Janvasa
Author:
Ravindra BhartiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 396
₹
495
Available
‘जनवासा’ की प्रस्तुति देखकर भूदान के भ्रष्टाचार, स्वयंसेवियों की स्वयं की सेवा और क्रान्तिकारी धारा की पतनशीलता की समकालीनता का दर्शन हुआ। समय के सच पर भारती की अद्भुत पकड़ है।</p>
<p>—अरुण कुमार, ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, पटना</p>
<p>सच कहा जाए तो ‘जनवासा’ मानवीय संवेदनाओं का एक ऐसा कोलाज है जिसका हर रंग सामाजिक सरोकार के ताने-बाने में समाया है। नाटक नक्सलवादी विचारधाराओं के टकराव, भूदान आन्दोलन, वर्णव्यवस्था की बढ़ती खाई, अन्धविश्वास से मुक्ति के द्वार की खोज और अशिक्षा के बीच सम्भ्रान्त वर्गों की स्वार्थलोलुपता के छद्म रूपों को नग्न करता है। बल्कि समाज की अन्धी सुरंग में रोशनी भी दिखाता है, जैसे अब भी बहुत कुछ समाप्त नहीं हुआ है।</p>
<p>—‘दैनिक जागरण’, पटना</p>
<p>मेहनतकश भारतीय जनमानस में उपजे अनेक प्रश्नों की पृष्ठभूमि में आज की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का आईना है ‘जनवासा’। इस नाटक में सुधारवादी एवं तथाकथित क्रान्तिकारी, दोनों ही अपनी सूरत पहचान सकते हैं।</p>
<p>—कामरेड डी. प्रकाश</p>
<p>‘जनवासा’ में क्रान्ति और कल्याण की दुकानदारी करनेवालों के असली स्वरूप को उजागर किया गया है। सत्य के पक्ष में खड़ा होने पर कौन मित्र बनेंगे, कौन दुश्मन—इसकी परवाह किए बग़ैर रवीन्द्र भारती ने साहित्यिक ईमानदारी का परिचय दिया है।</p>
<p>—सुरेश भट्ट, एक्टिविस्ट</p>
<p>एक तीख़ा एवं विचारोत्तेजक नाटक है ‘जनवासा’। भाषा, शिल्प, संगीत एवं कथन, उपकथन हृदयग्राही है। बेहद रोचक यह नाटक सिर्फ़ राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों की सच्चाई का न सिर्फ़ दर्शन कराता है, बल्कि भारतीय लोक-परम्परा के बहुरंग को भी उजागर करता है। बहुत दिनों के बाद एक बढ़िया प्ले देखने को मिला।</p>
<p>—डॉ. खालिक चौधरी (समाजशास्त्री)
ISBN: 9788171199839
Pages: 100
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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विख्यात कथाकार, पत्रकार और समाज-चिन्तक मृणाल पाण्डे के नाटकों का यह संग्रह उनके एक और महत्त्वपूर्ण रचना-पक्ष को सामने लाता है। नाटककार के रूप में उनकी यात्रा अस्सी के दशक से शुरू हुई और अपनी तमाम कार्यकारी तथा रचनात्मक व्यस्तताओं के बीच समय-समय पर उन्होंने इसे बरक़रार रखा। उनका पहला नाटक ‘मौजूदा हालात को देखते हुए’ था जिसका प्रकाशन ‘नटरंग’ में और भोपाल में मंचन भी हुआ, लेकिन दुर्भाग्य से उसकी कोई प्रतिलिपि अब प्राप्य नहीं है। यही स्थिति उनके रेडियो नाटकों की भी है, जिनमें से अधिकांश आकाशवाणी के आर्काइव्ज़ में गुम हैं। सो इस संग्रह में दो ही रेडियो नाटक शामिल हो सके हैं, ‘सुपर मैन की वापसी’ और ‘धीरे-धीरे रे मना’।
