Sandhini
Author:
Mahadevi VermaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
प्रस्तुत संग्रह ‘सन्धिनी’ में मेरे कुछ गीत संगृहीत हैं। काल-प्रवाह का वर्षों में फैला हुआ चौड़ा पाट उन्हें एक-दूसरे से दूर और दूरतम की स्थिति दे देता है। परन्तु मेरे विचार में उनकी स्थिति एक नदी-तट से प्रवाहित दीपों के समान है। दीपदान के दीपकों में कुछ जल की कम गहरी मन्थरता के कारण उसी तट पर ठहर जाते हैं, कुछ समीर के झोंके से उत्पन्न तरंग-भंगिमा में पड़कर दूसरे तट की दिशा में बह चलते हैं और कुछ मँझधार की तरंगाकुलता के साथ किसी अव्यक्त क्षितिज की ओर बढ़ते रहते हैं। परन्तु दीपकों की इन सापेक्ष दूरियों पर दीपदान देनेवाले की मंगलाशा सूक्ष्म अन्तरिक्ष-मंडल के समान फैलकर उन्हें अपनी अलक्ष्य छाया में एक रखती है। मेरे गीतों पर भी मेरी एक आस्था की छाया है। मनुष्य की आस्था की कसौटी काल का क्षण नहीं बन सकता, क्योंकि वह तो काल पर मनुष्य का स्वनिर्मित सीमावतरण है। वस्तुत: उनकी कसौटी क्षणों की अटूट संसृति से बना काल का अजस्र प्रवाह ही रहेगा। 'सन्धिनी' नाम साधना के क्षेत्र से सम्बन्ध रखने के कारण बिखरी अनुभूतियों की एकता का संकेत भी दे सकता है और व्यष्टिगत चेतना का समष्टिगत चेतना में संक्रमण भी व्यंजित कर सकेगा।</p>
<p>—महादेवी वर्मा
ISBN: 9788180316197
Pages: 147
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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किसी ने कहा था कि दुनिया के मज़दूरो, एक हो जाओ—खोने के लिए तुम्हारे पास अपनी ज़ंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं है। कुमार अंबुज की ‘ज़ंजीरें’ उन असंख्य साँकलों का ज़िक्र करती हैं जिनसे हमारा समूचा चिन्तन, सृजन तथा समाज बँधा हुआ है और उन्हें वन्दनीय मानने लगा है, हालाँकि कुछ लोग आख़िर ऐसे भी थे जो अपनी-अपनी आरियाँ लेकर उन्हें काटते थे और बार-बार कुछ आज़ाद जगहें बनाते थे। स्वयं कुमार अंबुज के कवि के लिए यह एक उपयुक्त रूपक है। उनकी कविताओं में कोई असम्भव, हास्यास्पद आशावाद या क्रान्तिकारिता नहीं है बल्कि ‘एक राजनीतिक प्रलाप’, ‘झूठ का संसार’ और ‘समाज यह’ जैसी रचनाओं में वे समसामयिक भारतीय स्थितियों के वस्तुनिष्ठ, निर्मम और लगभग निराश कर देनेवाले आकलन तक पहुँचते हैं, फिर भी करोड़ों लोग हैं जो जीवित रहने के रास्ते पर हैं जिनमें से कुछ को पूरी उम्र ज़ंजीरों को काटते ही जाना है। यह उस समाज की कविताएँ हैं जहाँ पाँच-तारा होटलों जैसे अस्पतालों में घुसा तक नहीं जा सकता, जिसमें आदमी को खड़े होने की जगह भी मयस्सर नहीं है। झूठ के रोज़गार ने इस समाज को ख़ुशहाल बना डाला है। अपनी श्रेष्ठता से इनकार करता हुआ कवि अपने प्रति भी इतना कठोर है कि जानता है कि इस सबमें हमारी भूमिका भी इस तरह एक-सी है कि हम अपने ही क़रीब ठीक अपने ही जैसा