Aakash Dharti Ko Khatkhataata Hai
Author:
Vinod Kumar ShuklaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
विनोद कुमार शुक्ल समकालीन कविता के संसार में उन थोड़े से ऐसे कवियों में शुमार हैं जिन्होंने समकालीन कविता की दिशा और दृष्टि को काफ़ी हद तक नियंत्रित किया है। उनकी इस हैसियत को हिन्दी में लगभग सभी कवियों ने स्वीकार किया है।</p>
<p>काव्याभिव्यक्ति में मित कथनों का जितना सार्थक प्रयोग वे करते हैं, उतना शमशेर ही कर पाते थे। शब्दों को कम से कम ख़र्च करके कैसे अर्थ के भंडार को समेटा जाए इसे सीखने के लिए विनोद कुमार शुक्ल की कविता काम की चीज़ है।</p>
<p>उनकी कविता नितांत समसामयिक होकर भी समयातीत लगती है। वह पीछे भी देखती है और आगे भी, पर उल्लेखनीय बात यह है कि वह अपने समय में धँसी होने के बावजूद अपने समय में फँसती नहीं है। उनके काव्यबोध में जो अचूक क़िस्म की पारदर्शी सूक्ष्मता है, वह कई लोगों को जटिलता, रूपवाद, कलावाद का अवतार लगती है लेकिन रूपवादी कविता है नहीं। काव्य-प्रयोगों के लिए उनसे बड़ा कवि आज कम से कम हिन्दी में दिखाई नहीं देता</p>
<p>वे विचारधारा के पुल से होकर रास्ता तय करने वाले कवि नहीं हैं, बल्कि वे कविता की नदी को ख़ुद तैर कर पार करने वाले कवि हैं। कम से कम उनके लम्बे कवि-कर्म का संघर्ष यही प्रतिमान हमारे सामने रखता है। वे हिन्दी कविता के संसार में उन थोड़े से कवियों में हैं जिन्होंने चालू मुहावरे को तोड़कर अपनी कविता में संवेदना और काव्य-शिल्प के लिए अनोखा आयाम चुना है। अपनी काव्यभाषा के चुनाव में वे जितने विरल, संयमी और जागरूक कवि हैं, उतने कम ही कवि रहे हैं। यह उनकी चुनिन्दा कविताओं का संकलन है।
ISBN: 9788119159116
Pages: 224
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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कुमार अम्बुज की ये कविताएँ अभूतपूर्व गहराई के साथ इस महाद्वीप के संकटग्रस्त, दुरभिसन्धि-युक्त जीवन और इसमें जी रहे मनुष्य की मुकम्मल अभिव्यक्तियाँ हैं। जो चीज़ें ओट और अँधेरे में रखी जा रही हैं, उन्हें प्रकाशित करते हुए ये उनकी अचूक पहचान करती हैं। उन सत्ता-शक्ति संरचनाओं और प्रविधियों को भी स्पष्टता से उजागर करती हैं जो नागरिकों को नयी दासता, असहिष्णुता और अमानुषिकता में धकेलने की कोशिश कर रही हैं।
इनमें दैनिक जीवन से उपजा, समकालीन यथार्थ में दूर तक पैठनेवाला एक नया, बहुआयामी शब्द-संसार दिखाई देगा। यहाँ सामाजिक-राजनीतिक चेतना और ऐतिहासिक समझ के साथ एक भविष्य-दृष्टि लगातार सक्रिय है। ये अपनी प्रखर काव्यात्मकता क़ायम रखते हुए, दख़ल और प्रतिरोध की जुझारू ज़मीन तैयार करने का साहस दिखाती हैं। प्राकृतिक और राजनीतिक आपदाओं का फ़र्क़ रेखांकित करती हैं। इनमें लोकतांत्रिक अधिकारों और स्वतंत्रता के पक्ष में एक अथक, असमाप्त जिरह है।
