Pyar Karta Hua Koi Ek
Author:
Manoj Kumar PandeyPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 128
₹
160
Available
प्यार जब जीवन और कविता, दोनों जगह दुर्लभ हो रहा हो, दोनों ही जगह जब समाज और व्यवस्था में उग रहीं विषैली, प्रेमविरोधी और हिंस्र प्रतिक्रियाएँ मुख्यधारा हो रही हों, तब 'प्यार करता हुआ कोई एक' भी बड़ी राहत, और गहरी आश्वस्ति का स्रोत मालूम होता है।</p>
<p>यह कविता-संग्रह उन प्रेमियों के लिए है जिनसे जाने-अनजाने उनका प्रेम खो गया है; और दुखद यह है कि आज के समय में जीनेवाले हम सभी उसी श्रेणी में आते हैं। कभी हम उसे समझ नहीं पाते, कभी उसे सँभाल नहीं पाते क्योंकि हम सिर्फ़ 'प्रेम में होकर' बने रह सकें, इस विकल्प को ही कर सकनेवालों ने असम्भव कर दिया है।</p>
<p>इसलिए ये कविताएँ हम सबके लिए हैं। ये प्रेम की उस खाली जगह से उद्भूत हुई हैं जहाँ से अभी-अभी उठकर कोई गया है, जहाँ अभाव से भरी हुई एक कुर्सी अभी भी रखी है, हिल रही है, लेकिन उसे छूते हुए हमारे हाथ काँपते हैं, जिसे देखकर हमें हमारी अपात्रता याद आती है।</p>
<p>बीती हुई नजदीकियों के चमकीले कणों से दमकती ये कविताएँ विछोह के असीम पठार पर प्रेम के सबसे गहन सत्य की खोज में भटकती हुई हमें प्रेम की कीमत समझाती हैं। बताती हैं कि जब वह होता है तब भी, और जब नहीं होता तब भी, वह अमूल्य है, वह हर रूप में हमें ज्यादा मानवीय और ज्यादा सम्भावनाशील बनाता है। और यह कि, उसके 'होने' और 'न होने' से परे का प्रेमच्युत संसार कुछ भी नहीं है। 'मुझसे लिपटती है मेरी जान/वो मुझे खाती है मैं उसे/मैं उसकी बाँहों में मजे से मर जाता हूँ।'</p>
<p>ये कविताएँ हमें कोंचकर पूछती हैं कि 'मजे से मरे' हुए हमें कितनी सदियाँ बीत गई हैं; कि कितना वक्त हो गया है हमें किसी की तलाश में भटककर खुद से जा मिले हुए।</p>
<p>ये कविताएँ प्रेम के अभाव में जीने के हमारे अभ्यास को तोड़ती हैं; वियोग की</p>
<p>अलग-अलग कन्दराओं से आहों की तरह निकली ये पंक्तियाँ हमें पुन: प्रेम की अबूझ दुनिया में जाने को उकसाती हैं।
ISBN: 9789395737074
Pages: 128
Avg Reading Time: 4 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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आज के विमर्शवादी दौर में नामवर जी के कक्षा-व्याख्यान शास्त्र-निर्माण की भारतीय परम्परा के चिह्न की तरह हैं।
भारतीय आचार्यों के प्रति उनका अनाक्रान्त भाव विस्मित करता है। वे स्वाभाविक रूप से उन स्थानों को बताते हैं जहाँ काव्यशास्त्र की परम्परा में उलट-फेर हुआ है। दूसरे जहाँ बचकर निकलते हैं, नामवर जी वहीं रुकते हैं।
