Nakshtraheen Samay Mein
Author:
Ashok VajpeyiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 240
₹
300
Unavailable
अशोक वाजपेयी का यह पन्द्रहवाँ कविता-संग्रह उनके पहले कविता-संग्रह के प्रकाशन के 50वें वर्ष में प्रकाशित हो रहा है। अपनी कविता के मूल स्वर और सरोकार पर अड़े रहे इस कवि ने हर बार अपनी कविता के संसार में कुछ ऐसा शामिल किया, खोजा है जो पहले नहीं था। इस बार समकालीन राजनीति में जो उथल-पुथल हुई है, उसके प्रतिरोध के रूप में उनकी कविता खड़ी हुई है। टेढ़ेपन पर अटल भरोसा रखनेवाले कवि ने इसमें कुछ सपाटबयानी भी की है। इस सबके बावजूद होने का अवसाद, गहरा आत्मालोचन और अदम्य जिजीविषा सब कुछ यहाँ एक साथ है। सयानापन और ज़िम्मेदारी, शब्द और शिल्प से कुछ खिलवाड़ तथा रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का सहज अध्यात्म फिर चरितार्थ है।
ISBN: 9788126728220
Pages: 128
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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—जावेद अख्तर
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—डॉ. विजयबहादुर सिंह
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अमिता शर्मा की कविताओं की दुनिया काफ़ी विस्तृत और वैविध्यमयी है और यह विस्तार और वैविध्य मनमाना या अवधारणात्मक न होकर ऐसी अर्जित जीवनानुभूति है जो हमें अपने परिवेश को और उससे प्रतिकृत होनेवाले अपने दिलो–दिमाग़ की प्रतिक्रियाओं को भी उन पर पड़े अभ्यास और अतिपरिचय के जाले छुड़ाती हुई—एक नई समझ और नई विकलता के साथ स्वायत्त करने में मदद करती है। यह कविता यदि एक ओर ‘अख़बारी हादसे पलटते, अपनी सुरक्षा की धूप सेंकते रहने के सुख’ की आत्म–वंचना को उघाड़ती है तो दूसरी ओर वह नितान्त आज के सामाजिक अरण्य में ‘मेमने की खाल ओढ़े भेड़िए’ को भी पहचानती है और उस ‘जोकर’ को भी, जो ‘अपना सन्तुलन बनाए रखने के लिए सबको चाहिए।’ वह मानवी साहचर्य और अलगाव के एक समूचे वर्णपट को उकेर सकती है और ‘बिना घर की छतों’ को भी। वह उन ‘ईर्ष्याओं’ को भी जानती है जो औरों से आगे बढ़ने के लिए उत्तेजित करती हुई हमें अपने आपसे छोटा करती हैं, और उन सपनों को भी, जो ज़िन्दगी को बदलते नहीं, और जटिल कर देते हैं।
बन्धन और स्वातंत्र्य, अनिवार्य उत्पीड़न और उतनी ही दुर्दम्य मुक्ति–चेष्टा की छटपटाहट मानो अमिता की कविता के वादी–संवादी सुर हैं। सिमोन वेल की कृति ‘ऑपरेशन एंड लिबर्टी’ के आवरण–पृष्ठ पर खुले आसमान की पृष्ठभूमि में सलाखों का ‘क्लोज–अप’ जिस तरह उभरकर आता है, कुछ–कुछ उस तरह का कथ्य–रूप इन कविताओं के भीतर से उजागर होते देखा जा सकता है—‘कितनी विशाल खिड़की/कितना विशाल आसमान/पर दीखती हैं केवल उनके बीच की छड़ें’—किसी भी दृष्टिकोण की इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी! निश्चय ही अमिता के यहाँ अपसंस्कृति के विद्रूपों के बरक्स प्रकृति हमेशा विद्यमान रही है, किन्तु रूसो-ई रोमैन्टिक विद्रोह और वापसी के तर्ज पर नहीं। यह निहायत ही एतद्देशीय और निहायत आँख–सामने की हक़ीक़तों के भीतर से उजागर होता आत्महीनता का घेराव है जो अपने भोक्ता और साक्षी को इस प्रश्न के सम्मुख धकेलता है—‘इस असंज्ञ संस्कृति में/किस सच को हम अपना कहें/हमारे झूठ भी अपने नहीं।’
