Badi Buajee
Author:
Badal SarkarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 100
₹
125
Available
इस नाटक की मुख्य शक्ति इसके चुटीले और व्यंग्य सिद्ध संवाद हैं। कथा का विकास और प्रवाह संवादों के जरिए होता रहता है। एक उदाहरण, बूआजी के व्यक्तित्व को व्यंजित करता शशांक नामक पात्र का यह कथन, ‘कोन्नगर से बूआजी को प्रमीला कैसे खींचकर यहाँ ला रही है, यह या तो भगवान जाने या तुम...यह खबर सुनने के बाद से मेरे तो होश फाख्ता हो रहे हैं। गोली खाकर मरने के समय आँखों के सामने अँधेरा आने के बजाय बूआजी आ खड़ी होती हैं।’ यही कारण है कि सारे प्रमुख पात्र पाठकों और दर्शकों की स्मृति में टिक जाते हैं।<br>सुप्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ. प्रतिभा अग्रवाल द्वारा अनूदित यह प्रहसन नई साज-सज्जा में पाठकों व रंगकर्मियों को भाएगा, ऐसा विश्वास है।
ISBN: 9788126726189
Pages: 120
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
...“इतने दिन बीत गए और मैं आज तक मुंडाओं को उनका राज नहीं दिला सका। गुलामी का अँधेरा उनके ऊपर पहले की तरह ही छाया हुआ है। ...पर कुछ दरवाज़े तो खुले हैं।...थोड़ी उजास तो आ रही है। मैंने उनके कई बन्धनों को खोल दिया है। अब वे असुरों की पूजा नहीं करते। अब वे प्रेतों से नहीं डरते। अब उन्होंने पहानों-ओझाओं को भेंट चढ़ाना बन्द कर दिया है।...पर मैंने यह कैसी राह चुन ली। इतनी कठिन राह! क्या वे सब इस राह पर चल सकेंगे? जानता हूँ मैं, यह एक कठिन राह है। जब पैर बढ़ाओ, तब काँटे। पर यही एक राह है जिस पर चलकर मुंडा गोरे साहबों के डर और पकड़ से आज़ाद हो सकते हैं। यह जो कुछ हो रहा है, क्या यह सब मैं कर रहा हूँ? नहीं, मैं अकेला कुछ नहीं कर सकता।...मैं तो बस उनकी साँसों में...उनके मन में,...उनकी आत्माओं में...उनकी नसों में एक तेज़ तूफ़ान की तरह रहना चाहता हूँ। उन्होंने मुझे अपना पिता कहा और मैंने उनका पिता बनना स्वीकार किया। वे ग़ुलामी के बन्धन से छूटना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें भरोसा चाहिए, और उन्होंने उस भरोसे को मेरे भीतर पाया।...उन्हें एक भगवान चाहिए, वे धर्म के बिना न तो जी सकते हैं और न ही मर सकते हैं। जनम-जनम से वे सिंबोङा को पूजते रहे, पर सिंबोङा ने उनकी सुधि नहीं ली। मेरे ऊपर उनके भरोसे ने उन्हें मेरे भीतर भगवान दिखाया। उन्होंने मुझे अपना भगवान माना और मुझे उनका भगवान बनना पड़ा। क्या करता मैं? उनके भरोसे को कैसे तोड़ता? मैं जानता हूँ दिकुओं, ज़मींदारों, साहेबों की ताक़त को। पर बिना लड़े कुछ नहीं हो सकता। हार के डर से लड़ने को रोका नहीं जा सकता। मैं जानता हूँ बन्दूक की ताक़त। मालूम है मुझे कि संथाल हूल में हारे, कोल, खरुआ और सरदार हारे, पर लड़ाई सिर्फ़ हार-जीत नहीं होती।...मुझे अपना अन्त मालूम है, पर मैं जानता हूँ कि उनकी जीत उनके भरोसे में ही छिपी है।...हाँ मैं आबा हूँ इस धरती का...भगवान हूँ मुंडाओं का...। मैंने मिशन में प्रभु यीशु की प्रशंसा में सुना था कि एक रोटी में उन्होंने हज़ारों-हज़ार लोगों की भूख मिटाई थी। आनन्द पांडे के घर सुना था कि भक्त प्रह्लाद के लिए भगवान ने सिंह का रूप धरा और खम्भा से निकलकर उसके मामा को मार डाला। मैं भी उन्हीं की तरह हूँ। लँगोटी पहने, तीर-धनुही लिये, भूखे पेट मुंडाओं को मैंने निडर किया है। आज हर मुंडा निडर है और दुनिया पर राज करनेवाले साहेबों के सामने छाती ताने खड़ा है।”
—इसी पुस्तक से
Mirjafar Evam Anya Natak
- Author Name:
Vratya Basu
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व्रात्य बसु अपने आपमें नाटक की एक पाठशाला हैं। वे नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, नाट्य समीक्षक एवं बेहतरीन फिल्म निर्देशक हैं, जिनकी पैनी दृष्टि और सूक्ष्म विवेचन नाटक के छोटे से छोटे शिल्प को भी महत्त्वपूर्ण बनाकर मंच से लेकर फिल्म तक पहुँचा देती है। नाट्य विधा को मनुष्य जीवन का सहज प्रकाशन मानने वाले व्रात्य बसु के नाटक समाज-परिवर्तन की ठोस भूमि निर्मित करने में मील का पत्थर माने जा सकते हैं। इनके नाटकों की बौद्धिकता और मानवीय भावनाएँ अपनी स्थानीयता को प्रकट करते-करते दिन ब दिन वैश्विक होती जाती है। हमारे दैनंदिन नागरिक जीवन के एक-एक पल के ताप-उत्ताप को नाटक के भीतर समा देने की अद्भुत कला व्रात्य की लेखनी की जादुई विशेषता है। आधुनिक के अन्तर्मन का डर, उदासीनता या फिर प्रेम, रोमांस, व्रात्य के नाटकों में अपनी सुन्दरता और असुन्दरता के साथ सहज ही प्रकट हो उठते हैं और उनके पाठक तथा दर्शक उस अन्तर्दृष्टि को प्राप्त कर लेते हैं। उनके छह बहुचर्चित नाटकों के इस संकलन में, हर एक नाटक नई चिन्तन और एक नई चेतना को अभिव्यक्त करता है।