इनमें वंचितजन की हताशा, जिजीविषा और उनके कारणों की अनवरत पड़ताल है। यहाँ रागात्मक, पारिवारिक सम्बन्धों, प्रेम, विस्थापन, अकेलेपन और अस्मिता की मार्मिक कविताओं में भी सभ्यता की अन्वेषी समीक्षा निहित है। अपने दृष्टिसम्पन्न शिल्प से ये, कविता की लिजलिजी, रूमानी और रूढ़ पदावलियों की परिधि तोड़ देती हैं। स्मृति, मृत्यु, संत्रास, न्याय, आशा और अस्तित्व के प्रश्नों को ये किसी विस्मयकारी अलौकिकता से नहीं बल्कि अविस्मरणीय लौकिक ढंग से सम्बोधित करती हैं।
व्यापक आशयों की इन रचनाओं से गुज़रते हुए समाज एवं मनुष्यता के प्रति असीम चिन्ता और लगाव का आवेग महसूस किया जा सकता है और यही इन कविताओं का आख्यान और इनका वास्तविक उपशीर्षक भी है। अर्थगर्भी भाषा का यह आत्मानुशासन बहुआयामी नैतिकता, बौद्धिकता और प्रतिबद्धता से उपजता है।
सहधर्मी कलाओं से संवादरत और विषय-वैविध्य से भरी ये कविताएँ हमारे समय में ‘विडम्बना के नए वृत्तांत’ तथा ‘विचारधारा के सर्जनात्मक उपयोग’ का भी उदाहरण हैं। ये कविता की नई ताक़त, अनन्यता और प्रौढ़ता का सबूत हैं।
Hamare Jhooth Bhi Hamare Nahin
- Author Name:
Amita Sharma
- Book Type:

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अमिता शर्मा की कविताओं की दुनिया काफ़ी विस्तृत और वैविध्यमयी है और यह विस्तार और वैविध्य मनमाना या अवधारणात्मक न होकर ऐसी अर्जित जीवनानुभूति है जो हमें अपने परिवेश को और उससे प्रतिकृत होनेवाले अपने दिलो–दिमाग़ की प्रतिक्रियाओं को भी उन पर पड़े अभ्यास और अतिपरिचय के जाले छुड़ाती हुई—एक नई समझ और नई विकलता के साथ स्वायत्त करने में मदद करती है। यह कविता यदि एक ओर ‘अख़बारी हादसे पलटते, अपनी सुरक्षा की धूप सेंकते रहने के सुख’ की आत्म–वंचना को उघाड़ती है तो दूसरी ओर वह नितान्त आज के सामाजिक अरण्य में ‘मेमने की खाल ओढ़े भेड़िए’ को भी पहचानती है और उस ‘जोकर’ को भी, जो ‘अपना सन्तुलन बनाए रखने के लिए सबको चाहिए।’ वह मानवी साहचर्य और अलगाव के एक समूचे वर्णपट को उकेर सकती है और ‘बिना घर की छतों’ को भी। वह उन ‘ईर्ष्याओं’ को भी जानती है जो औरों से आगे बढ़ने के लिए उत्तेजित करती हुई हमें अपने आपसे छोटा करती हैं, और उन सपनों को भी, जो ज़िन्दगी को बदलते नहीं, और जटिल कर देते हैं।
बन्धन और स्वातंत्र्य, अनिवार्य उत्पीड़न और उतनी ही दुर्दम्य मुक्ति–चेष्टा की छटपटाहट मानो अमिता की कविता के वादी–संवादी सुर हैं। सिमोन वेल की कृति ‘ऑपरेशन एंड लिबर्टी’ के आवरण–पृष्ठ पर खुले आसमान की पृष्ठभूमि में सलाखों का ‘क्लोज–अप’ जिस तरह उभरकर आता है, कुछ–कुछ उस तरह का कथ्य–रूप इन कविताओं के भीतर से उजागर होते देखा जा सकता है—‘कितनी विशाल खिड़की/कितना विशाल आसमान/पर दीखती हैं केवल उनके बीच की छड़ें’—किसी भी दृष्टिकोण की इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी! निश्चय ही अमिता के यहाँ अपसंस्कृति के विद्रूपों के बरक्स प्रकृति हमेशा विद्यमान रही है, किन्तु रूसो-ई रोमैन्टिक विद्रोह और वापसी के तर्ज पर नहीं। यह निहायत ही एतद्देशीय और निहायत आँख–सामने की हक़ीक़तों के भीतर से उजागर होता आत्महीनता का घेराव है जो अपने भोक्ता और साक्षी को इस प्रश्न के सम्मुख धकेलता है—‘इस असंज्ञ संस्कृति में/किस सच को हम अपना कहें/हमारे झूठ भी अपने नहीं।’
