Moti Chune Hansa
Author:
Dr. Praveen "Tanmay"Publisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Unavailable
मोती चुने हंसा' काव्यकृति में प्रेम के जीवनदर्शन को प्रस्तुत किया गया है। प्रेम जीवन-सागर का ऐसा मोती है, जिसे भावुक और संवेदनशील स्वभाव वाला व्यक्ति पहचान लेता है। प्रारंभ में प्रेम शारीरिक प्रतीत होता है, लेकिन आगे चलकर पता चलता है कि यह नितांत आंतरिक और सूक्ष्म है। जीवन के सुख-दु:ख में हमें कई प्रकार से इसकी अनुभूति होती रहती है। प्रेम के क्षणों की तलाश ही जीवन-यात्रा का प्रमुख लक्ष्य है। जिस प्रकार हंस बाकी सब छोड़ केवल मोती ही चुगता है, उसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन के मूल्यवान क्षणों को अपनाकर आत्मसात् कर लेना चाहिए, क्योंकि प्रेम ही हमारे व्यक्तित्व को पूर्णता की ओर ले जाता है। यह कभी मिटता नहीं है। आत्मा की तरह अमर हो जाता है। पुनर्जन्म की संकल्पना इसी से जुड़ी है। और हाँ, प्रेम में देना ही है, लेना कुछ नहीं है। प्रेम समर्पण की भावना का आधार है। इसलिए हंस की तरह मोती चुनिए और जीवन को सार्थक बनाइए।
ISBN: 9789392012099
Pages: 150
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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इस भोगवादी समय में कलाकार की नियति से जुड़ा सफलता और सार्थकता का द्वन्द्व और भी तीखा हो गया है। यह द्वन्द्व इस आख्यान का एक मूलभूत आयाम है जिसके माध्यम से मनुष्य की नियति की खोज सम्भव होती है। यह खोज अन्ततः एक त्रासद सिम्फ़नी में समाप्त होती है।
रवीन्द्र वर्मा अपने क़िस्म के अनूठे रचनाकार हैं। कथ्य और शिल्प के मामले में परम्परा और आधुनिकता का जो सम्मिलन उनके इस नए उपन्यास में दिखाई देता है, वह अद्वितीय है।
साहित्य-समाज की मौजूदा तिक्तता और संत्रास तथा प्रकाशन और पुरस्कार की राजनीति को जानने-समझने का अवसर मुहैया करानेवाला अत्यन्त ज़रूरी उपन्यास।
Jism Jism Ke Log
- Author Name:
Shazi Zaman
- Book Type:

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Description:
“जब जिस्म सोचता, बोलता है तो जिस्म सुनता है।”
“आप तो बोलते भी हैं, सुनते भी हैं, लिखते भी हैं...”
“लिखता भी हूँ?” मैंने कहा।
एक कम्पन, एक हरकत-सी हुई तुम्हारे जिस्म में—जैसे मेरी बात का जवाब दिया हो।
“रूमानी शायर जिस्म पर भी जिस्म से लिखता है,’’ मैंने कहा।
“आप जिस्मानी शायर हैं!”‘जिस्म जिस्म के लोग’ बदलते हुए जिस्मों की आत्मकथा है। ‘जिस्म जिस्म के लोग’ में—और हर जिस्म में—बदलते वक़्त और बदलते ताल्लुक़ात का रिकॉर्ड दर्ज है।
“इतने वक़्त के बाद...,” तुमने मुझसे या शायद जिस्म ने जिस्म से कहा।
“कितने वक़्त के बाद?”
“जिस्म की लकीरों से वक़्त लिखा हुआ है।”
“दोनों जिस्मों पर वक़्त के दस्तख़त हैं,” मैंने कहा।
जिस्म पर वक़्त के दस्तख़त को मैंने उँगलियों से छुआ तो तुमने याद दिलाया—
“सूरज के उगने, न सूरज के ढलने से...
“वक़्त बदलता है जिस्मों के बदलने से।’”
दुनिया का हर इंसान अपना—या अपना-सा—जिस्म लिए घूम रहा है। उन्हीं जिस्मों को समझने, उन पर—या उनसे—लिखने और ‘जिस्म-वर्षों के गुज़रने की दास्तान है ‘जिस्म जिस्म के लोग’।
“बहुत जिस्म-वर्ष गुज़र गए...जिस्म जिस्म घूमते रहे!” मैंने कहा।
“तो दुनिया घूमकर इस जिस्म के पास क्यूँ आए?”
