Nasht Kuchh Bhi Nahi Hota
Author:
PriyadarshanPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 160
₹
200
Unavailable
परम्परा और प्रयोग की सन्धि पर खड़ी प्रियदर्शन की कविता जितना अपने समय और समाज से बनती है, उतना ही निजी अनुभव-संसार से। इस कविता पर समकालीन सन्दर्भों की छाप और छायाएँ हैं लेकिन उनका नितान्त निजी और मौलिक भाष्य है।</p>
<p>प्रियदर्शन हिन्दी कविता के आमफ़हम मुहावरों और जानी-पहचानी वैचारिक सरणियों से अलग रचना का एक ऐसा संसार बनाते हैं जिसमें कविता किसी विचार या सरोकार को उसकी सम्पूर्णता में पकड़ने और पढ़ने का माध्यम बन जाती है।</p>
<p>उनकी कविता में कई चमकती हुई पंक्तियाँ आती हैं, लेकिन कविता इन पंक्तियों तक ख़त्म नहीं हो जाती, वह इन रौशन इलाक़ों से आगे उन अँधेरे हिस्सों तक भी जाती है जहाँ आम तौर पर बाक़ी लोगों की नज़र नहीं पड़ती। सन्दर्भ-बहुलता और सरोकार-गहनता उनकी कविता में सहज लक्ष्य किए जा सकने लायक़ गुण हैं। जो चीज़ उन्हें विशिष्ट बनाती है, वह उनका इतिहास और समयबोध है। वे शब्दों के जाने-पहचाने आशयों को, इतिहास और मिथक के परिचित नायकों को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं करते, उन्हें अपनी आँख से देखते हैं, अपने पैमानों पर कसते हैं।</p>
<p>सबसे अच्छी बात यह है कि विचार और सरोकार से बने इस बीहड़ में मनोयोगपूर्वक दाख़िल होते हुए भी वे एक पल के लिए भी कविता को अपनी निगाह से ओझल नहीं होने देते। अन्ततः पाठक को जो मिलता है, वह एक नया आस्वाद है, नई समझ है और नई कविता है।
ISBN: 9788183615280
Pages: 136
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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इस संकलन की कविताएँ अपनी कथ्यगत विविधता और संवेदना की व्यापक परिधि के साथ पुन: हमें उनकी कविता के विराट लोक में ले जाती है जहाँ दु:ख के कमरे हैं, और देशों की सीमाएँ उलांघती मानवीयता के विशाल पंख भी।
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ये कुछ शब्द नए कवि आस्तीक वाजपेयी की कविता के हैं जो तुमुल कोलाहल-कलह के बीच कवि की आवाज़ में बचे रह गए उस समय की याद दिलाते हैं जिसमें पुराण और पुरखों की स्मृति बसी हुई है। इस कविता को पढ़ते हुए उस अग्रज समय का अहसास होता है जो जल्दी नहीं बीतता, स्मृति बनकर साथ-साथ चलता है और थर-थर काँपते वर्तमान में उस कवि-धीरज की तरह स्थिर बना रहता है जिसके सहारे कवि आस्तीक अपने काव्यारम्भ की देहरी पर यह पहचान लेते हैं कि मैं उसी से बना हूँ जो ढह जाता है। आस्तीक की कविता हमें फिर याद दिला रही है कि—‘जीत नहीं हार बचा लेती है अस्तित्व के छोर पर’। यह प्रश्नाकुल कविता है जो हमसे फिर पूछ रही है कि—‘इस दुनिया के राज़ कौन जानता है और यह दुनिया है किसकी?’ यह कविता इस प्रश्न से फिर सामना कर रही है कि—‘हमें क्यों इच्छाएँ इतनी अधिक मिलीं और कौशल इतना कम।’
इस नई कवि-व्यथा में डूबा साधते हुए संसार का सामना इस तरह होता है कि जैसे—बारिश के आँसू सूख चुके हैं, वे धरती को गीला नहीं करते। जैसे—गुस्सा, अहंकार और हठ ताल पर चन्द्रमा की प्रतिमा की तरह जगमगा रहे हैं। जैसे—यत्न, हिम्मत और सादगी की हवा आसमान में खो गई है—कवि आस्तीक अपनी कविता के समय के आईने में नए बाज़ार से घिरते जाते संसार का चेहरा दिखाते हुए हमसे कह रहे हैं कि जैसे—दूसरों की कल्पना के बाग़ीचे में उनकी इच्छाओं की दूब उखाड़कर अपनी इच्छाओं के पेड़ लगाए जा रहे हों। कवि आस्तीक दूसरों से कुछ कहना चाहते हैं पर इस समझ के साथ कि ये दूसरे कौन हैं। यह नया कवि हमें एक बार फिर सचेत कर रहा है कि ख़ुद की पैरवी करते हुए हम थक गए हैं और सब अकेले घूम रहे हैं भाषा की भीड़ में, अर्थ भाग गए हैं, शब्द ही हैं जो नए बन सकते हैं।
आस्तीक की कविता में बिना पाए खोने का दु:ख बार-बार करवट लेता है। इन कविताओं को पढ़ते हुए यह अनुभव होता है कि यह नया कवि दु:ख के भार से शब्दों पर पड़ गई सलवटों को अपनी अनुभूतियों के ताप से इस तरह सँवार लेता है कि शब्द नए लगने लगते हैं। आस्तीक अपनी एक कविता में कहते हैं कि मृत्यु ही पिछली शताब्दी की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है। ये कविताएँ पढ़ते हुए पाठकगण अनुभव करेंगे कि शब्दों को नया करके ही मृत्यु को टाला जा सकता है।
—ध्रुव शुक्ल
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