इन कविताओं में आत्म और अनात्म के ही नहीं, निजी और सार्वजनिक के बीच भी ख़ासी आवाजाही सम्भव हुई है। बौखलाहट, विक्षोभ की जगह सूखी–सान्द्र टिप्पणियों ने ले ली है जो हमारे निकट सम्बन्धों में भी घर करती जा रही रिक्ति की कचोट को भी सह्य बना लेती हैं कुछ इस तरह कि एक तरफ़ अपने दर्द को ‘अपनी तरह अपने से कह लेने’ और दूसरी तरफ़ ‘अपने अभिनय का द्रष्टा बनने’ के बीच चुनाव की गुंजाइश ही नहीं छूटती। ध्यान देने की बात मगर यह है कि दोनों को ‘मोक्ष’ की संज्ञा से अभिहित करना इस मूल्य–विपर्यय के युग को उसकी अपनी शर्तों पर स्वीकार लेना नहीं है। लगता है, जैसे मोक्ष या आत्मा जैसे पारम्परिक प्रत्ययों को ही नहीं, स्वतंत्रता और समता सरीखे शब्दों को भी उनका अर्थ–प्रामाण्य लौटा लेने के लिए इक्कीसवीं सदी के लेखकों को भी ‘एक्जाइल’ और ‘कनिंग’ के सूक्ष्म उपकरणों की उतनी ही ग़रज़ और दरकार है जितनी आधुनिकों को थी। ‘एक नितान्त ख़ाली जगह में’ अपने आपको ढूँढ़ने की समस्या और साँसत इस कविता की एक चरितनायिका की ही नहीं, हम सबकी है, और जिस दु:ख के सहारे यह खोज सम्भव होती है, वह भी एक अनिवार्य, किन्तु सार्थक दु:ख है।
Pratinidhi Kavitayein: Navin Sagar
- Author Name:
Navin Sagar
- Book Type:

- Description: नवीन सागर की कविताओं को पढ़ते हुए आप हिन्दी कविता की दुनिया में अपनी मौजूदा रिहायश से उठकर कहीं और जाने के लिए चल पड़ते हैं—एक ज़्यादा गहरी, ज़्यादा परतदार, ज़्यादा नाज़ुक और ज़्यादा ठोस जगह की तरफ़। वह जगह जहाँ आपको अपने न समझ में आनेवाले लेकिन मारक दुख की सहज, स्पष्ट और चित्र जैसी अभिव्यक्ति मिलती है। हमारी भाषा ने कम ही ऐसी कविताएँ पाई हैं, जैसी ये सारी हैं। नवीन सागर की कविता-पुस्तकें लम्बे समय से अनुपलब्ध हैं। हालाँकि इस बीच उनकी कविताओं की तरफ़, ख़ासतौर पर नई पीढ़ी का ध्यान उल्लेखनीय ढंग से गया है। ऐसे में उनके देहान्त के लगभग पच्चीस वर्ष बाद उनकी कविताओं से यह प्रतिनिधि चयन प्रकाशित हो रहा है। उम्मीद है कि यह पुस्तक लगभग भूले हुए, लेकिन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एक कवि को विचार के केन्द्र में लाएगी।
Yeh Jo Kaya Ki Maya Hai
- Author Name:
Priyadarshan
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एक रचनाकार की पहचान इससे भी होती है कि वह अपने समकालीनों के बीच होते हुए उनसे कितना अलग है और अपने समय को दर्ज करने और उसके विकल्पों को देखने की उसकी प्रविधियाँ किस हद तक उसकी ‘अपनी’ हैं। इस अर्थ में प्रियदर्शन का नया संग्रह ‘यह जो काया की माया है’ कविता के आम प्रचलनों से बहुत हटकर है जिसमें यथार्थ के अनुभव और उसकी अभिव्यक्ति के उपकरण भी कुछ अलग ढंग के हैं।
