Jhooth Ka Ped
Author:
Gaur Hari DasPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Short-story-collections0 Reviews
Price: ₹ 476
₹
595
Available
प्रख्यात ओड़िया कथाकार ‘गौरहरि दास’ की कहानियाँ पहली नज़र में ही गाँवों के यथार्थपरक चित्रों और यादगार चरित्रों से पाठक को परिचित करा देती हैं। उनकी कहानियों में एक तरफ़ आम बोलचाल की सहज-सरल भाषा है तो दूसरी तरफ़ ओडिशा के भद्रक अंचल का सुवास, लेकिन वे अंचल विशेष के कथाकार नहीं हैं। संग्रह की नामधर्मा रचना 'झूठ का पेड़' हो या अन्य कहानी ‘घर’, वे गाँव को शहर से और शहर को गाँव से जोड़ देती हैं।</p>
<p>ओडिशा के जनजीवन को समग्रता में पेश करते हुए बिना किसी भाषायी या शिल्पगत चमत्कार के गौरहरि ने सृजन के शिखर छुए हैं, लेकिन इसके लिए उन्होंने न तो किसी देशी-विदेशी दर्शन का सहारा लिया, न ही किसी तरह के बौद्धिक तामझाम खड़े किए। जन-संचार माध्यमों से अपनी सम्पृक्ति के चलते वे जानते हैं कि जनधर्मी सृजन के लिए किसी दर्शन या वाद से जुड़ने के बजाय सामान्यजन से सीधे जुड़ना ज़्यादा उचित है; और हम जानते हैं कि गौरहरि देश के बड़े कथाकार-पत्रकार ही नहीं, आमजन के शुभेच्छु भी हैं।</p>
<p>ओडिशा के गाँवों और शहरों की प्राकृतिक सुषमा के साथ वहाँ की जीती-जागती ज़िन्दगी और अमीरी-ग़रीबी का संघर्ष देखना हो तो किसी समाजशास्त्री की पोथी पढ़ने के बजाय गौरहरि की कहानियाँ पढ़ना ज़्यादा उपयोगी होगा, क्योंकि समाज में व्याप्त ऊँच-नीच को चित्रित करते हुए नए-पुराने सामन्तवाद को भी गौरहरि ने प्रश्नाकुल दृष्टि से देखा है। वे अपने समाज की राई-रत्ती जानने के साथ उसे अभिव्यक्त करने की कला में भी पारंगत हैं। उनकी कहानियों में हम भारतीय चेतना के अन्तरंग चित्रों को साक्षात् देखते ही नहीं, महसूस भी करते हैं।
ISBN: 9788183618519
Pages: 144
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Asha Prabhat
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- Description: सुपरिचित लेखिका आशा प्रभात का यह कहानी-संग्रह ‘कैसा सच’ अपने नामानुसार ही हक़ीक़त का भिन्न-भिन्न रूप समेटे हुए है अपने अन्दर। ये कहानियाँ सामाजिक विसंगतियों को परत-दर-परत खोलती उसके यथार्थ से गहराई से साक्षात्कार कराती हैं। लेखिका ने ‘स्त्री’ के व्यक्ति बनने की जद्दोजहद को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर नए दृष्टिकोण से अवगत कराया है। उनकी रचनाओं की पात्र समाज की रूढ़िवादी परम्पराओं को तोड़ने का ऐलान नहीं करतीं, बल्कि ख़ामोशी से परम्पराओं की दीवारें लाँघ आगे निकल जाती हैं और आत्मविश्वास से लबरेज यह पुरुषों से टकराव किए बगैर अपनी पहचान कायम करती हैं। ये कहानियाँ सिर्फ़ सामाजिक विसंगतियों से ही नहीं, बल्कि व्यवस्था के घातक तंत्रों से भी रू-ब-रू कराती हैं कि कैसे इनसान जाने-अनजाने व्यवस्था का अंग बन उसकी बुराइयों में शरीक होता चला जाता है और जब तक उसे अपने फँसने का बोध होता है, बहुत देर हो चुकी होती है, और यह देरी ही जन्म देती है एक संवेदनहीन समाज को, जहाँ बड़े-से-बड़े तूफ़ान की आहट सुन इनसान सिर्फ़ पल-भर के लिए चौंकता है, नज़रें उठाकर देखता है और फिर आँखें बन्द कर सो जाता है। आशा प्रभात की रचनाओं का फलक विस्तृत है। भाषा, शिल्प, कथ्य तथा बुनावट के स्तर पर ये कहानियाँ इतनी चुस्त हैं कि कब ये पाठकों को अपना हमख़याल और हमसफ़र बना लेती हैं, उन्हें आभास तक नहीं होता और जब पड़ाव आता है तो पाठक काफ़ी समय तक उनके प्रभाव से ख़ुद को मुक्त नहीं करा पाते। लेखिका ने स्त्री-विमर्श को नया आयाम देने की कामयाब कोशिश की है।
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