पश्चिम में इंडोलॉजी के प्रति आकर्षण रहा है। इसमें काव्यशास्त्र भी एक है। इस आकर्षण के वस्तुगत कारण कौन से हैं? विचार करने पर स्पष्ट होता है कि वहाँ काव्यशास्त्र सम्बन्धी कुछ प्रस्तावनाएँ, आनुषंगिक चर्चाएँ ही रही हैं। भारतवर्ष में काव्यशास्त्र एक विधिवत् शास्त्र रहा है।
भारतीय काव्यशास्त्र शास्त्र-निर्माण की एकान्तिक साधना का फल नहीं है।
संस्कृत काव्यशास्त्र पर विभिन्न अनुशासनों का प्रभाव और अपने को असाधारण सिद्ध करने की बेचैनी दोनों प्रत्यक्ष हैं।
—इसी पुस्तक से
Mera Ujar Pados
- Author Name:
Dinesh Jugran
- Book Type:

- Description: ‘मेरा उजाड़ पड़ोस’ दिनेश जुगरान का चर्चित काव्य-संग्रह है। संग्रह की कविताएँ हमारे आज के आस्थाहीन समय के सत्य और संकट को, जिसमें जीवन-मूल्य पूरी तरह अपनी क़दरो-क़ीमत खो चुके हैं, एक अत्यन्त प्रभावशाली भाषा और मुहावरे में परिभाषित करती हैं। इनमें उस शफ़्फ़ाक़ और बेहिस दुनिया की परतें खुलकर सामने आती हैं जिसमें 'होशियार लम्हों' की 'साज़िश' के चलते, यह एहसास कि 'ज़हरीले बीज, टूटे फावड़े और/बिना धार की खुरपियों से/नई क्यारियाँ कैसे बनेंगी', एक गहरी उदासी और असहायता का बोध छोड़ जाता है। लेकिन यह हार मान लेनेवालों की कविताएँ नहीं हैं। इनका सरोकार ज़िन्दगी से है जहाँ हार-जीत साथ-साथ चलते हैं। दुनिया का बिगाड़, दिनेश जुगरान पर भी इस तरह असरअन्दाज़ होना चाहता है कि वह भीड़ का हिस्सा और ख़ुद अपना तमाशा हो जाएँ, लेकिन इससे उनकी ज़िन्दगी के लिए शिद्दत और गर्मजोशी कम नहीं होती। वह कहते हैं—'मैंने अभी तक/हार नहीं मानी है/जीना चाहता हूँ/अपना ही किरदार/धरती को रख लिया है/अपनी ज़बान पर/और पहाड़ों की धड़कनों को/पहन लिया है अपनी साँसों में।' दिनेश जुगरान की कविता हमें अपने अन्तराल तक देखने की शक्ति प्रदान करती है और लगता है हम किसी जादुई गोले में अपनी ज़िन्दगी के अन्तर्विरोधों से रू-ब-रू होते हुए उन रहस्यों तक पहुँच रहे हैं जिन पर किसी कारणवश अभी तक पर्दा पड़ा हुआ था। वे कविताओं के लिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की पड़ताल करते हुए, उसका अतिक्रमण करने का प्रयास भी करते हैं। कविता दिनेश जुगरान के लिए किसी बदलाव का नारा नहीं, व्यक्ति के स्वतंत्र होने का एहसास है। उनका लहज़ा, ख़ुद से बात करने का, और कविता का परिदृश्य एक बड़ी दुनिया के उजाड़ होने का ख़तरा और वह कुछ महत्त्वपूर्ण, जो उसके विरोध में किए जाने से रह गया, जिसका किया जाना अब पहले से भी ज़्यादा ज़रूरी मगर दुश्वार है। कविता तब होती है जब शब्द पहचाने अर्थ से बाहर जाकर नए जीवन-सत्यों को पारदर्शिता के साथ सामने रख पाएँ। दो वाक्यों के बीच की ख़ामोशी ही कभी-कभी वह रहस्यात्मकता होती है जिसे समझने में उम्रें बीत जाती हैं। जीवन की हर यात्रा दिनेश जुगरान के भीतर से गुज़रकर किसी बिम्ब, उपमा या प्रतीक में रूपान्तरित होती, ऐसे विरोधाभासों का सामना कराती है, जो लगता है किसी और तरह से व्यक्त कर पाना सम्भव नहीं हो सकता। जैसे मैं देख और समझ सकता हूँ, उस एक मछली को जो ‘पानी से ऊपर उठाकर मुँह’ किसी को पुकारना चाहती है; जान सकता हूँ, उस ‘अज्ञात भय’ के टुकड़े को जो ‘उन डरी हुई तितलियों में/शामिल हो गया है/जो पहाड़ों से/नीचे गिर रही हैं।’ ‘आने से पहले ही चुपचाप/गुज़र जाता है लम्हा’ के अनुभव का शरीक, मैं महसूस कर सकता हूँ—‘मेरी डूबी हुई नाव का/सबसे मज़बूत हिस्सा/मेरी हथेलियों में/अभी भी चिपका हुआ है।’ या ‘सूर्योदय और सूर्यास्त का/फ़ासला’ ‘किस प्रकार पिता के माथे की लकीरों में/नापा जा सकता है’, और कैसे ‘बचपन के रहस्य/अन्दर ही अन्दर जकड़ गए हैं/चेहरे और शब्दों के दायरे/अब मुझे बाँध नहीं पाते/मेरे अन्दर की शीशे की खान/चूर-चूर हो चुकी है।’ जब वह कहते हैं—‘उसके नन्हे आँसू/एक दरिया छीनकर ले गया है’ तो जो मर्म उत्पन्न होता है, वह किसी दूसरी शब्दावली में कल्पना कर पाना सम्भव नहीं लगता। इसे उनकी भाषा पर अद् भुत पकड़ भी कहा जा सकता है और ज़िन्दगी की असलियत की गहरी समझ भी। उनकी भाषा और मुहावरा आनेवाले समय में लिखी जानेवाली कविता पर, देर तक और दूर तक, असरअन्दाज़ होगा। दिनेश जुगरान अपनी कविता में जिस रूपक का प्रयोग करते हैं, वह उनके दुनिया के अनुभव और निजी सोच के द्वन्द्वात्मक संघर्ष का निचोड़ होता है। आपबीती के जगबीती बनने की प्रक्रिया में निजी जीवन-सत्य व्यक्तिगत सीमाओं का अतिक्रमण कर विराट जीवन-सत्य के विभिन्न रूप रच लेते हैं। संक्षेप में ‘मेरा उजाड़ पड़ोस’ एक ऐसा महत्त्वपूर्ण काव्य-संग्रह है, जो हमारे मुश्किल संकटग्रस्त समय को आईना दिखाते हुए, हमें अपने भीतर के उजाड़ तक देखने की सलाहियत देता है। लगता है—‘हवा के वजन की तरह/लम्हा चेहरे पर उतरता हुआ’ के अन्दाज़ में। —मंज़ूर एहतेशाम
Adhoora Koi Nahin
- Author Name:
R. Anuradha
- Book Type:

-
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यह 1998 का साल था, जब आर. अनुराधा को पता चला कि उन्हें स्तन कैंसर है। उन दिनों कैंसर आज के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा डरावना था। लेकिन अनुराधा ने बड़े हौसले के साथ इस बीमारी का सामना किया। हँसते हुए, घूमते हुए, दोस्तों से फ़ोन पर बतियाते हुए, पढ़ते हुए, लिखते हुए, इन सबके बीच कीमोथेरेपी के कई यंत्रणादायी दौर झेलते हुए, अपने बाल झड़ते देखते हुए, अपनी कमज़ोर पड़ती प्रतिरोधक क्षमता को महसूस करते हुए। सर्जरी, कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी के बाद अन्तत: वे इन सबसे उबरीं। लेकिन इस दौर में हासिल अनुभव पर उन्होंने एक किताब लिखी—‘इन्द्रधनुष के पीछे-पीछे : एक कैंसर विजेता की डायरी’।
