Vichar Ka Aina : Kala Sahitya Sanskriti : Jawaharlal Nehru
Author:
Jawaharlal NehruPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
विचार का आईना शृंखला के अन्तर्गत ऐसे साहित्यकारों, चिन्तकों और राजनेताओं के ‘कला साहित्य संस्कृति’ केन्द्रित चिन्तन को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्होंने भारतीय जनमानस को गहराई से प्रभावित किया। इसके पहले चरण में हम मोहनदास करमचन्द गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारपरक लेखन से एक ऐसा मुकम्मल संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं जो हर लिहाज से संग्रहणीय है। </p>
<p>जवाहरलाल नेहरू ऐसे चिन्तक राजनेता हैं जिन्होंने भारत को आधुनिक विश्व परिदृश्य में एक समर्थ देश के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। जिनके दिखाए रास्ते पर आधुनिक भारत आगे बढ़ा। गांधी की अगुआई में स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय नेहरू लम्बे समय तक जेलों में रहे। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का सपना देखा जिसने दुनिया भर में भारत का मान बढ़ाया। उनके मन में भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और बहुलता के प्रति अथाह सम्मान था। आज जब भारत की सांस्कृतिक बहुलता को खंडित करने का सपना देखनेवाली राजनीतिक ताकतें मजबूत हुई हैं, ऐसे में हमें उम्मीद है कि नेहरू के कला, साहित्य और संस्कृति सम्बन्धी प्रतिनिधि निबन्धों की यह किताब भारत की सांस्कृतिक विरासत और बहुलता को दूर करने और उनकी अपरिहार्य आवश्यकता को समझाने में सहायक होगी।
ISBN: 9789392186820
Pages: 216
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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प्रोफ़ेसर कृष्णमुरारि मिश्र आधुनिक हिन्दी आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। हिन्दी में आद्यबिम्बात्मक आलोचना के प्रवर्तन का श्रेय उन्हें प्राप्त है। साहित्यिक कृतियों की संरचनात्मक गहनताओं की व्याख्या और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन के लिए उन्हें विशेष ख्याति मिली है। ‘आद्यबिम्ब और साहित्यालोचन’ शीर्षक उनका प्रस्तुत ग्रन्थ इस आलोचना के सिद्धान्त और सम्प्रयोग से सम्बद्ध है। ग्रन्थ में तीन शीर्षक ग्रंथित हैं—'आद्यबिम्ब', 'आद्यबिम्ब और साहित्यालोचन : आधार' तथा ' आद्यबिम्ब और साहित्यालोचन : स्वरूप'।
'आद्यबिम्ब' शीर्षक के अन्तर्गत आद्यबिम्ब की युगीय धारणा का सैद्धान्तिक विवेचन है। इसमें फ़्रायड और युग की धारणाओं के मूलभूत अन्तर का हिन्दी में पहली बार उद्घाटन है। साथ ही आद्यबिम्ब की युगीय धारणा का सारभूत आख्यान है जिसमें यौगपत्य के अल्पज्ञात वैज्ञानिक सिद्धान्त की भी चर्चा है। 'आद्यबिम्ब और साहित्यालोचन : आधार' शीर्षक से मुख्यतया युग के कला-चिन्तन का विवेचन है। आद्यबिम्बात्मक आलोचना की सैद्धान्तिकी के इस विवेचन से सिद्ध है कि युग का कला-चिन्तन हमारे भारतीय साहित्य-चिन्तन के लिए विजातीय नहीं है। वह भारतीय साहित्यशास्त्र के कालसिद्ध निकषों का पोषक है। युग की कलाविषयक धारणाएँ रससिद्धान्त और ध्वनिसिद्धान्त के बहुत निकट हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य-हेतु के रूप में प्रतिभा के जिस स्वरूप की स्थापना की गई है, वह सामूहिक अचेतन की युगीय धारणा के निकट है। सर्जक के व्यक्तित्व की असाधारणता को भारतीय आचार्यों के समान युग ने भी मुक्त कंठ से स्वीकार किया है। भारतीय आचार्यों के समान युग ने भी काव्य की लोकमंगलकारिणी शक्ति पर बल दिया है। उन्होंने सर्जक, भावक और समाज के सन्दर्भ में काव्य के माध्यम से जिस आत्मोपलब्धि का उल्लेख किया है, उसमें आनन्द और लोकमंगल दोनों का समावेश है। 