विषय की वैविध्यता हो या शोध एवं परीक्षण की दृष्टि उनकी सृष्टि एकरसता की शिकार कभी नहीं बनी। उनकी सृजनशीलता की पराकाष्ठा ही है कि काल के भीतर खड़े होकर भी वे कालोत्तर में पहुँचने की क्षमता रखते हैं। प्रस्तुत संग्रह में उनका ‘क्रेऊसा द क्वीन’, ‘मीरज़ाफ़र’, अनुशोचना’, ‘अन्तिम रात’, ‘एक दिन अलादीन’ या फिर ‘इला गुढ़ैषा’ प्रत्येक नाटक इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। चाहे विधा ऐतिहासिक हो या पौराणिक, मिथक, फैंटेसी हो या राजनीतिक व्यंग्य, आधुनिक या फिर उत्तर-आधुनिक उसके पाठ एवं मंचन दोनों ही पाठकों एवं दर्शकों के लिए एक नई उपलब्धि होते हैं। उनकी नाट्य भाषा एवं संवाद ओजपूर्ण और चमत्कृत कर देने वाले हैं। आशा है कि उनके नाटकों का यह संग्रह बांग्ला के साथ-साथ निःसन्देह हिन्दी साहित्य की भी अमूल्य निधि मानी जाएगी।
Tughalaq
- Author Name:
Girish Karnad
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- Description: मोहम्मद तुग़लक चारित्रिक विरोधाभास में जीनेवाला एक ऐसा बादशाह था जिसे इतिहासकारों ने उसकी सनकों के लिए ख़ब्ती करार दिया। जिसने अपनी सनक के कारण राजधानी बदली और ताँबे के सिक्के का मूल्य चाँदी के सिक्के के बराबर कर दिया। लेकिन अपने चारों ओर कट्टर मज़हबी दीवारों से घिरा तुग़लक कुछ और भी था। उसने मज़हब से परे इंसान की तलाश की थी। हिंदू और मुसलमान दोनों उसकी नज़र में एक थे। तत्कालीन मानसिकता ने तुग़लक की इस मान्यता को अस्वीकार कर दिया और यही ‘अस्वीकार’ तुग़लक के सिर पर सनकों का भूत बनकर सवार हो गया। नाटक का कथानक मात्र तुग़लक के गुण-दोषों तक ही सीमित नहीं है। इसमें उस समय की परिस्थितियों और तज्जनित भावनाओं को भी अभिव्यक्त किया गया है, जिनके कारण उस समय के आदमी का चिंतन बौना हो गया था और मज़हब तथा सियासत के टकराव में हरेक केवल अपना उल्लू सीधा करना चाहता है। 3 अप्रैल, 1983, हिंदुस्तान, नयी दिल्ली
Pagla Ghora
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Badal Sarkar
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- Description: सुप्रसिद्ध नाटककार बादल सरकार की यह कृति बांग्ला और हिन्दी दोनों भाषाओं में अनेक बार मंचस्थ हो चुकी हैं। बांग्ला में शम्भू मित्र (‘बहुरूपी’, कलकत्ता) और हिन्दी में श्यामानन्द जालान (‘अनामिका’, कलकत्ता), सत्यदेव दुबे (‘थियेटर यूनिट’, बम्बई) तथा टी.पी. जैन (‘अभियान’, दिल्ली) ने इसे प्रस्तुत किया। गाँव का निर्जन श्मशान, कुत्ते के रोने की आवाज़, धू-धू करती चिता और शव को जलाने के लिए आए चार व्यक्ति—इन्हें लेकर नाटक का प्रारम्भ होता है। हठात् एक पाँचवाँ व्यक्ति भी उपस्थित हो जाता है—जलती हुई चिता से उठकर आई लड़की, जिसने किसी का प्रेम न पाने की व्यथा को सहने में असमर्थ होकर आत्महत्या कर ली थी और जिसके शव को जलाने के लिए मोहल्ले के ये चार व्यक्ति उदारतापूर्वक राजी हो गए थे। आत्महत्या करनेवाली लड़की के जीवन की घटनाओं की चर्चा करते हुए एक-एक करके चारों अपने अतीत की घटनाओं की ओर उन्मुख होते हैं, उन लड़कियों के, उप-घटनाओं के बारे में सोचने को बाध्य होते हैं जो उनके जीवन में आई थीं और जिनका दुखद अवसान उनके ही अन्याय-अविचार के कारण हुआ था । किन्तु ‘पगला घोड़ा’ में नाटककार का उद्देश्य न तो शमशान की बीभत्सता के चित्रण द्वारा बीभत्स रस की सृष्टि करना है और न ही अपराध-बोध का चित्रण। बादल बाबू के शब्दों में यह ‘मिष्टि प्रेमेर गल्प’ अर्थात् ‘मधुर प्रेम-कहानी’ है।
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