2005 के शुरू में जामिया मिल्लिया के कुछ छात्रों ने अनुराधा पर एक फ़िल्म बनाई—‘भोर’। पूरी फ़िल्म में अनुराधा की आवाज़ के अलावा कोई वायस ओवर नहीं है। फ़िल्म में अनुराधा बताती हैं—कैंसर के ख़िलाफ़ जंग में शरीर एक मैदान होता है, लेकिन यह लड़ाई बहुत सारे लोगों की मदद से जीती जाती है। घर-परिवार, दोस्त-रिश्तेदार इस युद्ध में ज़रूरी रसद पहुँचाने का काम करते हैं। जब यह फ़िल्म बन ही रही थी कि अनुराधा को दुबारा कैंसर ने घेर लिया। फिर वही कीमोथेरेपी, सर्जरी, रेडियोथेरेपी वही सब कुछ और वही हिम्मत—अनुराधा ने इस दौरान भी फ़िल्म शूट करने की इजाज़त दी।
जैसा कि दोस्तों को भरोसा था, अनुराधा यह जंग भी जीतकर निकलीं। इस दौरान उन्होंने कैंसर के डर के ख़िलाफ़ एक पूरी लड़ाई छेड़ी। कैंसर की जद में आई दूसरी महिलाओं से जुड़ीं, यह समझाती रहीं कि कैंसर से लड़ा जा सकता है और बताती रहीं कि कैसे लड़ा जा सकता है.
साल 2012 में अनुराधा को फिर से कैंसर ने घेर लिया। इस बार उसने उनकी हड्डियों पर हमला किया है। हमेशा की तरह अनुराधा लड़ती रहीं. हमेशा की तरह. और इस बार उन्होंने बहुत सारी कविताएँ लिखीं।
मैं क़तई नहीं चाहूँगा कि आप इन कविताओं को किसी सहानुभूति के साथ पढ़ें। अनुराधा को ऐसी सहानुभूति नहीं चाहिए। वह हममें से कई लोगों से ज़्यादा स्वस्थ और मज़बूत बनी रहीं। हाँ, इन कविताओं के आस्वाद के लिए ज़रूरी है कि इन्हें कलावादी आग्रहों के जंजाल से बाहर निकलकर संवेदनशीलता से पढ़ा जाए। वैसे भी ये सिर्फ़ निजी तकलीफ़ की कविताएँ नहीं हैं, ये दर्द और मृत्यु के विरुद्ध मनुष्य के साझा युद्ध की कविताएँ हैं।
—प्रियदर्शन
Nigah Dar Nigah
- Author Name:
Shalabh Shriram Singh
- Book Type:

- Description: Book
Uttar Paigamber
- Author Name:
Arun Dev
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- Description: v data-content-type="html" data-appearance="default" data-element="main">कौतुकपूर्ण सृजन का अतिरेक आपको उन्मत्त कर सकता है, लेकिन सामूहिक चेतना में जो कुछ भी छिपा रहता है, उसे केवल अनछुए सच का इलाक़ा ही बाहर निकालता है। यह केवल सृजन का विवेक ही है जो इस अनछुए को चमकाता है। सुप्रसिद्ध अवधी कवि मलिक मुहम्मद जायसी पर लिखी अरुण देव की कविता इसी तरह आपको बाँध लेती है। अवधी कविता के इस महाचितेरे कवि जायसी की स्मृतियों को कवि नाना अर्थ छवियों से टहोकता चलता है और जायसी की काव्यात्मक शख़्सियत से जुड़े अनुत्तरित सवालों की तरफ़ हमारा ध्यान खींचता है। अपनी कविताओं—‘चाहत’, ‘रफ़ी के लिए’ और ‘विज्ञापन और औरत’—में अरुण देव समकालीन जीवन के तमाम घुमाव-पेचोख़म को एक साथ पकड़ने की कोशिश करते हैं। नरेटर चिर-परिचित यथार्थ से जूझते हुए उससे परे जाना चाहता है जिसे रोज़ बदलते सामाजिक मूल्यों ने जकड़ रखा है। अरुण देव