Yaad Kiya Dil Ne
Author:
Dr. Trinetra BajpaiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 3199.2
₹
3999
Available
हिन्दी फिल्म संगीत का एक दौर ऐसा भी था जब गीतों, गजलों, नज्मों की सम्पदा सुमधुर धुनों और संयत लय-ताल के साथ हमारे जीवन के तकरीबन हर पहलू की जीवन्त व्याख्या की तरह हमारे साथ रहती थी। हर मन की हर बात कहने के लिए कोई-न-कोई गीत निकल आता था, दर्द की, खुशी की, अफसोस की, शोक की हर लहर किसी-न-किसी गीत से जाकर जुड़ जाती थी। आज भी जरूरत के वक़्त वही गीत हमारे काम आते हैं।</p>
<p>और उन गीतों के पीछे थी ऐसे अनेक संगीतकारों की सुर-साधना, अनेक ऐसे गायकों की संगीत-चेतना जिनमें से बहुतों का नाम भी हम आज के धूम-धड़ाके में भूल गए हैं, या जान ही नहीं पाए।</p>
<p>यह किताब उन्हीं नामों की स्वर्ण-तालिका को प्रकाशित करती है। वे संगीत-निर्देशक जिन्होंने हिन्दी फ़िल्म संगीत की जड़ें गूँथी, अपनी धुनों से देश के जन-गण को स्वर दिया, ऐसी लयबद्ध पंक्तियाँ दीं जो कहीं-न-कहीं हर किसी को आपस में जोड़कर देश की सामूहिक संवेदना को आकार देती हैं।</p>
<p>इस पुस्तक के केन्द्र में खास तौर पर उन संगीतकारों का जीवन और कृतित्व है जिन्होंने फ़िल्म संगीत को एक नई, सुरीली और कलात्मक दिशा दी और फ़िल्म-संगीत के उस दौर को सम्भव किया जिसे आगे चलकर संगीत का ‘स्वर्ण युग’ कहा गया। संगीत की गहरी समझ, शोध और लोकप्रियता के आधार पर यहाँ ऐसे 26 संगीतकारों पर फोकस किया गया है। अपने क्षेत्र के इन युग-प्रवर्तकों के साथ ही यहाँ उन लोगों के काम को भी रेखांकित किया गया है जिन्होंने भारतीय फ़िल्म संगीत के खजाने को समृद्ध करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई और जो आज भी सक्रिय हैं।</p>
<p>फ़िल्म-संगीत के प्रेमी पाठक इस अनूठी पुस्तक को सन्दर्भ ग्रंथ की तरह सहेज सकते हैं।
ISBN: 9789390971756
Pages: 458
Avg Reading Time: 15 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: कविता वही है, जो अपने सारे अर्थ खोले और फिर एक मौके पर कवि चुप हो जाए और पाठक बोले। कवयित्री आत्ममुग्धा चंचल नदी की तरह लिखती हैं। वह हमारे रास्ते में आनेवाली ऐसी मुश्किलों से घबराते हुए लोगों को संबल देती हैं, जो हर मोड़ पर घबराते हुए सौ-सौ बल खाने लगते हैं। हमारे जीवन की रातें कैसे हवा के परों पर सवार होकर पँखुडि़यों की सरगम पर राग-अनुराग सुनाती हैं और फिर सोचती हैं कि किस विधि मन की बात लिखूँ! सामाजिक सरोकारों से उपजे आवेगों का कवितांतरण करने में कवयित्री देर नहीं लगातीं। गली के मोड़ पर लहराता इश्तहार देखकर वह बाजार और विज्ञापन के जहर को रोकना चाहती हैं। आधुनिक समाज में वृद्धों की उपेक्षा और अपमान देखकर उनका मन भीगता है और आँखें रिसने लगती हैं। कविता को उस अवसान के द्वार पर भी देखा जाए। शब्दों की आग को परखा जाए और उस कैनवस में इरादों की कालिख हटाकर आँखों की लाली से कुछ और ऐसा कहा जाए, जो कुंठाओं के मकड़जाल से मुक्त करे। इतिहास, पुराण, प्रकृति, हवा, प्रतीक्षा और कहना है, उसी लक्ष्मण रेखा के अंदर, जिसको हम कहते हैं—रचना-प्रक्रिया। शिखाजी की कविताओं में संबंधों के ऐसे बुने-अधबुने नाजुक रेशे हैं, जो शायद पाठकों के पास भी हों, फिर भी कवयित्री आपको आपकी ही सौगात सौंप रही है। ऐसी कविताएँ, जो पाठकों के मन-प्राण को आह्लादित करेंगी।
Gubare-Ayyaam
- Author Name:
Faiz Ahmed 'Faiz'
- Book Type:

- Description: ‘ग़ुबारे-अय्याम’ फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ की आख़िरी कविता पुस्तक है जिसका प्रकाशन उनके निधन के बाद हुआ था। साल 1981 से 1984 के बीच लिखी गईं इन नज़्मों और ग़ज़लों का मुख्य स्वर अपने पूरे जीवन पर दृष्टिपात करने जैसा है। जैसाकि हमें मालूम है उनका निजी और सार्वजनिक जीवन असाधारण ढंग से घटनाप्रधान रहा। जेल भी गए और जीवन के कई साल निर्वासन में भी गुज़ारे। ‘ग़ुबारे-अय्याम’ की पहली कविता ‘तुम ही कहो क्या करना है’ में फ़ैज़ ने प्रगतिशील सोच वाले उन तमाम लोगों के संघर्ष को शब्द दिए हैं जिन्होंने पूरी मानवता के लिए बराबरी और इज़्ज़त के सपने देखे थे; जो जवान हौसलों के साथ एक बड़ी दुनिया बनाने निकले थे, लेकिन उन्हें गहरी निराशा मिली—‘जब अपनी छाती में हमने/इस देस के घाओ देखे थे/था वेदों पर विश्वास बहुत/और याद बहुत से नुस्ख़े थे/...’ पर घाव इतने पुराने और जटिल थे कि ‘वेद इनकी टोह को पा न सके/और टोटके सब बेकार गए’। ‘ग़ुबारे-अय्याम’ में संकलित ‘एक नग़्मा कर्बला-ए-बेरूत के लिए’, ‘एक तराना मुजाहिदीने-फ़िलस्तीन के लिए’, ‘हिज्र की राख और विसाल के फूल’ तथा ‘आज शब कोई नहीं है’ जैसी नज़्में और ग़ज़लें उनके आख़िरी दिनों की पीड़ा को व्यक्त करती हैं लेकिन उम्मीद से ख़ाली वे भी नहीं हैं।
Har Qissa Adhoora Hai
- Author Name:
Raj Kumar Singh
- Book Type:

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Description:
हिन्दी ग़ज़ल अब एक सक्षम विधा बन चुकी है। मौजूदा भारतीय समाज के अनुभव-विस्तार में अलग-अलग जगहों पर अनेक शायर हैं जो उर्दू की इस लोकप्रिय विधा को अपने ढंग से बरत रहे हैं। कहीं उर्दू शब्दों की बहुतायत है, कहीं खड़ी बोली के शब्दों के प्रयोग हैं, तो कहीं आमफ़हम ज़बान में ज़िन्दगी के तजुर्बों की अक्कासी की जा रही है।
राज कुमार सिंह की ग़ज़लें सबकी समझ में आनेवाली शब्दावली में बिलकुल आम मुहावरे को ग़ज़ल में बाँधने की कोशिशें हैं। वे रोज़मर्रा जीवन के अनुभवों और संवेदनाओं को ग़ज़ल के फ़ॉर्म में ऐसे पिरो देते हैं कि पढ़ते हुए पता ही नहीं चलता कि आप ज़िन्दगी से किताब में कब आ गए, और कब किताब से वापस अपनी ज़िन्दगी में चले गए।
उनकी एक ग़ज़ल का मतला है ‘जितनी भी मिल जाए कम लगती है/देर से मिली ख़ुशी ग़म लगती है’, या फिर यह कि, ‘नज़र को फिर धोखे बार-बार हुए/यूँ जीने के बहाने हज़ार हुए’। ये पंक्तियाँ अपनी सहजता में बिना आपको आतंकित किए आपके साथ हो लेती हैं। यही शायर की क़लम की विशेषता है।
इस संग्रह में राज कुमार सिंह की उन्वान-शुदा ग़ज़लों के अलावा उनकी नज़्में भी दी जा रही हैं। लगता है जैसे ज़िन्दगी का जो ग़ज़लों से छूट रहा था, उसे उन्होंने नज़्मों में बड़ी महारत के साथ समेट लिया है। प्रेम और बिछोह से प्रोफ़ेशनल जीवन की आधुनिक विडम्बनाओं तक को उन्होंने इन ग़ज़लों और नज़्मों में पिरो दिया है। एक शे’र और देखें–‘गाँव से हर बार झूठ कहता हूँ/बहुत अच्छे से हम शहर में हैं।‘ कहने की ज़रूरत नहीं कि यह किताब नए से नए पाठक को भी अपने जादू से सरशार करने की क़ुव्वत रखती है।
Kavita Se Lambi Kavita
- Author Name:
Vinod Kumar Shukla
- Book Type:

-
Description:
अपने असाधारण मितकथन के लिए विनोद कुमार शुक्ल समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में इतने विख्यात हैं कि कइयों को उनकी इतनी सारी लम्बी कविताएँ देखकर थोड़ा अचरज हो सकता है। अपेक्षाकृत अधिक व्यापक फलक को समेटती हुई ये कविताएँ, फिर भी, उनके संयम और काव्य–कौशल की ही उपज हैं। उनका भूगोल किसी भी तरह से स्फीति नहीं, विस्तार है। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि अपने प्रथम प्रस्तोता गजानन माधव मुक्तिबोध के शिल्प का विनोद कुमार शुक्ल अपने ढंग से पुनराविष्कार कर रहे हैं।
वहीं खड़े–खड़े मेरी जगह निश्चित हुई
थोड़ी हुई
ज़्यादा नहीं हुई।
एक ऐसे संसार और समय में जहाँ प्राय: सभी अपने लिए ज़्यादा से ज़्यादा की चाह करते और न पाकर दुखी होते रहते हैं, विनोद ‘थोड़े–से’ को ही टटोलने और उसी को अपनी निश्चित जगह मानकर उससे अपने समय को ज़्यादा से ज़्यादा पकड़ते–समझते रहते हैं। उनकी कविता हमारी समझ और संवेदना, जो होता है उसके लिए हमारी ज़िम्मेदारी के अहसास को बढ़ानेवाली कविता है। वह हम पर अपना बोझ नहीं डालती और न ही किसी नैतिक ऊँचाई से हमें आतंकित करने की चेष्टा करती है। उसमें आत्मदया नहीं, बेबाकी है : दोषारोपण नहीं, आत्मालोचन है। वह हमारी सहचारी कविता है और हर समय उसे पढ़ते हुए हम इस विस्मय से भर जाते हैं कि वह हमसे हमारी तकलीफ़, संघर्ष, बेचारगी और ज़िम्मेदारी की कथा कहती है और ऐसे कि कवि और हम दोनों का ही वह जैसे शामिलात खाता है। लम्बी कविताओं का यह संकलन हिन्दी कविता की निश्चय ही शताब्दी के अन्त पर एक नई उपलब्धि है।
—अशोक वाजपेयी।
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