इस संग्रह में ‘हमें जानवरों से क्षमा माँगनी चाहिए’, ‘काया का वर्णन’, ‘सोचने के कई तरीक़े होते हैं’, ‘धर्म की कविता’, ‘अधर्म की कविता’, ‘करुणा की कविता’, ‘ताक़तवर की कविता’, ‘कमज़ोर की कविता’ जैसी कई कविताएँ संकलित हैं जिनकी संरचना में भी ऐसी ही भिन्नता दिखाई देती है : उनमें कहीं अनुचिन्तनात्मक प्रवृत्ति मिलती है तो कहीं सूक्तियों जैसा चुटीलापन और कहीं अवधारणाओं और परिभाषाओं जैसी संक्षिप्ति।
प्रियदर्शन अपने वक़्त की शिनाख़्त कुछ ऐसी वस्तुओं, चिह्नों, बिम्बों और अवधारणाओं से करते हैं जो आमफ़हम होने के बावजूद आमतौर पर अनदेखे रहते हैं और उन्हें कविता का विषय लगभग नहीं माना जाता।
इस संग्रह की कुछ कविताएँ प्रत्यक्ष राजनीतिक व्यंग्य हैं और उनके विषय तात्कालिक और तक़ाज़ों से भरे हुए हैं, लेकिन अगर कविता की सत्ता-विमर्श से अलग एक ‘उच्चतर’ राजनीति होती है तो इस संचयन की ज़्यादातर कविताएँ राजनीतिक कही जाएँगी : ‘देशभक्ति एक ख़तरनाक शब्द है/किसी तलवार की तरह/जिससे तुम्हारी गर्दन बस यह पूछने के लिए/उड़ाई जा सकती है कि आज की तारीख़ में दाल की क़ीमत क्या है?’
—मंगलेश डबराल
pratinidhi Kavitayein : Gyanendrapati
- Author Name:
Gyanendrapati
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“ज्ञानेन्द्रपति ने यदि कोई सभ्यता-विमर्श सम्भव किया है तो उसे समकालीन सन्दर्भों में, वैश्वीकरण की चपेट में आ चुके समाज के जीवन का भाष्य जानकर समझा जा सकता है। प्रसाद-निराला-मुक्तिबोध हों या ज्ञानेन्द्रपति, भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में ये सभी कवि अपने समाज में वर्चस्व की शक्तियों का चारित्रिक भाष्य ही रचते हैं। ज्ञानेन्द्रपति इतिहास, मिथक या फैंटेसी की जटिल पद्धतियों की तरफ जाने के बजाय ठेठ विवरण की यथार्थवादी पद्धति को अपनाते हैं। वे पर्यवेक्षण को ही सीधे, कविता में बदल देते हैं। उनकी कविता, देखे गए दृश्य की कविता है, यथार्थ का प्रत्यक्ष आख्यान है। ज्ञानेन्द्रपति के प्रेक्षण की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि वे किसी दृश्य को फोटोग्राफिक प्रेक्षण की तरह निर्विकार या प्रकृतिवादी तरीके से नहीं, बल्कि उसकी समूची आन्तरिक द्वंद्वात्मकता में पकड़ते हैं। इस प्रयत्न में दृश्य के परस्पर पूरक या विरुद्धार्थी आशयों को अगल-बगल रखकर उनके बीच उत्पन्न विसंगति को उभार देते हैं। यह विसंगति अपने आप में एक काव्यात्मक आशय बन जाती है। इस तरह वे विलोम प्रत्ययों के युग्म से कविता का कथ्य निर्मित करते हैं। ज्ञानेन्द्रपति के लिए विडम्बना का स्रोत भाषा नहीं, जीवन है जिसे वे प्रेक्षण के जरिये जीवन से उठाते हैं, सिर्फ शब्दों के कौतुक से उसे उत्पन्न नहीं करते। उनके यहाँ विडम्बना बिम्ब में प्रत्यक्ष होती है, वक्र कथन में नहीं। वह नई कविता के दौर में लक्षित किए गये ‘शरारतपूर्ण सह-संयोजन’ सरीखा भी नहीं, बल्कि सचेत समाज-प्रेक्षण है।”
—जयप्रकाश, सुपरिचित आलोचक
Bikhre Hain Swarg
- Author Name:
Dr. Urmila Singh
- Book Type:

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