उबाऊ क़िस्म के लम्बे विवरणों से बचते हैं और उस संवेदनशीलता का ध्रुवीकरण करते चलते हैं जो दमघोंटू नहीं है। कविताओं में कवि विषयासक्ति की चकाचौंध और निरी भावुकता से बचता चलता है। वह हाज़िर जवाब है। स्थिर उबाऊ टेकों के लिए उसके यहाँ कोई जगह नहीं। उसकी कविताएँ चाक्षुष बोध की कविताएँ हैं। विश्लेषी बोध की नहीं। ये कविताएँ हमें यथार्थ से रूबरू कराती चलती हैं और इनमें किसी भी तरह की भावोत्तेजना का घोल नहीं। उनकी तीखी व्यंजनाएँ आत्म-दया में तिरोहित नहीं होतीं और उनकी बहुत–सी कविताएँ प्रेम-बोध की कविताएँ हैं जिनमें शनै:-शनै: प्रेम का स्वर धीमा होता जाता है और मूलभाव उभरकर सामने आता है। अरुण देव की कविताएँ मानव मन की थाह लेती हैं और अपनी व्यंजनाओं में जीवन की विषमताओं को पचाती चलती हैं। उनके लिए कविता ही एकमात्र साधन है जो हमें मुक्त करता है। —शफी किदवई, द हिन्दू
Kuano Nadi
- Author Name:
Sarveshwardayal Saxena
- Book Type:

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“शब्द पड़ने लगे छोटे
दर्द बढ़ने लगा
कहे भी थे जो कभी सब हो गए अनकहे”
छठे दशक में हिन्दी कविता में जो ताज़गी और सम्पन्नता आई थी, वह आज भले ही इधर-उधर छितरा गई दिखती हो, पर सर्वेश्वर के काव्य में आज भी सही-सलामत मौजूद है। इंसान के गहरे दु:खों में सामयिक दृश्यों का अर्थ व्यक्त करनेवाली वही सहजता उनकी कविता में अन्त तक मिलती है जो पहले कविता-संग्रह ‘काठ की घंटियाँ’ के प्रकाशन ने उनके नाम के साथ जोड़ी थी। राजनीति की अमानवीयता और मानव सम्बन्धों के विशृंखलन का त्रास सर्वेश्वर ने समाज के दबे हुए वर्गों, युद्ध में खेत रहे समाजों और प्राकृतिक कोप में असहाय मरते लोगों के बीच महसूस और अभिव्यक्त किया है। यह संग्रह सर्वेश्वर की काव्य-यात्रा में किसी मोड़ का सूचक नहीं, केवल उन अन्तर्धाराओं के पहले से अधिक अधीर और मुखर हो उठने का सूचक है जिन्हें पाठक तथा समीक्षक उनकी कविता में बराबर पाते रहे हैं। ‘कुआनो नदी’ माला की तीन कविताओं के माध्यम से सर्वेश्वर ने एक ऐसा गहन प्रतीक हिन्दी कविता को दिया है, जिसका अर्थवृत्त समय के साथ फैलता रहा है।
Ayachi
- Author Name:
Kashinath Mishra
- Book Type:

- Description: मनुष्य से याचना करना महापाप है। मनुष्य को केवल ईश्वर से याचना करने का अधिकार है’’ करीब 600 साल पहले मिथिला के इस दर्शन को अपने जीवन में उतारनेवाले महामहोपाध्याय श्री भवनाथ मिश्र प्रसिद्ध ‘अयाची’ के जीवन पर आधारित इस नाटक में मिथिला की ज्ञान परंपरा, सामाजिक इतिहास और भौतिक संतुष्टि के संस्कार को बेहतरीन तरीके से लिपिबद्ध किया गया है। इस नाटक का पहला संस्करण 1961 में प्रकाशित हुआ । दूसरा संस्करण आपके समक्ष है
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