Ye Kohre Mere Hain
Author:
Bhawani Prasad MishraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 76
₹
95
Unavailable
<strong>‘</strong>ये कोहरे मेरे हैं’ में संकलित भवानी भाई की, 1954-55 से लेकर 1970-71 की डायरियों में लिखी, वे प्रेम-कविताएँ हैं, जो पहली बार यहाँ एक साथ प्रकाशित हो रही हैं। ये ठेठ प्रेम-कविताएँ हैं और कवि ने इनके माध्यम से अपने जीवनानुभवों और काव्य-बोध को निरन्तर विकसित, विस्तृत और सुसम्पन्न किया है। मानव-स्वभाव की सरलता और जटिलता, रंगीनी और सादगी का जैसा जोड़-तोड़ यहाँ प्रतिफलित है, उससे यह भी सूचित होता है कि भावों के सुसंस्कार में विचारों की भूमिका किस कोटि का योगदान करती है और कविता कैसे-कैसे झड़े-तिरछे रास्तों और उतार-चढ़ावों से होकर अपना साज-सँवार पाती है।</p>
<p>निश्चय ही इन कविताओं में कवि ने अपने व्यक्तित्व के उस पक्ष को दर्ज किया है, जो न तो स्वतंत्रताप्रेमी आन्दोलनकारी का है, न ही जोशो-खरोश से लबालब भरे आदर्शवादी का। इनमें मानवीय रिश्तों का एक ख़ूबसूरत सपना देखने की कोशिश है जो किसी भी श्रेष्ठ कविता से सहज अपेक्षित है। कहने को ये सपने बहुत आमफहम और मामूली हैं, किन्तु वास्तविक जीवन में इनकी परिणति इन दिनों लगभग असम्भव हो उठी है। इनमें एक आदमी का दूसरे आदमी के पास तनिक देर बैठकर अपना दु:ख-दर्द कह डालने की इच्छा, परस्पर के नेह-बन्धन में बँधकर आकाश-भर विस्तार पाने की आकांक्षा, जीवन की भागम-भाग और निरन्तर मशीनी और औपचारिक होते सम्बन्धों के विरोध में सघन परिचय और आत्मीयता की बारादरी सजाने का सपना झिलमिला रहा है।
ISBN: 9788171782819
Pages: 184
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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परम्परा और प्रयोग की सन्धि पर खड़ी प्रियदर्शन की कविता जितना अपने समय और समाज से बनती है, उतना ही निजी अनुभव-संसार से। इस कविता पर समकालीन सन्दर्भों की छाप और छायाएँ हैं लेकिन उनका नितान्त निजी और मौलिक भाष्य है।
प्रियदर्शन हिन्दी कविता के आमफ़हम मुहावरों और जानी-पहचानी वैचारिक सरणियों से अलग रचना का एक ऐसा संसार बनाते हैं जिसमें कविता किसी विचार या सरोकार को उसकी सम्पूर्णता में पकड़ने और पढ़ने का माध्यम बन जाती है।
उनकी कविता में कई चमकती हुई पंक्तियाँ आती हैं, लेकिन कविता इन पंक्तियों तक ख़त्म नहीं हो जाती, वह इन रौशन इलाक़ों से आगे उन अँधेरे हिस्सों तक भी जाती है जहाँ आम तौर पर बाक़ी लोगों की नज़र नहीं पड़ती। सन्दर्भ-बहुलता और सरोकार-गहनता उनकी कविता में सहज लक्ष्य किए जा सकने लायक़ गुण हैं। जो चीज़ उन्हें विशिष्ट बनाती है, वह उनका इतिहास और समयबोध है। वे शब्दों के जाने-पहचाने आशयों को, इतिहास और मिथक के परिचित नायकों को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं करते, उन्हें अपनी आँख से देखते हैं, अपने पैमानों पर कसते हैं।
सबसे अच्छी बात यह है कि विचार और सरोकार से बने इस बीहड़ में मनोयोगपूर्वक दाख़िल होते हुए भी वे एक पल के लिए भी कविता को अपनी निगाह से ओझल नहीं होने देते। अन्ततः पाठक को जो मिलता है, वह एक नया आस्वाद है, नई समझ है और नई कविता है।
Pratinidhi Kavitayen : Kunwar Narain
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Kunwar Narain
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शुरू से लेकर अब तक की कविताएँ सिलसिलेवार पढ़ी जाएँ तो कुँवर नारायण की भाषा में बदलते मिज़ाज को लक्ष्य किया जा सकता है। आरम्भिक कविताओं पर नई कविता के दौर की काव्य-भाषा की स्वाभाविक छाप स्पष्ट है। इस छाप के बावजूद छटपटाहट है—कविता के वाक्य-विन्यास को आरोपित सजावट से मुक्त कर सहज वाक्य-विन्यास के निकट लाने की। आगे चलकर यह वाक्य-विन्यास कुँवर नारायण की कविता के लिए स्वभाव-सिद्ध हो गया है। लेकिन उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने सहज वाक्य-विन्यास को बोध के सरलीकरण का पर्याय अधिकांशत: नहीं बनने दिया। सहज रहते हुए सरलीकरण से बचे रहना, साधना के कठिन अभ्यास की माँग करता है। 'सहज-सहज सब कोई कहै—सहज न चीन्हे कोय!' बाल-भाषा में 'प्रौढ़ व्यक्तित्व को अभिव्यक्ति' देने की चुनौती को कुँवर नारायण ने बहुत गहरे में लिया और जिया है। परम्परा की स्मृति और 'सैकड़ों नए-नए' पहलुओं को धारण करनेवाली काव्य-भाषा सम्भव करने के लिए जो साधना उन्होंने की होगी, उसका अनुमान ही किया जा सकता है। कुँवर नारायण इस महत्त्वपूर्ण सचाई के प्रति सजग हैं कि ‘कलाकार-वैज्ञानिक के लिए कुछ भी असाध्य नहीं।’ वे इस गहरी सचाई से भी वाक़िफ़ हैं कि चिन्तन चाहे दार्शनिक प्रश्नों पर किया जाए चाहे वैज्ञानिक तथ्यों पर, काव्यात्मक भाषा ही प्रत्यक्ष दिखने वाले विरोधों के परे जाकर मूलभूत सत्यों को धारण करने का हौसला कर पाती है।
