Madhukar Shah : Bundelkhand Ka Nayak
Author:
Govind NamdevPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 236
₹
295
Available
भारत के स्वतंत्रता-आन्दोलन के ऐसे न जाने कितने अध्याय होंगे, जो इतिहास के पन्नों पर अपनी जगह नहीं बना पाए। देश के दूर-दराज़ हिस्सों में जनसाधारण ने अपने दम पर विदेशी शासकों से कैसे लोहा लिया, क्या-क्या झेला, उस सबको क़लमबन्द करने की उस समय न किसी को इच्छा थी, न अवसर। लेकिन पीढ़ियों तक जीवित रहनेवाली किंवदन्तियों में इतिहास के ऐसे अदेखे सूत्र मिल जाते हैं।</p>
<p>1857 के स्वतंत्रता-संग्राम से पहले 1842 के बुन्देल-विद्रोह का प्रकरण भी ऐसा ही है। लिखित इतिहास में इस विषय पर विस्तार से कहीं कुछ भी उपलब्ध नहीं है, लेकिन कुछ सूचनाएँ अवश्य मिलती हैं। उन्हीं को आधार मानकर जुटाई हुई बाक़ी जानकारी को लेकर इस नाटक की रचना की गई है।</p>
<p>कह सकते हैं कि यह रंगमंच के एक सिद्ध जानकार की क़लम से निकली रचना है, जो इस ऐतिहासिक प्रकरण को इतनी सम्पूर्णता से एक नाटक में बदलती है कि इसे पढ़ना भी इसे देखने जैसा ही अनुभव होता है।</p>
<p>बुन्देलखण्ड की खाँटी ज़ुबान, अंग्रेज़ अफ़सरों की हिन्दी और लोकगीतों के साथ बुनी गई यह नाट्य-कृति एक समग्र नाट्य-अनुभव रचती है।
ISBN: 9789387462465
Pages: 128
Avg Reading Time: 4 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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‘जनवासा’ की प्रस्तुति देखकर भूदान के भ्रष्टाचार, स्वयंसेवियों की स्वयं की सेवा और क्रान्तिकारी धारा की पतनशीलता की समकालीनता का दर्शन हुआ। समय के सच पर भारती की अद्भुत पकड़ है।
—अरुण कुमार, ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, पटना
सच कहा जाए तो ‘जनवासा’ मानवीय संवेदनाओं का एक ऐसा कोलाज है जिसका हर रंग सामाजिक सरोकार के ताने-बाने में समाया है। नाटक नक्सलवादी विचारधाराओं के टकराव, भूदान आन्दोलन, वर्णव्यवस्था की बढ़ती खाई, अन्धविश्वास से मुक्ति के द्वार की खोज और अशिक्षा के बीच सम्भ्रान्त वर्गों की स्वार्थलोलुपता के छद्म रूपों को नग्न करता है। बल्कि समाज की अन्धी सुरंग में रोशनी भी दिखाता है, जैसे अब भी बहुत कुछ समाप्त नहीं हुआ है।
—‘दैनिक जागरण’, पटना
मेहनतकश भारतीय जनमानस में उपजे अनेक प्रश्नों की पृष्ठभूमि में आज की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का आईना है ‘जनवासा’। इस नाटक में सुधारवादी एवं तथाकथित क्रान्तिकारी, दोनों ही अपनी सूरत पहचान सकते हैं।
—कामरेड डी. प्रकाश
‘जनवासा’ में क्रान्ति और कल्याण की दुकानदारी करनेवालों के असली स्वरूप को उजागर किया गया है। सत्य के पक्ष में खड़ा होने पर कौन मित्र बनेंगे, कौन दुश्मन—इसकी परवाह किए बग़ैर रवीन्द्र भारती ने साहित्यिक ईमानदारी का परिचय दिया है।
—सुरेश भट्ट, एक्टिविस्ट
एक तीख़ा एवं विचारोत्तेजक नाटक है ‘जनवासा’। भाषा, शिल्प, संगीत एवं कथन, उपकथन हृदयग्राही है। बेहद रोचक यह नाटक सिर्फ़ राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों की सच्चाई का न सिर्फ़ दर्शन कराता है, बल्कि भारतीय लोक-परम्परा के बहुरंग को भी उजागर करता है। बहुत दिनों के बाद एक बढ़िया प्ले देखने को मिला।
—डॉ. खालिक चौधरी (समाजशास्त्री)
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