'आद्यबिम्ब और साहित्यालोचन : स्वरूप' शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दी की आद्यबिम्बात्मक आलोचना के स्वरूप की सम्यक् विवृत्ति है।
आशा है, यह ग्रन्थ भी उनके पूर्व प्रकाशित ग्रन्थों की तरह हिन्दी में समादृत होगा।
Madhyayugeen Premakhyan
- Author Name:
Shyam Manohar Pandey
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Description:
श्याम मनोहर पाण्डेय की महत्त्वपूर्ण कृति है—‘मध्ययुगीन-प्रेमाख्यान’। जिस समय इस पुस्तक का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था, उस समय दाऊद कृत ‘चंदायन’, कुतुबन कृत ‘मृगावती’, ‘कदमराव पदम’ तथा कतिपय अन्य सूफ़ी प्रेमाख्यान प्रकाशित नहीं थे। असूफ़ी प्रेमाख्यानों में दयाल कवि कृत ‘शशिमाला कथा’, पुहुकर कृत ‘रसरतन’ आदि ग्रन्थ अप्रकाशित थे। प्रस्तुत संस्करण में इन सबका उपयोग कर लिया गया है। अवधी के विकास में सूफ़ियों ने क्या योगदान किया है, इस सम्बन्ध में इस संस्करण में अधिक विस्तार से विचार किया गया है। पुस्तक के अन्त में एक विशद् ग्रन्थ-सूची भी जोड़ दी गई है, जिससे सूफ़ी तथा असूफ़ी साहित्य के अनुसन्धानकर्ताओं को सुविधा हो सके।
आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के शब्दों में, “डॉ. पाण्डेय ने अपने अनुसन्धान का काम बड़े परिश्रम के साथ किया है और उसे उपयुक्त रूप प्रदान करने की सफल चेष्टा भी की है। उन्होंने उसके महत्त्वपूर्ण विषय का अध्ययन करते समय यथासम्भव मूल फ़ारसी ग्रन्थों का उपयोग किया है तथा भरसक इस बात की भी चेष्टा की गई है कि कोई बात भ्रमात्मक न रह जाए। जहाँ तक पता है, इस विषय पर अभी तक कोई शोध-कार्य नहीं किया गया था और न इतने सम्यक् रूप में विचार करके उसका परिणाम प्रस्तुत किया गया था। यह पुस्तक इस दृष्टि से एक नवीन प्रयास है और इसके साथ-साथ अपने ढंग से एक आदर्श उपस्थित करती है।”
डॉ. पाण्डेय ने समस्त मूल स्रोतों का मन्थन करके जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे महत्त्वपूर्ण हैं। इन निष्कर्षों के सहारे सूफ़ी एवं असूफ़ी प्रेमाख्यानों के अध्ययन के सम्बन्ध में रुचि-सम्पन्न पाठकों को एक नया एवं अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण मिलता है।जैसा कि डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का कथन है, “डॉ. पाण्डेय का यह शोध-ग्रन्थ प्रथम कोटि का है। इसमें डॉ. पाण्डेय ने अन्य सम्बन्धित सामग्री के साथ संस्कृत एवं फ़ारसी में प्राप्त सामग्री का भी पूरी तरह उपयोग किया है। फलतः उनके निष्कर्ष बड़े मूल्यवान हैं। निश्चित रूप से यह हिन्दी साहित्य को डॉ. पाण्डेय की महत्त्वपूर्ण देन हैं।”
Rashtrakavi Kuvempu
- Author Name:
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- Description: English translation by H S Komalesha of Prabhushankara's Kannada monograph.
