Pani Ki Prarthana : Paryavaran Vishayak Kavitayen
Author:
Kedarnath SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
ारनाथ सिंह के कविता-कर्म में प्रकृति और पर्यावरण की उपस्थिति बरगद की जड़ों की तरह इतनी गहरी और विस्तीर्ण है कि उनकी कुछेक कविताओं को पर्यावरण-केन्द्रित कहना अन्याय होगा। उनकी कई ऐसी कविताएँ जो आपाततः प्रकृति और पर्यावरण की परिधि से बाहर दिखती हैं, लोक और प्रकृति के ताने-बाने को अन्तःसलिला की तरह समेटकर रखती हैं। उनकी पर्यावरण सम्बन्धी कविताओं का चयन दुष्कर तो है ही, कइयों को ग़ैरज़रूरी भी लग सकता है। यह भी हो सकता है कि इस तरह के चयन में ऐसी कई कविताएँ छूट जाएँ जिनमें प्रकृति और पर्यावरण की चिन्ता थोड़े भिन्न स्वरूप में मौजूद है। इस चयन का उद्देश्य केदारनाथ सिंह की ऐसी कविताओं को एक स्थान पर दर्ज करना है, जिनमें प्रकृति और पर्यावरण या तो चरित्र-नायक की तरह या स्थापत्य के स्तर पर अधिक प्रदीप्त हैं। आज पूरा विश्व जिस तरह से पर्यावरण संकट से गुज़र रहा है, यह चिन्ता का विषय है। यह चिन्ता जब कवि की चिन्ता बन जाती है तो जीवन के संकट का प्रश्न बन जाती है क्योंकि कवि पूरी पृथ्वी का नागरिक होता है। पृथ्वी की सभी आहटें उसकी बंसी के सुर बन जाती हैं। ऐसे विषय जब लेखन में आते हैं तो अक्सर बेसुरे हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में कविताएँ सुरसाधक-शब्दसाधक की तरह आपका सन्तुलन बनाए रखती हैं। पर्यावरणीय दृष्टि से केदारनाथ सिंह की कविताओं के चयन का यह सम्भवत: पहला प्रयास है। इससे कवि के दृष्टि-विस्तार को समझने और ऐसे विषयों को भाषा में बरतते हुए ज़रूरी संवेदनशील बिन्दुओं को उजागर करने में कुछ सहायता अवश्य मिलेगी, ऐसी उम्मीद है। साथ ही, कवि के कुछ अनचीन्हे बिन्दुओं को भी रेखांकित किया जा सक
ISBN: 9789389598179
Pages: 168
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Savita Singh
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- Description: अपने हठधर्मी स्त्रीवाद के लिए जानी जाती सविता सिंह की प्रेम कविता हिन्दी की दिलचस्प परिघटना इस मानी में है कि जैसे वह उस बहु परीक्षित सिद्धान्त का पुनर्स्मरण हो कि अपरिमेय कोमल को बचाने के लिए विकट दृढ़ता अपरिहार्य होती है। ‘प्रमे भी एक यातना है’ संग्रह सविता की अब तक की लिखी प्रेम कविताओं का संचयन है—प्रेम जो कैशोर्य, युवा और प्रौढ़ होते जीवन में लगभग उसी तापमान और तनाव में बना तो रहता है लेकिन उसमें आते सूक्ष्म बदलावों का अलक्षित रहना असंभव होता जाता है। मसलन प्रेम की चहलक़दमियों के दौरान जो प्रकृति बर्फ़ और बारिश में बाह्य का रोमांटिक परिपार्श्व निर्मित करती थी, वह आभ्यन्तर का हिस्सा बनती जाती है। सखा के उन्मन प्रतीक्षा पलों में वह सखी होती जाती है। चाँद, तारे, पत्तियाँ, फूल, चींटे-चींटियाँ—इनसे जीवन्त संवाद का जो नाता बनता है वह विफल होती मनुष्यता का नैसर्गिक विकल्प बनता जाता है। हिन्दी की स्त्री कविता में इस अपूर्वत्व को अलक्षित छोड़ देना वैचारिक अपराध से कम नहीं होगा। प्रकृति सविता की मुँहबोली बहन है—उसके साथ लेसबियन तन्मयता का आध्यात्मिक समकालीन हिन्दी की मार्मिक निधि। एको फ़ेमिनिज़्म की वह विरल उदाहरण हैं। सविता स्त्रीवाद के अध्येता और सिद्धान्तकार के तौर पर प्रहारात्मक होती हैं लेकिन अपनी कविता में वह बिना किसी आहट के धीमे पदचाप के साथ गुज़रती हैं। इसीलिए उन्होंने समकालीन कविता के शब्दकोष के सबसे मुलायम और अवसाद भरे पदों को चुना है। इतनी सारी प्रेम कविताओं को पढ़कर यह भी लगता है कि प्रेम को सोचने-समझने, उसमें संसक्त होने और उसके देह-विदेह में विकंपित बने रहने के सिवा उनके पास कोई काम नहीं है—प्रेम सबसे बड़ा मानवीय मूल्य है। युद्धों, कड़वाहट, वर्चस्ववाद के इस विषाक्त युग में सविता सिंह की कविता पारस्परिकता का अनन्त पुनर्वास करती है : ढहते सम्बन्धों के समय में मर्ममय मरम्मत का कॉस्मिक सख्य भाव! देवीप्रसाद मिश्र
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