—पुरुषोत्तम अग्रवाल
Use Laut Aana Chahiye
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Sudeep Banerji
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मुझे अपनी कविताओं के प्रति मोह बिलकुल नहीं है, ऐसा कहना ग़लत होगा। मैं शायद ज़रूरत से ज़्यादा सतर्क और सजग अपनी कविताओं के बारे में हूँ—इसलिए उनसे डरता रहता हूँ। फिर भी यदि कविता लिखता हूँ तो लगता है, ऐसी बातें तो मैं कह चुका हूँ, दूसरे शब्दों से उन्हीं बातों को सहलाना भी मेरे चुक जाने की ही निशानी है। ऐसा नहीं कि मेरे पास विचार या जीवनानुभवों का टोटा पड़ गया है—अभी भी किसी विचार, किसी घटना, छोटी-बड़ी बात से परेशान हो उठता हूँ, कभी-कभी महीनों तक जूझता रहता हूँ। पर उनसे निकलने के लिए कविता मेरे लिए अब आसान रास्ता नहीं रह गई है।
मैं सोचता हूँ कि लेखन में कोई इसलिए आता है कि उसे अपने दिए हुए संसार में बने रहना नाकाफ़ी लगता है। उसके आस-पास जो लोग हैं, सिर्फ़ उनसे रूबरू होकर उसका काम नहीं चलता। वह ऐसे लोगों से बातचीत करना चाहता है जिन्हें वह जानता भी नहीं है, जो दूसरे नगरों में रहते हैं, जो शायद मर चुके हैं या अभी पैदा भी नहीं हुए हैं। वह अपने आस-पास की सांसारिकताओं में ही मशगूल हो जाता है, या दीगर दिलचस्पियों में खप जाता है तो उसकी मानसिकता में दूर, मनचाहे से, अज्ञात से रिश्ते जोड़ने की सामर्थ्य नहीं बची रहती। जितने मनोरथ मैंने उठा रखे हैं, वे ही अब मुझसे नहीं सधते—क्या किया जाए?
देश में और समाज में तमाम तरह की उत्तेजनाएँ हैं। करोड़ों लोग अपनी ज़िन्दगी के थोड़े-बहुत सार्थक को भी बचा रख पाने के लिए दारुण संघर्ष में लगे हुए हैं। काफ़ी लोग बदलाव के लिए बेचैन हो रहे हैं। यह देश और दुनिया ऐसी बने रहने के लिए अभिशप्त नहीं है। तमाम लोग लगे हैं, इसे बदलने के लिए। इस बात से कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता कि एक कवि चुक गया है या उसका वक़्त आ गया है। हो सकता है कि ठीक अज़ाँ सुनने पर वह भी अपना क़फ़न फाड़कर बाहर निकल ही आए। अपनी छोटी-सी भूमिका निभाने में शायद वह और कोताही न करे। मूक बोलने लगे और पंगु गिरि को लाँघने लगे, ऐसा नामुमकिन नहीं है।
— सुदीप बॅनर्जी
Naye Patte
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Suryakant Tripathi 'Nirala'
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निराला का दूसरे चरण का काव्य भी दो दौरों से गुज़रा है। उसके पहले दौर में ‘कुकुरमुत्ता’ (प्रथम संस्करण) और ‘अणिमा’ की कविताएँ रची गई हैं और उसके दूसरे दौर में ‘बेला’ और ‘नये पत्ते’ की कविताएँ। निराला के पहले चरण के तीसरे दौर की कविताओं में ही उनका यथार्थवादी रुझान प्रबलतर होता हुआ दिखलाई पड़ता है। उसी का विकास दूसरे चरण के पहले दौर की कविताओं में देखने को मिलता है। निराला बहुत ही संश्लिष्ट भाव-बोध के कवि थे, इसलिए वे इस दौर में भी गीत-रचना करते रहते हैं।
‘अणिमा’ की अनेक रचनाएँ इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं कि निराला का सामाजिक यथार्थ का ज्ञान प्रौढ़तर हुआ है। इससे उनका यथार्थवाद नये उत्कर्ष को प्राप्त करता है, जिसे हम ‘नये पत्ते’ की नई कविताओं में, जिनका सम्बन्ध किसानों से है, स्पष्टता से देखते हैं। यह निराला-काव्य की नई मंजिल है। इसी कारण हमने ‘बेला’, ‘नये पत्ते’ की कविताओं को उनके दूसरे चरण के काव्य के दूसरे दौर की कविताएँ माना है।
निराला का यथार्थवाद ‘नये पत्ते’ की ‘कुत्ता भौंकने लगा’, ‘झींगुर डटकर बोला’, ‘छलाँग मारता चला गया’, ‘डिप्टी साहब आए’ और ‘महगू महगा रहा’ जैसी कविताओं में बुलन्दी पर पहुँचता है।
—नन्दकिशोर नवल (निराला रचनावली की भूमिका से)।
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