इन कविताओं में आत्म और अनात्म के ही नहीं, निजी और सार्वजनिक के बीच भी ख़ासी आवाजाही सम्भव हुई है। बौखलाहट, विक्षोभ की जगह सूखी–सान्द्र टिप्पणियों ने ले ली है जो हमारे निकट सम्बन्धों में भी घर करती जा रही रिक्ति की कचोट को भी सह्य बना लेती हैं कुछ इस तरह कि एक तरफ़ अपने दर्द को ‘अपनी तरह अपने से कह लेने’ और दूसरी तरफ़ ‘अपने अभिनय का द्रष्टा बनने’ के बीच चुनाव की गुंजाइश ही नहीं छूटती। ध्यान देने की बात मगर यह है कि दोनों को ‘मोक्ष’ की संज्ञा से अभिहित करना इस मूल्य–विपर्यय के युग को उसकी अपनी शर्तों पर स्वीकार लेना नहीं है। लगता है, जैसे मोक्ष या आत्मा जैसे पारम्परिक प्रत्ययों को ही नहीं, स्वतंत्रता और समता सरीखे शब्दों को भी उनका अर्थ–प्रामाण्य लौटा लेने के लिए इक्कीसवीं सदी के लेखकों को भी ‘एक्जाइल’ और ‘कनिंग’ के सूक्ष्म उपकरणों की उतनी ही ग़रज़ और दरकार है जितनी आधुनिकों को थी। ‘एक नितान्त ख़ाली जगह में’ अपने आपको ढूँढ़ने की समस्या और साँसत इस कविता की एक चरितनायिका की ही नहीं, हम सबकी है, और जिस दु:ख के सहारे यह खोज सम्भव होती है, वह भी एक अनिवार्य, किन्तु सार्थक दु:ख है।
Prasad Ka Sampoorna Kavya
- Author Name:
Satyaprakash Mishra
- Book Type:

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Description:
कवि जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिन्दी कविता में 'छायावादी काव्य आन्दोलन' के जनक, प्रवक्ता और उन्नायक हैं। उन्होंने खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में अनिर्णय के प्रथम दौर से मुक्त करके उसे अद्भुत रूप से समृद्ध और अभिव्यक्ति सम्पन्न बनाया। उनकी काव्य भाषा में गहरी अनुभूति सम्पन्नता और रोमांसलता का एक सांस्कारिक तेवर विद्यमान है। गोस्वामी तुलसीदास की तरह ही वे भाषित संक्षिप्तता और बिम्बात्मक क्षमता का मर्म पहचानने वाले कवि हैं।
‘गीति तत्त्व’ प्रसाद की कविता का दूसरा प्रमुख गुण है। अनुभूतियों की भीतरी झनझनाहट उनके गीतों से लेकर उनके महाकाव्य 'कामायनी' तक में समान रूप से विद्यमान हैं। प्रसाद अपनी कविताओं के माध्यम से मनुष्य जाति की उन्हीं अनुभूतियों को चित्रित करते हैं जिनमें एक भीतरी करुणा का आवेश हो और जो शब्द का स्पर्श पाते ही संगीत की प्राणवक्ता से झंकृत हो उठें। ‘झरना’, ‘आँसू’ और ‘लहर’ के गीत इसका प्रमाण तो हैं ही, ‘कामायनी’ की सम्पूर्ण अर्थवत्ता इसी गीत्यात्मक अनुगूँज से भ्री हुई है।
प्रसाद का अपने सारे ऐतिहासिक, दार्शनिक और ‘मिथकीय’ आवरण के बावजूद अपने वर्तमान में ही प्रामाणिक है। इतिहास, दर्शन और पुराण-कथाओं का उपयोग प्रसाद जी ने अपनी संस्कृति धरोहर को पुनरुज्जीवित करने के लिए तो किया ही है, उसके माध्यम से अपने समय के भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के मुख्य तेवर को पहचानने का काम भी वे करते हैं। इसीलिए उनकी कविताओं में राष्ट्रीयता का एक गहरा सरोकार विद्यमान है।
Maa Maati Manush
- Author Name:
Mamta Banerjee
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Description:
ये ममता बनर्जी की कविताएँ हैं; ममता बनर्जी, जो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं, अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की मुखिया और ‘फ़्रायर ब्रांड’ नेता, जिन्हें उनके दो टूक लहज़े और अक्सर ग़ुस्से के लिए भी जाना जाता है।
इन कविताओं को पढ़कर आश्चर्य नहीं होता। दरअसल सार्वजनिक जीवन में आपादमस्तक डूबे किसी मन के लिए बार-बार प्रकृति में सुकून के क्षण तलाश करना स्वाभाविक है। लेकिन ममता जी प्रकृति की छाँव में विश्राम नहीं करतीं, वे उससे संवाद करती हैं। प्रकृति के रहस्यों को सम्मान देती हैं, और मनुष्य मात्र से उस विराटता को धारण करने का आह्वान करती हैं जो प्रकृति के कण-कण में विद्यमान है।
उनकी एक कविता की पंक्ति है ‘अमानवीयता ही है सभ्यता की नई सज्जा’—यह उनकी राजनीतिक चिन्ता भी है, और निजी व्यथा भी। और लगता है, इसका समाधान वे प्रकृति में ही देखती हैं। सूर्य को सम्बोधित एक कविता में कहा गया है : ‘पृथ्वी को तुम्हीं सम्हाल रखोगे/मनुष्यता को रखो सर्वदा पहले/जाओ मत पथ भूल’।
