण भी किया गया है। विश्व की समाजवादी विचारधारा को डॉ. लोहिया की देन, विश्व-समाजवाद का नवदर्शन, संयुक्त राष्ट्रसंघ का पुनर्गठन, विश्व सरकार, विश्व विकास समिति, अन्तरराष्ट्रीय जाति-प्रथा उन्मूलन, साक्षात्कार का सिद्धान्त, निशस्त्रीकरण आदि विषयों से सम्बन्धित उनकी विचारधाराएँ स्पष्ट की गई हैं। मार्क्स, गांधी और डॉ. लोहिया के समाजवादी दर्शनों का तुलनात्मक विवेचन कर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार मार्क्स और गांधी-दर्शनों का संशोधन एवं समन्वय कर डॉ. लोहिया ने उन्हें पूर्ण किया और एक नया सन्तुलन और सम्मिलन का दर्शन जन-मानस को दिया।
Choori Bazar Mein Ladki
- Author Name:
Krishna Kumar
- Book Type:

- Description: यह पुस्तक लड़कियों के मानस पर डाली जानेवाली सामाजिक छाप की जाँच करती है। वैसे तो छोटी लड़की को बच्ची कहने का चलन है, पर उसके दैनंदिन जीवन की छानबीन ही यह बता सकती है कि लड़कियों के सन्दर्भ में 'बचपन' शब्द की व्यंजनाएँ क्या हैं। कृष्ण कुमार ने इन व्यंजनाओं की टोह लेने के लिए दो परिधियाँ चुनी हैं। पहली परिधि है घर के सन्दर्भ में परिवार और बिरादरी द्वारा किए जानेवाले समाजीकरण की। इस परिधि की जाँच संस्कृति के उन कठोर और पैने औज़ारों पर केन्द्रित है जिनके इस्तेमाल से लड़की को समाज द्वारा स्वीकृत औरत के साँचे में ढाला जाता है। दूसरी परिधि है शिक्षा की जहाँ स्कूल और राज्य अपने सीमित दृष्टिकोण और संकोची इरादे के भीतर रहकर लड़की को एक शिक्षित नागरिक बनाते हैं। लड़कियों का संघर्ष इन दो परिधियों के भीतर और इनके बीच बची जगहों पर बचपन भर जारी रहता है। यह पुस्तक इसी संघर्ष की वैचारिक चित्रमाला है।
Goongi Rulaai Ka Chorus
- Author Name:
Ranendra
- Book Type:

- Description: भारतीय जन-जीवन का एक लम्बा दौर ऐसा भी रहा जिसमें हिन्दू और मुस्लिम धर्मों के अति-साधारण लोग बिना किसी वैचारिक आग्रह या सचेत प्रयास के, जीवन की सहज धारा में रहते-बहते एक साझा सांस्कृतिक इकाई के रूप में विकसित हो रहे थे। एक साझा समाज का निर्माण कर रहे थे, जो अगर विभाजन-प्रेमी ताकतें बीच में न खड़ीं होतीं तो एक विशिष्ट समाज-रचना के रूप में विश्व के सामने आता। हमारे गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों में आज भी इसके अवशेष मिल जाते हैं। परम्परा का एक बड़ा हिस्सा तो उसके ऐतिहासिक प्रमाण के रूप में हमारे पास है ही। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत भी उसी विरासत का हिस्सा है जो इस उपन्यास के केंद्र में है। खिलजी शासनकाल में देवगिरी के महान गायक गोपाल नायक और अमीर खुसरो के मेल से जिस संगीत की धारा प्रवाहित हुई, अकबर, मुहम्मद शाह रंगीले और वाजिद अली शाह के दरबारों से बहती हुई वह संगीत के अलग-अलग घरानों तक पहुँची। मैहर के बड़ो बाबा अलाउद्दीन खान की तरह इस उपन्यास के बड़ो नानू उस्ताद मह्ताबुद्दीन खान के यहाँ भी संगीत ही इबादत है। इसीलिए उत्तर प्रदेश के खुर्शीद जोगी और बंगाल के बाउल परम्परा के कमोल उनके घर से दामाद के रूप में जुड़े। लेकिन इक्कीसवीं सदी के भारत में विभाजन-प्रेम एक नशे के तौर पर उभर कर आता है। गुजरात में सदी के शुरू में जो हुआ वह अब यहाँ की सामाजिक-सांस्कृतिक मुख्यधारा का सबसे तेज़ रंग है। इस जहरीले परिवेश में नानू अयूब खान, अब्बू खुर्शीद जोगी, बाबा मदन बाउल और अंत में कमोल कबीर एक-एक कर खत्म कर दिए जाते हैं। बच जाती है एक रुलाई जो खुलकर फूट भी नहीं पाती। हलक तक आकर रह जाती है। यह उपन्यास इसी रुलाई का कोरस है। विभाजन को अपना पवित्रतम ध्येय मानने वाली वर्चस्वशाली विचारधारा के खोखलेपन और उसकी रक्त-रंजित आक्रामकता को रेखांकित करते हुए यह उपन्यास भारतीय संस्कृति के समावेशी चरित्र को हिन्दुस्तानी संगीत की लय-ताल के साथ पुनः स्थापित करने का प्रयास करता है।
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