
Yeh Unindi Raton Ka Samay Hai
Author:
Jyoti ChawlaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
ज्योति चावला के इस तीसरे कविता-संग्रह—‘यह उनींदी रातों का समय है’ की कविताएँ प्रमाण हैं कि उनका स्वर उत्तरोत्तर अधिक राजनीतिक होता गया है। इन कविताओं में अपने समय की भयावहता को बरीकी से दर्ज करती हुई वे उसका तीव्र प्रतिरोध करती हैं और स्त्री की आजादी के ख्वाब भी रचती हैं। उनके लिए स्त्रियों के हक की लड़ाई एक राजनीतिक मामला है, जिसके रास्ते के अवरोधों की शिनाख्त वे समाज के व्यवहार में बहुत गहरे पैठकर करती हैं। स्वाभाविक ही धर्म, संस्कृति, भाषा सहित समाज की तमाम बुनियादी सत्ता-संरचनाओं के अन्दर जड़ जमाए बैठी पितृसत्ता उनके निशाने पर है। उनके लिए प्रतिपक्ष पुरुष नहीं बल्कि समाज और संस्कृति के वे घटक हैं जिनसे पुरुष का पितृसत्तात्मक मनोविज्ञान निर्मित होता है। इसलिए वे अपने कवितालोक में स्वप्न-पुरुष से लेकर आदिम पुरुष तक की तलाश करती हैं और स्त्री-पुरुष अन्तर्सम्बन्धों का ऐसा पुनर्पाठ तैयार करती हैं जहाँ दोनों परस्पर पूरक हैं, विरोधी नहीं। इन कविताओं में एक ऐसी स्त्री दिखलाई पड़ती है जो अपने समय के संघर्षों से और उनके अन्तर्द्वन्द्वों से निर्मित हुई है; उसका सौन्दर्य आदिम, अकुंठ और संघर्ष की आभा से दीप्त है।</p>
<p>ज्योति की कविताओं की एक और विशेषता है—उनका मुहावरा। माँ और बेटी के संवाद को प्रतीक की तरह बरतते हुए निजता से शुरू कर वे अपनी कविताओं को समूची स्त्री जाति का आह्वान बना देती हैं। इन कविताओं में स्त्री-विमर्श की एक नई दिशा तब खुलती है जब ज्योति बेटी के साथ-साथ बेटे को भी गढ़ रही स्त्री को रेखांकित करती हैं।</p>
<p>प्रतिरोध के साथ-साथ अभिव्यक्ति के गहराते संकट को उजागर करती ये कविताएँ वस्तुत: अपने समय का समानान्तर इतिहास हैं और अपनी सूक्ष्म संवेदनशीलता में बेहतर भविष्य का स्वप्न भी।
ISBN: 9788196148782
Pages: 104
Avg Reading Time: 3 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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Description:
धीमी आँच पर धरती की मोटी सतह के भीतर हलके-हलके खदबदाता कुछ—फट पड़ने की तरफ़ एक-एक क़दम रखता हुआ। रवीन्द्र भारती की इन कविताओं की तुलना में अगर कोई बिम्ब गढ़ना चाहे तो वह कुछ ऐसा होगा। जो मन इन कविताओं में न्यस्त है। यह मुँडेर पर खड़ा चीख़ता हुआ मन नहीं है, यह गली के कोलाहल को परत-परत छील चुका और उसके परदे में छिपी तमाम मामूलियत को पहचान चुका मन है, और अब बदलाव को उतनी ही गहराई और सच्चाई से शुरू होते देखना चाहता है जितने गहरे उसकी बेचैनी खदबदा रही है।
बिलकुल हमारे आसपास के सन्दर्भों में एकदम सहज तत्त्वों और तथ्यों को वे तिनके की तरह उठाते हैं, एक दुर्लभ शान्त तन्मयता के साथ इशारों में ही उनको स्पर्श करते हैं, और हमें मालूम भी नहीं होता कि हमारी सोई संवेदना क़तई भिन्न-आलोक में जाग पड़ती है। उनकी कविताओं में प्रतीकों का एक अनन्त विस्तार है जिसकी पहुँच प्रकृति, अन्तरिक्ष और सृष्टि के आदि-अन्त तक है। ये कविताएँ हमें कभी बहुत ऊँचे से, लगभग किसी सिद्ध भिक्षु की तरह सम्बोधित करती हैं और कभी ठीक हमारे सामने आकर किसी संगी-साथी की तरह, ऐसा साथी जो हमसे ज़्यादा अक्लमन्द है लेकिन उस अक्लमन्दी को भी जिसने अपनी अर्जित अनाक्रमकता की पवित्र तहों में कहीं पिरो लिया है।
