Usaki Aankhon Mein Kuchh

Usaki Aankhon Mein Kuchh

Authors(s):

Pratap Rao Kadam

Language:

Hindi

Pages:

112

Country of Origin:

India

Age Range:

18-100

Average Reading Time

224 mins

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Book Description

प्रतापराव कदम की कविता, आज के अराजक समय और अख़बारी सतहीपन के दौर में प्रतिकार की कविता है। ज़ाहिर है यह प्रतिकार कवि किसी हथियार से न लेकर अपने वैचारिक परिष्कार एवं परिपक्व भावनात्मक बेध्यता से लेता है। दरअसल यह कविताएँ छोटे शहरों के मनोभावों को केन्द्र में रखते हुए व्यापक स्तर की अराजकता के प्रतिरोध में रची गई हैं। इसी कारण इनका मानस और विस्तार महानगरों की वर्चस्वशाली शक्तियों तक पसरा हुआ है। यह कविताएँ कुछ हद तक अपनी मान्यताओं एवं वैचारिक आग्रह के चलते ऐसा जनतांत्रिक परिदृश्य रचती हैं, जिसमें एक साधारण इनसान की पीड़ा, अवसाद, संघर्ष एवं यातनाएँ एक ऐसे सीमान्त पर खड़ी नज़र आती हैं, जहाँ से लौटकर आना सम्भव नहीं रहता। फिर वह धरातल हितैषियों की चर्चा में मुब्तिला हो या कि एक गर्भवती स्त्री की आशंका और ख़ुशियों का मिला-जुला फ़र्क़—सभी जगह लौटना या कि कुछ सार्थक बचाए रखने की खीज और खरोंचे ही हाथ लगते हैं। कवि का यह सूक्ष्म निरीक्षण देखने लायक है—‘एक आदमी एक जगह से हटता है/हवा तुरन्त ख़ाली जगह भर देती है (हितैषी कहाँ सब्र करते हैं)।’</p> <p>यह तल्ख़ सच्चाई हमारे समाज और जीवन को आज बुरी तरह कँपा रही है कि एक दिन बाज़ार हम सबको लील जाएगा और हम अपनी सीमाओं और अपेक्षाओं के साथ उन सपनों को भी पूरी तरह गँवा चुके होंगे, जो कभी अपने लिए सोच रखे थे। प्रतापराव कदम यह बख़ूबी जानते हैं कि यहाँ तो एक आदमी के अपने ही धुरी से हटने पर कोई दूसरा उसकी जगह ले लेता है। अपने बचाव के लिए प्रतिहिंसा के स्तर पर उतरा हुआ आदमी अगर कहीं से ख़ुद को बचा भी लेता है, तो बाज़ार का सत्य उसके सच को कहीं पीछे छोड़ देता है। ‘बाज़ार सत्य है कविता नहीं/मैंने जोड़ा उसमें/मृत्यु सत्य है विचार नहीं/ दोनों सत्य को जोड़ो तो/बाज़ार ही सत्य है मृत्यु की तरह (बाज़ार ही सत्य मृत्यु की तरह)।’</p> <p>जिस कवि को यह सत्य मृत्यु की तरह दिख रहा हो, आप अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि जीवन की तल्ख़ बयानियाँ, समाज का निर्मम विद्रूप एवं हमारे समकालीन समय की उपभोक्तावादी संस्कृति की कितनी सार्थक छवियाँ उसकी कविता में अपना उत्कर्ष पा रही होंगी। यह अकारण नहीं है कि ऐसा कवि इबादत के लिए हाथ उठाए पेड़ पर ‘आसमान ही टूट पड़ेगा’, वसीयत लिखे जाने के कटु यथार्थ पर ‘लोटा’, फल बेचने के सार्थक उद्यम पर ‘डांगरियाँ’ और चाटुकारिता के फूहड़ प्रहसन पर ‘दुम’ जैसी सार्थक और विचारवान कविता लिख रहा है।</p> <p>ये कविताएँ जीवन के खुरदुरे स्पर्श और उनमें मौजूद उसके सहज सौन्दर्य के सन्तुलन की कविताएँ हैं, जिसमें एक-दूसरे का निषेध नहीं बल्कि उनमें गहरी मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्ति मिली है। यह देखना भी ख़ासा दिलचस्प और क़ाबिलेग़ौर है कि प्रतापराव कदम की निगाह समाज की तमाम उन विद्रूप ख़बरों की गहरी शिनाख़्त में भी शामिल रही है, जिसे कई बार धूर्त इरादों और नृशंसता से इधर-उधर कर दिया जाता है। वे इस अर्थ में राजनीतिक आशयों का भंडाफोड़ करनेवाले कवि भी ठहरते हैं। हैदराबाद में तसलीमा नसरीन पर हुए हमले की बात हो या फिर निठारी का जघन्य हत्याकांड—सभी जगह यह कवि अपनी कलम के नेज़े पर एक प्रश्नवाची राजनीतिक कविता को सम्भव बना रहा है।</p> <p>एक हद तक इस संग्रह की कविताएँ, प्रश्न करती हुई कविताएँ भी हैं। यह देखना भी प्रासंगिक है कि ये अनगिन प्रश्न ढेरों तरीक़ों से कई दिशाओं में सम्भव हुए हैं। फिर वह कोसी नदी हो, शवयात्रा के आगे बाजा बजाने वाले लोग हों, विष्णु गणपत चौधुले के मार्फत पुलिस विभाग हो, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी हो, फ़ज़र की नमाज़ हो, कबड्डी का खेल हो या फिर नदी की मछली—कवि हर जगह गया है और अद्भुत रूप से अपनी काव्य भंगिमाओं को एक सार्थक संवाद दे पाया है।</p> <p>भारतीय समाज के मध्यवर्ग के तमाम आख्यानों, इतिहास, स्मृति और राजनीति का अचूक इस्तेमाल करते हुए, साथ ही उसे बाज़ार की भाषा से दूर ले जाकर हर दिन दुःसाध्य होती जाती दुनिया और जीवन को खोजने-नबेरने का साहस दिखाती हुई इन कविताओं में मनुष्य की चिन्ताओं को बड़े फ़लक पर विमर्श का मौक़ा मिला है। इसी कारण इन कविताओं में ऐसे चरित्रा औ गतिविधियाँ सहज ही अपनी भागीदारी बना पाए हैं, जो एक साथ पढ़े जाने पर अपने समवेत प्रतिरोध का शोर रचते हैं।</p> <p>प्रतापराव कदम, इन कविताओं के बहाने—राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक प्रपंचों पर ऐसा तीक्ष्ण प्रहार करते हैं कि यह देख पाना सम्भव लगता है कि मनुष्य की आकांक्षाओं और सपनों के समर्थन में कभी शब्द या भाषा भी खड़ी हो सकती है। यह इन कविताओं के माध्यम से बख़ूबी सम्भव हो सका है और शोर-शराबे वाले ऐसे कृतघ्न समय में अगर कोई कवि अपने भ्रम के सहारे जीवन की सहजता को बचाए रखता है, तो वह कोशिश कम नहीं मानी जा सकती—‘दूर से, अछड़ते जैसे कोई है झोपड़ी में/जैसे कोई फ़सल निहारते खड़ा बीच खेत/यही भरम बनाए-बचाए रखता है। (भरम)’</p> <p>इसी भरम को पोसते हुए स्वयं कवि, उसकी कविता या पाठक ही नहीं, बल्कि वे तमाम लोग भी समृद्ध होते हैं, जिनके जीवन में इस तरह का कोई भरम या विश्वास बचा हुआ है।</p> <p>—यतीन्द्र मिश्र

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