Buddhiprakash
Author:
Sampat SaralPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Satire0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
सम्पत सरल को ज़्यादातर लोग मंच से जानते हैं जहाँ वे पिछले कई वर्षों से उल्लेखनीय निडरता के साथ न सिर्फ़ समाज, बल्कि सरकार को भी आईना दिखाते रहे हैं।
‘बुद्धिप्रकाश’ उनके व्यंग्य निबन्धों की पुस्तक है; और इन्हें पढ़कर कोई भी कहेगा कि जिस धारदार, सधे और सुँते हुए व्यंग्य की कमी हिन्दी में काफ़ी समय से खल रही थी, वह अब हमारे सामने है।
हमारे आसपास ऐसी बहुत कम चीज़ें रह गई होंगी, जिन्हें व्यंग्य का विषय बनाते हुए किसी को कोई संकोच हो; जीवन का, सामाजिक व्यवस्था का अधिकांश अपने विरोधाभासों के चलते स्वयं ही व्यंग्य है। लेकिन चीज़ों के बाह्य आडम्बरों, शक्ति और सामर्थ्य की अभेद्य भंगिमाओं और रंध्रहीन व्यवस्था को बेधकर उनके भीतर के व्यंग्य को पकड़ना—इसके लिए एक निगाह चाहिए, जो सम्पत सरल के पास है; और उसे बिना किसी लाग-लपेट के साफ़-साफ़ उकेर देनेवाली भाषा भी।
इस संकलन में शामिल निबन्धों को पढ़ते हुए जो चीज़ सबसे पहले महसूस होती है वह यही कि वे अपनी एक भी पंक्ति को व्यर्थ नहीं जाने देते; हर वाक्य सही निशाने पर जाकर लगता है; और हर बात अपने अनूठेपन में हमें नई लगती है। हास्य उनके व्यंग्य के साथ स्वयं चला आता है, अनायास, एक साथ कई दिशाओं में मार करता हुआ, जैसे कि उन्होंने अपने इस समय को सांगोपांग समझ लिया हो।
यह पुस्तक आपको बार-बार अपने पास बुलाएगी।
ISBN: 9789360865702
Pages: 200
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Chandrakishore Jaiswal
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- Description: ‘दुलारी चाची’ रोज-रोज बदल रहे भारतीय ग्रामीण समाज का आख्यान है। दिलचस्प यह है कि परिवर्तन की यह कथा उन तमाम जड़ताओं को अनावृत करती चलती है जो इस समाज की प्रगति की राह में सदियों से रोड़ा बनी हुई हैं। जाति के आधार पर ऊँच-नीच का वर्चस्ववादी विभाजन; धर्म, संस्कृति और परम्परा के नाम पर के नाम पर कुरीतियों का महिमामंडन, स्त्रियों की परवशता और उपेक्षा ऐसे ही रोड़े हैं जिनको लेखक ने खासे व्यंग्यात्मक अन्दाज में वर्णित किया है। वह दिखलाता है कि हमारे समाज की कथित महानताओं की नींव इन्हीं रोड़ों-पत्थरों पर टिकी हुई है, वास्तविक प्रगति के लिए उन्हें जल्द से जल्द उखाड़ फेंकना आवश्यक है। यह उपन्यास उस सत्ता-संरचना को करीने से उजागर करता है जिसमें उच्चासन पर बैठी जमात के वर्चस्व के पारम्परिक हथियारों की धार, बदल रहे वक्त के दबाव में, भोथरी होती जा रही है जबकि हमेशा से दबाए गए लोग अब मुखर हो रहे हैं। विशेष यह कि इस बदलाव की वाहक हैं वे स्त्रियाँ जो अब तक अपने मायके के गाँव और पति-पुत्र के नाम से ही अस्तित्व पाती रही हैं, जिन्हें ताउम्र उनके नाम से पुकारा तक नहीं गया। यह चन्द्रकिशोर जायसवाल की लेखनी का कौशल है कि इस उपन्यास में यथार्थ और स्वप्न एक-दूसरे से बिल्कुल घुलमिल गए हैं। यथार्थ जो असहज करता है, बेचैन करता है और स्वप्न जो आश्वस्त करता है, प्रेरित करता है। वस्तुतः ‘दुलारी चाची’ केवल वर्तमान का अंकन नहीं करता बल्कि उन रास्तों को भी रेखांकित करता चलता है जो हमारे समाज को इच्छित भविष्य तक ले जाने वाला है। एक अत्यन्त पठनीय और संग्रहणीय कृति।
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