
Jal Thal Mal
Publisher:
Rajkamal Prakashan Samuh
Language:
Hindi
Pages:
210
Country of Origin:
India
Age Range:
18-100
Average Reading Time
420 mins
Book Description
हर प्राणी प्रकृति के अपार रसों का एक संग्रह होता है। मिट्टी, पानी और हवा के उर्वरकों का एक गठबन्धन। फिर चाहे वह एक कोशिका वाला बैक्टीरिया हो या विराटाकार नीला व्हेल। जब किसी जीव की मृत्यु होती है, तब यह रचना टूट जाती है। सभी रस और उर्वरक अपने मूल स्वरूप में लौट जाते हैं, फिर दूसरे जीवी को जन्म देते हैं।</p> <p>हर प्राणी सभी रसों का उपयोग नहीं कर सकता। हर जीव जितना हिस्सा भोग सकता है उतना भोगता है, जो नहीं पुसाता उसे त्याग देता है। यही ‘कचरा’ या ‘अपशिष्ट’ दूसरे जीवों के लिए ‘संसाधन’ बन जाता है, किसी और के काम आता है। दूसरे जीवों से लेन-देन किए बिना कोई भी प्राणी जी नहीं सकता। हम भी नहीं। प्रकृति में कुछ भी कूड़ा-करकट नहीं होता। न कचरा, न मैला, न अपशिष्ट ही।</p> <p>हमारा भोजन मिट्टी से आता है। प्रकृति का नियम है कि मिट्टी से निकले रस वापस मिट्टी में जाने चाहिए। जहाँ का माल है, वहीं लौटना चाहिए। हम जो भी खाते हैं, वह अगले दिन मल-मूत्र बन के हमारे शरीर से निकल जाता है। सहज रूप में उसका संस्कार मिट्टी में ही होना चाहिए। खाद्य पदार्थ की फिर से खाद बननी चाहिए।</p> <p>किन्तु आधुनिक स्वच्छता व्यवस्था हमारे मल-मूत्र को पानी में डालने लगी है। इससे हमारे जल-स्रोत दूषित हो रहे हैं, मिट्टी बंजर हो रही है। हमारा मल-मूत्र भी चौगुना हुआ है। लेकिन उसे ठिकाने लगाने के तरीक़े चौगुने नहीं हुए हैं। हमारी स्वच्छता आज प्रकृति के साथ युद्ध बन चुकी है।</p> <p>यह किताब जल-थल-मल के इस बिगड़ते रिश्ते को क़ुदरत की नज़र से देखती है। इसमें उन लोगों का भी वर्णन है जिनके लिए सफ़ाई प्रकृति को बिगाड़ने का नहीं, निखारने का तरीक़ा है। उनकी स्वच्छता में शुचिता है, सामाजिकता है। जल, थल और मल का सुगम संयोग है।