Suno Kabir
Author:
Soni PandeyPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
सुनो कबीर युवा कथाकार सोनी पांडेय का पहला उपन्यास है। इसमें वे आज़मगढ़ के एक गाँव इब्राहिमपुर की कथा कह रही हैं। उपन्यास इस बात का जीवन्त दस्तावेज है कि एक साझी विरासत और सपने साझा करते हुए लोग राजनीतिक साजिशों का शिकार होकर कैसे एक दूसरे को शक की नजर से देखने लगते हैं। असल में इनके साझेपन के बीच एक दरार है जिस पर सवार होकर बाँटने वाली तमाम ताकतें बार-बार इन तक आती हैं। ये दरार है जाति और धर्म की चौहद्दी को बनाए रखते हुए एकता बनाए रखने की कोशिश करना। जाति या धर्म के बाहर घटित हुआ एक प्रेम भी इस कथित एकता को ध्वस्त कर देता है और उस्मान की मुहब्बत भरी दुनिया उजड़ जाती है। लेकिन यहीं से उपन्यास नई उठान लेता है जहाँ उस्मान अपने निजी जीवन में त्रासदी का शिकार होकर भी इस दुनिया में मुहब्बत बचाए रखते हैं।
सोनी अपनी कहानियों में कस्बाई जीवन का खदबदाता हुआ यथार्थ रचती रही हैं। सुनो कबीर में वे अपनी इस चिर-परिचित जमीन में और गहरे धँसी हैं। यहाँ पर उस्मान, फेकू, मोनिका, मनोहर या पिंकी जैसे एकदम साधारण चरित्रों की स्वप्नशील पर यथार्थपरक दुनिया है। यहाँ पर मोनिका या पिंकी जैसी स्त्रियाँ हर व्यूह को तोड़ते हुए आगे बढ़ रही हैं। ये बराबर मनुष्य होना अपना हक मानते हुए एक सपना देखती हैं और इन्हें ऐसे साथी मिलते हैं जो इन सपनों के सहयात्री बनते हैं। मंच पर स्त्री भूमिकाएँ करने वाला फेकू अपने जीवन में एक खास तरह का पुरुष होने के स्टीरियोटाइप से दूर हो रहा है। ये एक ऐसी स्थिति है जिसकी वजह से उसका दाम्पत्य जीवन कुछ समय के लिए खतरे में जरूर आता है पर एक दिन उसकी पत्नी भी जानती है कि फेकू इस दुनिया के पुरुषों की तुलना में कितना ज्यादा मनुष्य और साथी है। एक पठनीय और जरूरी उपन्यास।
ISBN: 9789391099176
Pages: 112
Avg Reading Time: 4 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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Description:
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज की त्रासदी को यह उपन्यास दो स्तरों पर उद्घाटित करता है—पूँजीवादी शोषण और मध्यवर्गीय भटकाव। आकस्मिक नहीं कि सूरज-सरीखे संघर्षशील युवा पत्रकार के साहस और प्रेरणा के बावजूद उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र—शरद और जया जिस भयावह यथार्थ से दूर भागते हैं, उनका कोई गंतव्य नहीं। न वे शोषक से जुड़ पा रहे हैं, न शोषित से।