पुस्तक के मुख्य भाग में मृणाल जी के पाँच पूर्णकालिक नाटक हैं जो न केवल नाटककार के रूप में उनकी प्रतिभा के परिचायक हैं बल्कि उनकी वैचारिक आत्मनिर्भरता को भी रेखांकित करते हैं। संग्रह का पहला नाटक ‘जो राम रचि राखा’ उस दौर में लिखा गया था जब हिन्दी में जनवादी तर्ज की ‘प्रतिबद्धता’ धार्मिक आस्था की तरह स्थापित थी। उस दौर में उन्होंने इस नाटक के पात्र मन्ना सेठ के हास्यास्पद क्रान्ति-स्वप्नों के माध्यम से अपने समाज से अपरिचित और निरर्थक प्रतीकों से भरी तत्कालीन वैचारिक दुनिया की तरफ़ इशारा किया। इस पर उनको आलोचना भी सहनी पड़ी।
आलोचना उन्हें अपने नवीनतम नाटक ‘शर्मा जी की मुक्तिकथा’ (2002) पर भी मिली जिसको आलोचकों ने जटिल और ‘बहुत प्रयोगधर्मी’ कहा। लेकिन इस सबके बावजूद मृणाल पाण्डे का नाटककार अपने समय की जटिलताओं का सामना करता रहा। उनका मानना है कि “अपनी सच्ची स्थिति को, वह चाहे जितनी भी जटिल क्यों न हो, परिभाषित करना हर लेखक की लेखकीय अनिवार्यता है।” उनके एक पहले नाटक ‘आदमी जो मछुआरा नहीं था’ का फोकस ही यह है कि मनुष्य के लिए उसकी स्वतंत्रता और नियति अन्तत: एक निजी सवाल है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मृणाल पाण्डे के ये सभी नाटक मंच की कसौटी पर भी खरे उतर चुके हैं। इसलिए सिर्फ़ पाठक ही नहीं, रंगकर्मी भी इस संकलन को उपयोगी पाएँगे और हमें उम्मीद है कि इससे उनकी यह शिकायत काफ़ी हद तक दूर हो जाएगी कि हिन्दी में मंचन करने लायक मौलिक नाटक नहीं लिखे जा रहे।
Phir se Jahanpanah
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Prabhakar Shrotriya
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Andher Nagari
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Bhartendu Harishchandra
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- Description: प्रस्तुत पुस्तक 'अंधेर नगरी' भारतेन्दु ने बनारस में नेशनल थियेटर के लिए एक दिन में सन् 1881 में लिखा था जो काशी के दशाश्वमेघ घाट पर उसी दिन अभिनीत भी हुआ था। 'अंधेर नगरी' को रोचक विनोदपूर्ण बनाने के लिए उसका कथात्मक ढाँचा सादा सामान्य रखा है, पर व्यंग्य को तीव्रतर बनाने के लिए ज़रूरी संकेत पहले दृश्य से ही दिए गए हैं। 'अंधेर नगरी' अंग्रेज़ राज्य का ही दूसरा नाम है। संवाद व्यंग्यपूर्ण अभिप्रायमूलक है। समूचा प्रकरण तमाशा जैसा ही है। क्योंकि 'अंधेर नगरी' की अंधेरगर्दी जिस हास्यास्पद परिणति तक दिखाई गई है, वह अकल्पनीय या अविश्वसनीय होते हुए भी यथार्थ के निकट है।
Natak Fareb-E-Hasti
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Sadique
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- Description: ‘नाटक फ़रेब-ए-हस्ती’ ग़ालिब पर लिखा गया अनोखा नाटक है। इस नाटक में एक रोचक हादसे की वजह से मिर्ज़ा ग़ालिब को मौजूदा सदी में पेश होना पड़ता है। यह हादसा इतना दिलचस्प है कि 18वीं सदी का मशहूर शायर जब आज की दिल्ली में घूमता है तो मानो हर चीज़ उससे कॉमेडी करती नज़र आती है। लेकिन बात केवल कॉमेडी तक ही सीमित नहीं है, कहानी एक नया मोड़ तब लेती है जब खुफ़िया एजेंसी के कुछ अफ़सर ग़ालिब को पड़ोसी देश का जासूस समझते हुए उनकी गतिविधियों को नोटिस करना शुरू कर देते हैं। लेखक ने इस रोचक फंतासी को एकदम यथार्थवादी अन्दाज़ में पेश किया है जहाँ पर हर दृश्य के बाद स्थितियाँ और भी ड्रामाई होती चली जाती हैं। इस सब के बीच माज़ी और हाल के न जाने कितने सवाल और उनके जवाब जुगनुओं की तरह झिलमिलाते रहते हैं।