इस नज़रिए से वे अब भी एक ताज़ा कवि हैं, जो हमें हमारे अभ्यस्त पुरानेपन की ज़द से बाहर ले जाते हैं और चीज़ों को देखने की नई दृष्टि देते हैं जिससे हमारा आन्तरिक स्पेस रचनात्मक हो उठता है। कहना होगा कि हिन्दी कविता के कुछ तत्त्व जो बहुप्रतीक्षित थे, इन कविताओं में प्रकट होते हैं।
Sab Ki Aawaz Ke Parde Mein
- Author Name:
Vishnu Khare
- Book Type:
-
Description:
बीसवीं सदी की हिन्दी कविता में अपनी धुन और आत्महानि की सीमा तक जाकर, लीक छोड़ लिख पानेवाले कम थे लेकिन शायद विष्णु खरे उन्हीं में गिने जाएँ। विष्णु खरे के साथ एक बड़ी घटना यह रही कि उनकी कविता हिन्दी के विभिन्न समसामयिक सम्प्रदायों को तुष्ट नहीं कर पाई। उनके न तो गुरु-संरक्षक रहे, न मित्र-प्रोत्साहक और न भक्त-शिष्य। ऐसी लगभग सर्वसम्मत उपेक्षा के बावजूद कहीं-कहीं उनकी कविताएँ न केवल याद रखी गईं, बल्कि कभी-कभी उनकी माँग भी की जाती रही, यही कोई कम ग़नीमत नहीं है।
अपने और दूसरों के लिए और मुश्किलें पैदा करते हुए विष्णु खरे एक ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं जिसमें भूले-भटके काव्यावेश आ जाता है, वरना अक्सर उसमें निम्न-मध्यवर्गीय संकेतों और ब्याजशब्दावली का बाहुल्य रहता है और कभी उनकी ज़ुबान बातचीत की तरह आमफ़हम, दफ़्तरी, अख़बारी, तत्समी या गवेषणात्मक तक हो जाती है और ख़तरनाक ढंग से कहानी, गद्य, वर्णन, ब्योरों, रपट आदि के नज़दीक पहुँचती है और यह तय करना कठिन होता है कि उस निर्विकार-सी वस्तुपरकता में तथ्याभास का व्यंग्य है, करुणा है या उन्हें कविता लिखना ही नहीं आता।
कविता के विषयों को लेकर भी उनके यहाँ एक कैलाइडोस्कोप की बहुबिम्बदर्शी विविधता है जो उनकी हर चीज़ में दिलचस्पी के दख़ल की पैदाइश है और इस ज़िद की कि सब कुछ में जो कविता है, उसका कुछ हिस्सा हासिल करना ही है। दुनिया उनके आगे बाज़ीचा-ए-इत्फ़ाल नहीं, उसमें जन्म ले चुके आदमी का कौतूहल और कशमकश है। विष्णु खरे को भी कवियों का कवि कहकर दाख़िल-दफ़्तर कर देना सुविधाजनक है लेकिन वे उन सजगों के कवि हैं जिनकी तादाद अन्दाज़ से कहीं ज़्यादा है। भारतीय आदमी और मानव के लिए उनकी प्रतिबद्धता असन्दिग्ध है लेकिन वे सारे ऐहिक और अपौरुषेय व्यापार, माया और लीला, यथार्थ और मिथक को जानने के प्रयास के प्रति भी वचनबद्ध हैं, क्योंकि हर बार उसे नई तरह से जानना चाहे बिना आदमी और अस्तित्व के पूरे बखेड़े को समझने की कोशिश अधूरी ही रहेगी। इसमें अनुभववाद या दूर की कौड़ी लाने का लाघव-प्रदर्शन नहीं है, समूचे जीवन से वाबस्तगी की बात है।
इसीलिए विष्णु खरे की कविता न तो आदमी और समाज से घबराकर ‘शुद्ध कला’, अध्यात्म या रहस्यवाद में पलायन करती है और न कायनात को मात्र भौतिक मान किसी आसान ‘वाद’ की शरण लेती है। उनके यहाँ अनुभव और कविता ‘प्योर’ तथा ‘अप्लाइड’ दोनों अर्थों में हैं क्योंकि दोनों प्रकारों का एक-दूसरे के बिना अस्तित्व और गुज़ारा सम्भव नहीं है। वे वाक़ई अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने को मनुष्य और कवि होने की सार्थकता मानते हैं। इस संग्रह की कविताओं में भी वे अपने कथ्य, भाषा तथा शैली को जोखिम-भरी चुनौतियों और परीक्षाओं के सामने ले गए हैं। वे कविता को बाँदी या देवदासी की तरह नहीं, मानव-प्रतिभा की तरह हर काम में सक्षम देखना चाहते हैं क्योंकि उनका मानना है कि ऐसी कोई स्थिति नहीं है जिसकी अपनी कोई अर्थवत्ता न हो—हर आवाज़ के पीछे जो दुनिया है, विष्णु खरे की यदि कोई महत्त्वाकांक्षा है तो उसे ही अभिव्यक्ति देने का प्रयास करने की लगती है।
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