वे प्रकृति में जैसे रच-बस जाती हैं। उनका संस्कृति-बोध गहन है और मानवीय संवेदना का आवेग प्रखर। ‘एक मुट्ठी माटी’ शीर्षक कविता में जैसे यह सब एक बिन्दु पर आकर जुड़ जाता है—‘एक मुट्ठी माटी दे न माँ रे/मेरा आँचल भरकर/मीठापन माटी का सोने से शुद्ध/देखेगा यह जग जुड़कर/थोड़ा-सा धन-धान देना माँ/लक्ष्मी को रखूँगी पकड़/नई फसल से नवान्न करूँगी/धान-डंठल सर पर रख।’
कहने की आवश्यकता नहीं कि इन कविताओं में हम एक सफल सार्वजनिक हस्ती के मन के एकान्त को, और मस्तिष्क की व्याकुलता को साफ़-साफ़ शब्दों में पढ़ सकते हैं।
Uski Ichchhaon Mein Baarish Thi
- Author Name:
Devyani Bhardwaj
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- Description: ‘उसकी इच्छाओं में बारिश थी’ स्त्री-कविता का एक नया दस्तावेज़ है जिसमें जीवन की सच्चाइयाँ आक के पौधे-सी दिख रही हैं, खेजड़ी के पेड़-सी। जून महीने की दोपहर, निर्जन किसी इलाक़े में चलती जाती हुई यह कवि समझ चुकी है कि प्रेम की कामना प्रेम से बड़ी सच्चाई है। ऐसी कई सच्चाइयों को वह समझ चुकी है—वह न्याय माँगती है समाज से, जानती हुई कि इस पितृसत्ता में उसके लिए ऐसी कोई सुनवाई सम्भव नहीं। वह याद करती है अपनी रिश्तेदार औरतों को—बुआ को, मामी को, मौसी, दादी, नानी को—सबका जीवन इसी पितृसत्ता के विष में लिथड़ा हुआ मिलता है। वह अपनी भाषा में कविता को अपनी सहेली बनाकर लाती है, समझती हुई कि वह भी स्त्री की आदिम यात्रा में एक घायल राहगीर है। देवयानी की कविताओं की परिपक्वता उनकी अपनी ही संवेदना के परिष्कार का प्रतिफल है। कवि ने अपने हृदय में प्रेम के टूटने की आवाज़ सुनी है, कपास में किसान की मेहनत देखी है, बेटी को पितृसत्ता का पाठ पढ़ाते एक माँ को सुना है, एक स्त्री को इच्छा के पुल पर खड़ी देखा है जो कहीं जाना चाहती है। यह सबकुछ देखते हुए उनकी कविता उनके पास आती है, इसलिए उनकी कविता निराश नहीं है बल्कि विवेकसंगत ढंग से आशावान है। उसके सपनों में बादल आते हैं, न कि बसा-बसाया कोई घर जिसमें उस पर हुकूमत करने वाले लोग रहते हों। स्त्री का इन्तज़ार कितना बदल गया है इन कविताओं से पता चलता है! ये कविताएँ एक जागी हुई स्त्री की कविताएँ हैं जिसके सपने प्रौढ़ हो गए हैं, जिसकी आँखें अब कोई भ्रम नहीं पालतीं। जिस स्त्री ने बारिश का इन्तज़ार करना सीख लिया, जिसका दमन अब मुश्किल है। उसकी इच्छाओं में बारिश थी संग्रह एक शाम हो रही सुखद बारिश की तरह है जिसमें ठंडी हवाएँ चल रही हों और जो असमानता और अन्याय से उपजी भीषण उमस-भरी किसी दोपहर से निजात दिलाती हों। साथ में यह उम्मीद भी जगाती हों कि स्त्री अपनी नई संवेदना को प्रकट करने में अब हिचकिचाएगी नहीं बल्कि देवयानी की ही तरह कविता को भी साथ-साथ नया करती चलेगी। —सविता सिंह
Aaradhana
- Author Name:
Suryakant Tripathi 'Nirala'
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- Description: आराधना के गीत निराला-काव्य के तीसरे चरण में रचे गए हैं, मुख्यतया 24 फरवरी 1952 से आरम्भ करके दिसम्बर 1952 के अन्त तक। इन गीतों से यह भ्रम हो सकता है कि निराला पीछे की ओर लौट गए हैं। वास्तविकता यह है कि "धर्म-भावना निराला में पहले भी थी, वह उनमें अन्त-अन्त तक बनी रही। उनके इस चरण के धार्मिक काव्य की विशेषता यह है कि वह हमें उद्विग्न करता है, आध्यात्मिक शान्ति निराला को कभी मिली भी नहीं, क्योंकि इस लोक से उन्होंने कभी मुँह नहीं मोड़ा, बल्कि इस लोक को अभाव और पीड़ा से मुक्त करने के लिए वे कभी सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलनों की ओर देखते रहे और कभी ईश्वर की ओर। उनकी यह व्याकुलता ही उनके काव्य की सबसे बड़ी शक्ति है।" —नंदकिशोर नवल
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