Chitralekha Ka Mahatva
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Madhuresh
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Description:
अपने प्रकाशन के लगभग तत्काल बाद से ही 'चित्रलेखा' किसी-न-किसी रूप में चर्चा और विवादों में रही है। लेकिन उसका खुमार आज भी बना हुआ है। जैसा कि प्राय: कोई न ज़मीन तोड़नेवाली हर रचना के साथ होता है, वह अपने साथ अनेक प्रश्नों और विवादों को भी लेकर आती है। 'चित्रलेखा' के साथ भी यह सच है। एक ओर यदि वैचारिक धरातल पर भगवतीचरण वर्मा और उनकी रचना का विरोध हुआ, वहीं कभी उनके स्त्री पात्रों, कभी बीजगुप्त के प्रेम-दर्शन और जीवन-पद्धति को आधार बनाकर लेखक पर अनेक सवाल उठाए गए।
किसी भी रचना पर विचार और मूल्यांकन की प्रक्रिया में पहला काम उस रचना को वस्तुपरकता के साथ देखना और समझना है। ‘चित्रलेखा’ को सम्पूर्णता में समझने के लिए यहाँ बहुत से ऐसे पक्षों पर लिखवाया गया है जिनके बिना उसका कोई भी मूल्यांकन अधूरा होगा। यहाँ जो सामग्री संकलित है, उसके माध्यम से ‘चित्रलेखा’ को समूचे परिप्रेक्ष्य में अधिक पूर्णता से समझा जा सकेगा।
Basant Aa Gaya Par Koi Utkantha Nahin
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- Description: बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं निबंध मन की जिस तरंगायित अभिव्यक्ति का नाम है, श्री विद्यानिवास मिश्र के ये निबंध अत्यन्त सच्चाई और सूक्ष्मता के साथ इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। पं. रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद हिन्दी निबंध को लोक तत्त्व और परम्परा की गहन अनुभूति से समृद्ध करने वाला तीसरा नाम पं. विद्यानिवास मिश्र का ही है। इन निबंधों में विषय तो मात्र एक 'बहाना' है। उस बहाने से निबंधकार आधुनिक जीवन की भीतरी विसंगतियों को बड़ी सूक्ष्मता से उजागर करता है। उसकी भाषा लोकोन्मुखी होने के साथ-ही-साथ संस्कृत और पाश्चात्य साहित्य के गहरे अध्ययन से अत्यन्त काव्यमयी हो उठी है। भाषा की इस काव्यमयता के भीतर ही जीवन के वे छलछलाते प्रसंग छिपे हैं जो बार-बार निबंधकार को एक 'मुक्त आवेश' की सृष्टि करने को विवश करते हैं। लेखक के व्यक्तित्व और अभिव्यक्ति से सन्निहित यह 'मुक्त आवेश' ही उनके निबंधों को उस नैतिक अनुशासन से समृद्ध करता है जो हर आधुनिक लेखन की पहली शर्त है। आधुनिक हिन्दी साहित्य में जब गद्य की अन्य विधायें आज अधिक प्रमुख और महत्त्वपूर्ण मानी जाने लगी हैं, यह निबंध-संग्रह निबंध-विधा को पुनरुज्जीवित करने का एक महत्त्वपूर्ण और सफल प्रयास है।
Vibhajan Ki Vibheeshika
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- Description: भारत का विभाजन विश्व के सबसे बड़े नरसंहार के रूप में हिंदुओं और सिखों की महिलाओं की छाती पर हुआ। इसमें 30 लाख से अधिक लोगों की नृशंस हत्या हुई। विभाजन के समय हिंदू और सिख पुरुषों को एक लाइन में खड़ा करके पाकिस्तानी सेना ने गोलियों से भून दिया। एक लाख से अधिक महिलाओं का अपहरण व बलात्कार करके अधिकांश को मौत के घाट उतार दिया गया | उनकी संपत्ति को हड़प लिया अथवा उसे आग के हवाले कर दिया । विश्व में यह एकमात्र ऐसा उदाहरण है, जब करोड़ों की जनसंख्या का विनिमय बिना किसी योजना एवं पूर्व प्रबंधों के अचानक कर दिया गया। पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित इन दंगों में 1.5 करोड़ लोग विस्थापित हुए। विभाजन का यह काला अध्याय विस्थापित हुए, भगाए गए, मारे गए और भटककर मौत को गले लगानेवाली मनुष्यता के खून के छींटों से भरा हुआ है। यह इतिहास के चेहरे पर पुती वह कालिमा है, जिसे कभी साफ नहीं किया जा सकेगा। इसका दंश इस पीढ़ी ने झेला, पर उसका दर्द और मार वहाँ से विस्थापित हुए परिवार आज भी झेल रहे हैं। विभाजन का दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह है कि इसके लिए उत्तरदायी नेता अपने इस अमानवीय कुकृत्य के लिए कभी शर्मिंदा नहीं हुए, बल्कि विभीषिका को “रक्तहीन क्रांति' कहकर स्वयं को गौरवान्वित करते रहे । इन्हीं खून के धब्बों की लोमहर्षक घटनाओं पर उकेरा गया है यह अत्यंत मर्मस्पर्शी एवं संवेदनशील उपन्यास--'विभाजन की विभीषिका ।
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