“जिस्मों जिस्मों होता आया”,
वक़्त के दस्तख़त पर मेरे हाथ रुक गए,
“अब ये जिस्म समझ में आया।”
Kisan
- Author Name:
Honore De Balzac
- Book Type:

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Description:
‘किसान’ (अंग्रेज़ी में ‘दि पीजशेंट्री’ और ‘संस ऑफ़ दि सॉयल’ नाम से प्रकाशित) ‘ह्यूमन कॉमेडी’ शृंखला के अन्तिम चरण की रचना है। इसकी गणना बाल्ज़ाक की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और परिपक्व कृतियों में की जाती है।
बाल्ज़ाक ने ‘ह्यूमन कॉमेडी’ की पूरी परियोजना के अन्तर्गत, अपने चार उपन्यासों में फ़्रांसीसी ग्रामीण जीवन के अन्तरंग और बहिरंग को चित्रित करते हुए, सामन्ती भूमि-सम्बन्धों के पूँजीवादी रूपान्तरण तथा आधुनिक पूँजीवाद के विकास में कृषि की भूमिका को, पूँजीवाद के अन्तर्गत गाँव और शहर के बीच लगातार बढ़ती खाई को, छोटे मालिक किसानों पर सूदख़ोर महाजनों की जकड़बन्दी को, शहरी और ग्रामीण महाजनी के फ़र्क़ को, कृषि में माल-उत्पादन के बढ़ते वर्चस्व और किसानी जीवन पर मुद्रा के आच्छादनकारी प्रभाव को तथा किसान आबादी के विभेदीकरण (डिफ़रेंसिएशन) और कंगालीकरण को जिस अन्तर्भेदी गहराई और चहुँमुखी व्यापकता के साथ प्रस्तुत किया है, वह आर्थिक इतिहास या समाज-विज्ञान की किसी पुस्तक में भी देखने को नहीं मिलता।
बाल्ज़ाक शहरी मध्यवर्गीय रोमानी नज़रिए से न तो कहीं ‘अहा, ग्राम्य-जीवन भी क्या है’ की आहें भरते नज़र आते हैं, न ही उन ‘काव्यात्मक सम्बन्धों’ और पुरानी संस्थाओं-सम्बन्धों-चीज़ों के लिए बिसूरते दीखते हैं जिन्हें पूँजी या तो लील जाती है, या पुनः संस्कारित करके अपना लेती है या फिर अजायबघरों में सुरक्षित कर देती है। इसके विपरीत वह ठहरे हुए ग्रामीण जीवन की कूपमंडूकतापूर्ण तुष्टि के प्रति वितृष्णा प्रकट करते हैं और उस मध्यवर्गीय शहरी नज़रिए की खिल्ली उड़ाते हैं जिसे ग्राम्य जीवन एक ख़ूबसूरत लेंडस्केप नज़र आता है।
एक ठंडी वस्तुपरकता के साथ बाल्ज़ाक गाँवों में व्याप्त पिछड़ेपन, अज्ञानता, विपन्नता, कूपमंडूकता, निर्ममता और उस अमानवीकरण की चर्चा करते हैं जो मन्थर गति वाले अलग-थलग पड़े ‘स्वायत्तप्राय’ ग्रामीण परिवेश के अपरिहार्य गुण हैं और गाँवों में पूँजी का प्रवेश इन्हें और निर्मम-निरंकुश बनाने का काम ही करता है। पश्चिमी दुनिया में कृषि में पूँजीवाद का प्रवेश सबसे क्रान्तिकारी ढंग से फ़्रांस और अमेरिका में हुआ। वहाँ के बूर्ज्वा जनवादी क्रान्ति के उत्तरकालीन परिदृश्य को चित्रित करते हुए बाल्ज़ाक ने दिखलाया है कि ग्रामीण जीवन वहाँ भी लगभग ठहरा हुआ सा है, भविष्य को लेकर कहीं कोई उत्साह नहीं है, बाहरी दुनिया से नाम-मात्र का सम्पर्क है, नए विचारों का प्रभाव नगण्य है। खेतिहर मज़दूर, छोटा मालिक किसान, रिटायर्ड फ़ौजी—सभी आत्मविश्वास से रिक्त, रामभरोसे जी रहे हैं। खेतों में भरपूर हाड़ गलाने के बावजूद कुछ भी हासिल नहीं होता। ग़रीबी, भूमिहीनता, ऋणग्रस्तता, कुपोषण, बीमारी, ग़रीबी के चलते ऊँची जन्म दर और ऊँची मृत्यु दर—विशेषकर शिशु मृत्यु दर तथा अन्धविश्वास और भाग्यवाद का चतुर्दिक बोलबाला है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसानों की स्थिति के हर पहलू को तफ़सील से देखते हुए बाल्ज़ाक किसान में समस्या के सारतत्त्व को पकड़ते हैं और बताते हैं कि सवाल भूस्वामित्व की सामन्ती व्यवस्था का नहीं है, बल्कि अपने आप में भू-स्वामित्व की पूरी व्यवस्था का ही है। सामन्ती भूस्वामी की जगह पूँजीवादी फ़ौजी जनरल या ऑपेरा गायिका के आ जाने से आम किसान की स्थिति में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। किसान की ख़ून-पसीने की कमाई के मुख्य अपहर्ता प्रायः सामने नहीं होते। वे बदलते रहते हैं, पर किसानों का रोज़मर्रे के जीवन में जिन बिचौलियों से साबका पड़ता है, उनकी स्थिति अपरिवर्तित रहती है।
किसान उपन्यास में बाल्ज़ाक रिगू-गोबर्तें गठजोड़ के रूप में व्यापारी-भूस्वामी-सूदख़ोर गठजोड़ की किसानों पर चतुर्दिक जकड़बन्दी की तस्वीर उपस्थित करते हैं और दिखलाते हैं कि किस तरह प्रशासन, न्याय, ऋण और व्यापार के पूरे तंत्र पर इस गिरोह का ऑक्टोपसी नियंत्रण क़ायम है। स्वयं बाल्ज़ाक के ही शब्दों में : ‘‘छोटे किसान की त्रासदी यह है कि सामन्ती शोषण से मुक्त होकर वह पूँजीवादी शोषण के जाल में फँस गया है।”
—सम्पादकीय आलेख से।
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