अभिनय देखकर चौंक उठते हैं। कुमार अंबुज की ऐसी कविताएँ हमारे आज तक के हालात का सीधा प्रसारण हैं जिसमें देखती हुई आँख कभी यथार्थ से बचती नहीं है। लेकिन हिन्दी कविता में देखा गया है कि राजनीति और समाज को समझने और अभिव्यक्त करनेवाली प्रतिभा भी सिर्फ़ उन्हीं तक सीमित हो जाती है और उन्हें भी एक अमूर्तन में ही देख-दिखा पाती है। कुमार अंबुज की साफ़निगाही एकस्तरीय और एकायामी नहीं है। उनकी इस तरह की और दूसरी कविताओं में कथ्य और अनुभवों का ऐसा विस्तार है जो आज की उत्कृष्ट कविता की पहली शर्त है। आज हिन्दी में बेहतरीन कविता लिखी जा रही है लेकिन उसमें भी जिन युवा कवियों ने अस्सी के दशक के बाद अपनी स्पष्ट अस्मिता अर्जित की है उनमें वही रोमांचक वैविध्य है जो कुमार अंबुज के यहाँ है। यदि कविता की निगाह व्यक्ति और समाज के सूक्ष्मतम पहलुओं तक नहीं जाती तो वह अन्ततः अधूरी ही कही जाएगी। जब कुमार अंबुज ‘जब दोस्त के पिता मरे’ जैसी कविता लाते हैं तो हमारे अनुभव के दायरे को बढ़ाते हैं। ‘सेल्समैन’ में शीर्षक का प्रयोग एक स्निग्ध विडम्बना को जन्म देता है। ‘आयुर्वेद’, ‘होम्योपैथी’, ‘माइग्रेन’ तथा ‘हारमोनियम की दुकान से’ सरीखी कविताएँ कुमार अंबुज की अद्वितीय दृष्टि और अप्रत्याशित जगहों में कविता खोज लेने की कूवत का प्रमाण हैं और आज की हिन्दी कविता को अनायास आगे ले जाती हैं। ‘छिपकलियों की स्मृति’ हमें अपने घरों, परिवारों और समाज में लौटाती है जबकि ‘जैसे मेरे ही शहर में’ एक अजनबी जगह में अपने क़स्बे को धीरे-धीरे पहचानने-पाने की प्रक्रिया है जिसके निजी और सामाजिक निहितार्थ अद्भुत हैं।
अस्तित्व के रहस्य पर चिन्तन हमारी परम्परा का एक मौलिक सरोकार रहा है लेकिन पता नहीं क्यों, इसे कुछ दशकों से हिन्दी कविता के लिए अस्पृश्य समझ लिया गया है। इसलिए जब कुमार अंबुज बिना किसी छद्म रहस्यवाद या अध्यात्म के ‘मैं क्या हूँ’ जैसी रचना लाते हैं जिसमें ‘मैं’ कभी एक पत्ता है, झुकी हुई मीनार, दु:ख का एक थक्का रक्त की तरह, काली मिट्टी का ढेला, अपने ही अचेतन का अनचीन्हा अटकता सुर, कोई पराजित जीवन अटका हुआ नैतिक वाक्य में, या एक संकल्प गिरता-पड़ता-उठता हुआ बार-बार, तो यह अज्ञेय के आत्मचिन्तन का नहीं, मुक्तिबोध और शमशेर के आत्मचिन्तन का प्रसार है और आज की हिन्दी कविता के एक परहेज़ को तोड़ना है। ‘सापेक्षता’, ‘सब शत्रु सब मित्र’, ‘धुंध’, ‘शाम’, ‘रात’, ‘चमक’, ‘चोट’, ‘अनुवाद’, ‘काल-बोध’ आदि कुमार अंबुज की ऐसी कविताएँ हैं जिनमें वे अपने नितान्त निजी अनुभवों, जायज़ों, आकलनों, संशयों, अवसादों और पराजयों तक गए हैं। उन्होंने धीरे-धीरे एक ऐसी भाषा और शिल्प अर्जित कर लिए हैं जिनमें नितान्त अनायासिता और किफ़ायतशारी से वे बहुत लगती हुई बातें कह डालते हैं। अंबुज की कुछ ही रचनाओं में आंशिक अचकचाहट, वह भी कविता को एक सम पर ले आने में ही, नज़र आती है वरना वर्णनात्मक या इतिवृत्तात्मक रचनाओं में भी वे विस्तार को निभा ले जाते हैं। कोई भी कवि हमेशा बेहतरीन कविताएँ नहीं दे पाता लेकिन कुमार अंबुज के यहाँ थोड़ी-सी ही कमतर रचना ढूँढ़ पाना कठिन है। ऐसा सजग आत्म-निरीक्षण हिन्दी में विरल है।