छठे दशक के पूर्वार्द्ध में प्रकाशित राजेन्द्र यादव की इस कथाकृति को पहला राजनीतिक उपन्यास कहा गया था और अनेक लेखकों एवं पत्र-पत्रिकाओं ने इसके बारे में लिखा था। मसलन, श्रीकान्त वर्मा ने कलकत्ता से प्रकाशित ‘सुप्रभात' में टिप्पणी करते हुए कहा कि “शासन का पूँजी से समझौता है, ग़रीब मज़दूरों पर गोलियाँ चलाकर कृत्रिम आँसू बहानेवाली राष्ट्रीय पूँजी की अहिंसा है। इन सबको लेकर लेखक ने एक मनोरंजक और जीवन्त उपन्यास की रचना की है (और) पूँजीवादी संस्कृति की विकृतियों की अनेक झाँकियाँ दिखाई हैं।” अथवा ‘आलोचना’ में लिखा गया कि “ ‘उखड़े हुए लोग' में जिन लोगों का चित्रण किया गया है, वे एक ओर रूढ़ियों के कठोर पाश से व्याकुल हैं तथा दूसरी ओर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में निरन्तर लुटते रहने के कारण जम पाने में कठिनाई का अनुभव कर रहे हैं। इस दोतरफ़ा संघर्ष में रत उखड़े हुए चेतन मध्यवर्गीय जीवन का एक पहलू प्रस्तुत उपन्यास में प्रकट हुआ है। बौद्धिक विचारणा की दृष्टि से यह उपन्यास पर्याप्त स्पष्ट और खरा है।” या फिर चन्द्रगुप्त विद्यालंकार की यह टिप्पणी कि, “सम्पूर्ण उपन्यास में एक ऐसी प्रभावशाली तीव्रता विद्यमान है, जो पाठक के हृदय में किसी न किसी प्रकार की प्रतिक्रिया उत्पन्न किए बिना न रहेगी और (इसमें) अनुभूति की एक ऐसी गहराई है जो हिन्दी के बहुत कम उपन्यासों में मिलेगी।” कहना न होगा कि इस उपन्यास में लेखक ने “जहाँ एक ओर कथानक के प्रवाह, घटनाचक्र की निरन्तर और स्वाभाविक गति तथा स्वच्छ और अबाध नाटकीयता को निभाया है, वहीं दूसरी ओर उसने जीवन से प्राप्त सत्यों और अनुभूतियों को सुन्दर शिल्प और शैली में यथार्थ ढंग से अंकित भी किया है।”
Khalnayak
- Author Name:
Yi Mun Yol
- Book Type:

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इस उपन्यास की कथा साफ़ तौर से एक रूपक है जो कोरियाई राजनीति से जुड़ी है। यह कोरिया में एक अधिनायकवादी राज्य शैली से अनिश्चित क़िस्म के प्रजातंत्र में बदलने की गाथा है। इसमें ताक़त के भयंकर दुरुपयोग, आम जन के द्वारा उसे स्वीकार कर चुपचाप सहते रहने की मनोदशा, प्रजातंत्र की ओर उन्मुख करनेवाली जागृति को तो साक्षात् किया ही गया है लेकिन बड़ी बात यह है कि अधिनायक की हार के बावजूद अधिनायकवादी प्रवृत्ति के प्रति सदा सावधान बने रहने की ओर सशक्त संकेत भी किया गया है।
इस उपन्यास के दो स्तर हैं : एक सीधा-सादा और दूसरा सांकेतिक। सीधे-सीधे अर्थ के अनुसार यह कक्षा के एक ऐसे बिगड़ैल मॉनीटर की कहानी है जो अपनी ताक़त और अपने साम्राज्य का झंडा बनाए रखने के लिए कितने ही तरह के हथकंडे अपनाता है। सांकेतिक अर्थ के अनुसार यह मनुष्य के भीतर की एक ऐसी प्रवृत्ति को सामने लाता है जो ताक़तवर बनने की भरपूर कोशिश करती है। उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में है जिसका ‘विकृत नायक’ अर्थात् ‘खलनायक’ ‘ओम सोकदे’ है।
माना जाता है कि यह उपन्यास 1980 के ग्वांगजू सामूहिक हत्याकांड से प्रेरित होकर लिखा गया था जिसमें प्रजातंत्र के लिए आन्दोलन कर रहे निहत्थे लोगों को दक्षिण कोरियाई सैनिकों (जिन्हें उत्तर कोरिया से लोहा लेने के लिए प्रशिक्षण दिया गया था और जो शायद युद्ध न होने की स्थिति में ऊब चुके थे) ने मौत के घाट उतारा था।
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