Ek Hathi Ka Safarnama
Author:
Jose SaramagoPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
दो साल से लिस्बन में रह रहे हाथी सोलोमन को अब एक लम्बे सफ़र पर जाना है। राजा डोम जुआँऊ तृतीय वियना के हैप्सबर्ग के एक आर्चदुक को उसे शादी के तोहफ़े के रूप में भेंट करना चाहता है। अपने नए ठिकाने तक पहुँचने के लिए हाथी को पैदल ही पहुँचना है। इस तरह शुरू होता है वह दिलचस्प सफ़र जो इस बहादुर हाथी को कास्टील के धूल-भरे मैदानों से होते हुए समुद्र पार जेनोआ और उत्तरी इटली तक ले जाएगा। वहाँ उसे बर्फीले आल्प्स को पार करना होगा जैसे सदियों पहले हानिबल के योद्धा हाथियों ने किया था।</p>
<p>यह उपन्यास एक सच्ची घटना पर आधारित है जिसमें लेखक ने तथ्यों, किंवदन्तियों और कल्पना का अद्भुत मिश्रण किया है।
ISBN: 9789360868840
Pages: 208
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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संसार में सम्पत्ति का, धन का कोई विकल्प नहीं है, मनुष्य ने सभ्य होने के क्रम में जब मुद्रा का आविष्कार किया होगा, तभी यह तय हो गया होगा कि अब कोई न किसी के बराबर होगा, और न कोई कहीं रुककर यह कह सकेगा कि अब बस, मेरी क्षुधा तृप्त हुई। अब कोई कितना भी जमा करके रख सकता था, और कितने भी और की लालसा में डूबा रह सकता था।
और यहीं उस दो बित्ता ज़मीन को हमारे पैरों के नीचे से निकल जाना था जिसे सुख कहते हैं, और जिस पर पाँव जमाकर आदमी कैसे भी झंझावात का सामना कर सकता था।
यह उपन्यास अस्तित्व के उसी आधार-सुख और धन की असीम लालसा के संघर्ष की कथा है। वनबिहारी और शकुन्तला का वह प्यार जिसने किराए के एक छोटे से कमरे में, छोटी-सी एक नौकरी के सहारे एक बड़ा सुख जिया था, बाद में बिजनेस की ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर ऊँची उड़ानें भरने लगा। धनाभाव के कारण अपने शिशु को गँवा चुकी शकुन्तला ने ठान लिया कि अब धन के ढेर लगाने हैं तो वनबिहारी ने भी अपना सारा कौशल अपना अलग बिजनेस बड़ा करने में लगा दिया। रास्ते अलग हो गए, और प्रेम कहीं का नहीं रह गया।
लेकिन अन्त में लक्ष्मी ने शकुन्तला की परीक्षा ली और वनबिहारी ने अपनी सम्पन्नता को कभी प्रेमिका रही शकुन्तला के लिए न्योछावर कर दिया, तो जीवन जैसे कई प्रश्न लेकर खड़ा हो गया। यही मर्म है वित्त की इस वासना का।
Dudiya : Tere Jalte Hue Mulk Mein
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Vishwash Patil
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शाश्वत सत्य यह था कि आदिवासी जंगल की सन्तान हैं। मगर वस्तुस्थिति यह थी कि उनमें से किसी के पास भी जंगल की जमीन का कोई पट्टा नहीं लिखा था। न ही उनमें इतनी समझ थी कि उस जमीन को अपने नाम लिखाकर रखें। अपने पूर्वजों की तरह वह उस जमीन पर खेती करते थे। जंगल से जीवन यापन करते थे। लेकिन साठ के दशक में अचानक वन अधिकारी नए नियम-कायदों की लाठी से लैस होकर वहाँ घुस गए। आदिवासियों को चूल्हे में जलाने के लिए, जंगलों की सूखी लकड़ियाँ बीनने तक से रोका जाने लगा। उनके भेड़-बकरियों को जंगल में चराने पर रोक लगा दी गई। आदिवासी स्तब्ध रह गए कि यह क्या! जहाँ वे अपना हक समझते थे, पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिन जंगलों में रहते थे, वहाँ किसका राज आ गया।
–इसी पुस्तक से
Ashoksundari
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बहुराष्ट्रीय निगमों की बढ़ती मौजूदगी और कॉरपोरेट दुनिया में कार्य-संस्कृति पर लगातार एक नैतिक मूल्य के रूप में ज़ोर दिए जाने के बावजूद भारतीय मध्यवर्ग की पहली पसन्द आज भी सरकारी नौकरी ही है, तो उसका सम्बन्ध, उस आनन्द से ही है जो ग़ैर-ज़िम्मेदारी, काहिली, अकुंठ स्वार्थ और भ्रष्टाचार से मिलता है; और हमारे स्वाधीन पचास सालों में सरकारी नौकरी इन सब ‘गुणों’ का पर्याय बनकर उभरी है। इन्हीं के चलते तबादला-उद्योग वजूद में आया तो आज दफ़्तरों से लेकर राजनेताओं के बँगलों तक, शायद बाक़ी कई उद्योगों से ज़्यादा, फल-फूल रहा है।
इस उद्योग की जिन बारीक डिटेल्स को हम बिना इसके भीतर उतरे, बिना इसका हिस्सेदार बने, नहीं जान सकते, उन्हीं को यह उपन्यास इतने तीखे और मारक व्यंग्य के साथ हमारे सामने रखता है कि हमें उस हताशा को लेकर नए सिरे से चिन्ता होने लगती है जो भारतीय नौकरशाही ने पिछले पचास सालों में आम जनता को दी है। इस उपन्यास का वाचक व्यंग्य के उस ठंडे कोने में जा पहुँचा है जहाँ ‘कोई उम्मीदबर नहीं आती’। उपन्यास पढ़कर हम सचमुच यह सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि अगर यह हताशा वास्तव में हमारे इतने भीतर तक उतर चुकी है तो फिर रास्ता है किधर!
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