कुमार अंबुज की ये कविताएँ भारतीय राजनीति, भारतीय समाज और उसमें भारतीय व्यक्ति के साँसत-भरे वजूद की अभिव्यक्ति हैं। इनमें कोई आसान फ़ार्मूले, गुर या हल नहीं हैं—इनके केन्द्र में करुणा, फ़िक्र और लगाव हैं जिनसे हिन्दुस्तानी आदमी के पक्ष की कविता बनती है। साथ में यह भी है कि जनकातरता की वेदी पर संसार और अस्तित्व के बहुत-सारे पहलुओं और सवालों को बलिदान नहीं किया गया है—सब कुछ के बीच अपने निजीपन को, विशेषतः अपनी जागरूकता और उत्सुकता को, जीवन को अधिकाधिक जानने-समझने-जीने की अभिलाषा को बचाए रखने की एक सहज मानवीय कोशिश इनमें मौजूद है। कुमार अंबुज की ये कविताएँ हिन्दी कविता की ताक़त का सबूत हैं और इक्कीसवीं सदी में हिन्दी की उत्तरोत्तर प्रौढ़ता का पूर्व-संकेत हैं।
—विष्णु खरे
Mulaqatein
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जब-जब किसी समाज, व्यक्ति, प्रकृति या स्थान का उसकी पूरी गरिमा के साथ हमारे समय में होना असम्भव हुआ है, आलोकधन्वा की कविताओं ने उसे अपनी परिधि में संभव किया है। निर्वासित और नष्ट होती स्थितियों की पुनर्रचना जितनी सहज और प्राकृतिक आभा के साथ उनकी कविताओं में होती है वह बहुत आम नहीं है। उनके लिए कविता हर कहीं मौजूद है, पानी में, ओस में, बच्चे में, गायकों में, योद्धाओं में, औरतों और पेड़ों में।
‘मुलाक़ातें’ उनका दूसरा कविता-संग्रह है जो बहुत लम्बी प्रतीक्षा के बाद आ रहा है। इस संग्रह में शामिल कविताएँ प्रकृति, जीवन, जन-गण और संसार के प्रति उनके उच्छल प्रेम को और भी पारदर्शिता के साथ व्यक्त करती हैं, और समय के प्रति उनकी असहमतियों और आलोचना-भाव को भी।
उनकी कविता एक बड़ी हद तक अन्धविश्वासी और आत्मघाती होते समाज में निर्वासन झेलती वैज्ञानिक विचारधारा की पुनर्रचना है। देश और समाज उनके लिए सिर्फ विचार नहीं ठोस और छूकर महसूस की जानेवाली जीवंत इकाइयाँ हैं, तभी वे फाँसी के तख्ते की ओर बढ़ते हुए शहीदों के सरोकारों को भी अनुभूत कर पाते हैं और अलग-अलग भाषाओं में बोलती, क्रूरताओं के सामन्ती गढ़ों को तोड़कर बढ़ी आती आज की युवा शक्ति में ‘कुछ ज्यादा भारत’ को भी चीन्ह पाते हैं। देश का बँटवारा उन्हें आज भी सालता है। कहते हैं—“अगर भारत का विभाजन/नहीं होता/तो हम बेहतर कवि होते/बार-बार बारूद से झुलसते/कत्लगाहों को पार करते हुए/हम विडम्बनाओं के कवि बनकर रह गए।”
हिन्दी कविता को प्रेम करनेवाले पाठकों के लिए अपने प्रिय कवि का यह संग्रह निश्चय ही एक सुखद घटना साबित होगा।
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