Amali
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Hrishikesh Sulabh
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-
Description:
बिहार की बिदेसिया शैली में लिखित ‘अमली’ नाटक आधुनिक भी है और अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ भी। नाटक में प्रचुर पारम्परिक गीतों एवं नृत्यों का समन्वय किया गया है जो नाटक के कथ्य एवं बिदेसिया शैली दोनों के अभिन्न अंग हैं। सूत्रधार और गड़बड़िया जैसे पात्र ‘अमली’ को एक ओर संस्कृत परम्परा से जोड़ते हैं तो दूसरी ओर लोक परम्परा से। नाटक रोचक होने के साथ ही हमें सोचने को मजबूर करता है और कहीं वर्तमान परिस्थिति से मुक्ति पाने-दिलाने के लिए उन्मुख करता है। टोटल थिएटर को रूपायित करनेवाली हृषीकेश सुलभ की यह कृति हिन्दी नाट्य-साहित्य एवं रंगमंच की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
—प्रतिभा अग्रवाल
दरअसल ‘अमली’ भारत के किसी भी पिछड़े प्रान्त के किसी भी ज़िले के किसी भी गाँव में मिल जाएगी। इस मायने में ‘अमली’ समकालीन समाज की जीवन्त पुनर्रचना है। अमानवीय अर्थतंत्र और सामन्ती समाज की विद्रूपताओं में पिसते व्यापक समाज की दारुण स्थितियाँ ‘अमली’ को एक समकालीन रचना बनाती हैं। सूत्रधार, विदूषक और समाजी ब्रेख़्त के थियेटर की शैली में यातना और बेचैनी के आवेगों में बहते नाट्य-दर्शकों की चेतना को झकझोरते हैं और उन्हें नाटक के बजाय समाज की विराट सच्चाइयों से जोड़ते हैं।
—उर्मिलेश; ‘नवभारत टाइम्स’, पटना, 1 जनवरी, 1988
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद हिन्दी रंगमंच का नवोन्मेष तो हुआ, पर उसमें भारतीय रंग- परम्परा विलुप्त-सी रही। पिछले दो-तीन दशकों से भारतीय रंगदृष्टि की तलाश चल रही है। इस दिशा में एक सार्थक क़दम है बिदेसिया शैली में हृषीकेश सुलभ लिखित ‘अमली’ नाटक का मंचन।
—श्रीप्रकाश; दैनिक ‘हिन्दुस्तान’, पटना, जुलाई, 1988
‘अमली’ उस पीड़ित समाज की प्रतिनिधि है जिसे सत्ता, सम्पत्ति और षड्यंत्र ने सदा लूटा है।
—‘जनसत्ता’, कोलकाता, 26 दिसम्बर, 1991
हृषीकेश सुलभ द्वारा लिखित इस नाटक का मंचन वर्तमान में राँची रंगमंच के ठहरी हुई झील में एक बड़ा पत्थर था। यह बहुख्यात नाटक भिखारी ठाकुर के बिदेसिया से उद्भूत शैली पर आधारित प्रयोग है। सीधे-सादे कथ्य के साथ जुड़ा शिल्प इस नाटक की मूल ताक़त है।
—प्रियदर्शन; ‘राँची एक्सप्रेस’, राँची, 25 जून, 1992
‘अमली’ में बिदेसिया शैली की सार्थक रंगयुक्तियों का नए तरीक़े से कुशलता के साथ इस्तेमाल किया गया। राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी रंगमंच के भीतर यह एक नया प्रयोग था। इस प्रयोग ने पटना रंगमंच को नया आकाश दिया।
—चंद्रेश्वर; दैनिक ‘हिन्दुस्तान’, पटना, 17 मार्च, 1993
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