Shakuntika : Srijan Aur Drishti
Author:
Anil SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 556
₹
695
Available
ख्यात उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल के उपन्यास ‘शकुंतिका’ पर केन्द्रित आलोचना-पुस्तक उनकी रचनाधर्मिता की सार्थकता को रेखांकित करने का गम्भीर प्रयास है। इसके साथ ही यह इस उपन्यास के बहाने भारतीय समाज में मौजूद पितृसत्तात्मक मानसिकता और पुरुषवादी वर्चस्व के दुष्परिणामों तथा स्त्री-पुरुष समानता की महत्ता को समझने-समझाने का उपक्रम भी है।</p>
<p>‘शकुंतिका’ में उपन्यासकार ने न केवल बेटियों के प्रति हमारे समाज में मौजूद रूढ़िवादी धारणाओं को दिखलाया है, बल्कि समय के साथ उन धारणाओं में आ रहे सकारात्मक बदलाव को भी रेखांकित किया है। उनकी इस रचना-दृष्टि को यह पुस्तक रूढ़िवादी मान्यताओं के बरअक्स विश्वास की परम्परा के निर्माण के रूप में परिभाषित करती है। यह दिखलाती है कि किसी भी समाज के लिए केवल आदर्श विचारों का होना पर्याप्त नहीं है। उन्हें व्यावहारिक रूप में लागू किए बग़ैर वास्तविक प्रगति नहीं हो सकती। ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ की सूक्ति सँजोने के बावजूद हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति सामाजिक भेदभाव और लैंगिक असमानता के बने रहने का यही कारण है। इस सन्दर्भ में यह पुस्तक सामाजिक-सांस्कृतिक उत्थान के लिए आवश्यक जीवन-मूल्यों के प्रति रचनात्मक आग्रह को भी सप्रमाण रेखांकित करती है।</p>
<p>निस्सन्देह, यह पुस्तक हिन्दी साहित्य के अध्येताओं के साथ-साथ सुधी पाठकों के लिए भी एक संग्रहणीय है।
ISBN: 9788194833574
Pages: 248
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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हिन्दी में सर्जनात्मक काव्यालोचन का प्राय: अभाव रहा है, जिससे आलोचना की सर्जनात्मक मौलिकता अब तक स्थापित-प्रतिष्ठित नहीं हो पाई है। अभाव-रूपी इस अफाट सन्नाटे को भंग करनेवाली डॉ. ‘शीतांशु’ की यह पुस्तक ऐसी पहली सहृदय-संवेद्य, प्रगुणात्मक पुस्तक है, जिसमें लेखक ने 28 हिन्दी कविताओं के काव्यमर्म तथा अन्तर्न्यस्त साभिप्रायता को उद्घाटित-विवेचित किया है।
कविता का विवेचन उसकी सर्जनात्मक सार्थकता का विवेचन होता है। यह सार्थकता भावकीय प्रतिभा से कविता की कलावटी गाँठों को खोलते हुए उसके अर्थ-गह्वर में प्रवेश करने से सम्भव हो पाती है। हिन्दी काव्यालोचन अब तक अपनी लक्ष्मण-रेखा में घिरा रहा है। वह प्रवृत्तिगत, विकासात्मक, सैद्धान्तिक और वादारोपित बहस-मुबाहसे से ग्रस्त-सा है। मार्क्सवादी आलोचना को तो अपनी एकरसता में किसी भी कविता की आन्तर गहराई में उतरने से प्राय: परहेज़ ही रहा है, जिसके कारण कविता का भावन और बोधन केवल सामाजिक यथार्थ की अभिधेयात्मकता तक सीमित-प्रतिबन्धित रह गया है, जबकि उसमें अशेष प्रतीयमान, सर्जनात्मक साभिप्रायता विद्यमान होती है। यहाँ तक कि इसमें मार्क्सवादी सामाजिक यथार्थ की अनेकानेक परतें भी समाविष्ट रहती हैं।
ऐसे में प्रतीयमान आभ्यन्तर को उद्घाटित करनेवाली यह वह प्रतीक्षित आलोचना-कृति है, जो स्थापित करती है कि कविता की सही पहचान-परख उसके तलान्वेषित कथ्यों और अर्थच्छवियों की बहुआयामिता पर निर्भर है।
कहना होगा कि कविताओं की साभिप्राय पुनस्सर्जना के माध्यम से काव्यलोचन के नए क्षितिज का सन्धान और दिशा-निर्देश करनेवाली यह पुस्तक अब तक की निर्धारित लक्ष्मण-रेखा के बाहर जाकर हिन्दी काव्यालोचन को समृद्ध करती है। साथ ही नई आलोचकीय प्रतिभाओं को इस दिशा में सक्रिय होने हेतु आमंत्रित भी करती है। हिन्दी आलोचना में कविता के पाठकों और आलोचकों को संवेदन-समृद्ध करनेवाली एक अत्यन्त उपयोगी एवं पठनीय पुस्तक।
Dhoop Chhanh
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

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‘धूपछाँह’ हिन्दी साहित्य में अपने ढंग की एक दुर्लभ कृति है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा समय-समय पर दूसरी भाषाओं की रचनाओं से प्रेरित हो किशोरों के लिए लिखी गई इन कविताओं में ओजस्विता तो है ही, प्रांजल प्रवाहमयी भाषा, उच्चकोटि का छंद-विधान और भाव-सम्प्रेषण भी अद्भुत है।
राष्ट्रकवि ने अपनी इन कविताओं की पृष्ठभूमि के बारे में लिखा है—“ ‘धूपछाँह’ में धूप कम और छाया अधिक है। इसकी सोलह कविताओं में से दो (‘दो बीघा ज़मीन’ और ‘पुरातन भृत्य’) के मूल लेखक रवि बाबू, दो (‘तन्तुवाय’ और ‘तीन दर्द’) की मूल लेखिका श्रीमती सरोजिनी नायडू और एक (‘नींद’) के मूल लेखक गॉड्फ्रे नामक एक पाश्चात्य कवि हैं। ‘बच्चे का तकिया’ और ‘वर-भिक्षा’ सत्येन्द्रनाथ दत्त की बांग्ला कविताओं से ली गई हैं, मगर इनके मूल रचयिता, क्रमशः मार्सेलिन बाल्मोर और नगूची हैं। ‘पानी की चाल’ नामक रचना भी सर्वथा मौलिक नहीं कही जा सकती, क्योंकि यह रॉबर्ट सदी और अकबर इलाहाबादी के अनुकरण पर लिखी गई है। ‘कवि का मित्र’ रचना भी, जिसने मेरे कितने ही घनिष्ठ मित्रों को सिर खुजलाते हुए कुछ सोचने को लाचार किया है, सोलह आना मेरी ही स्वानुभूति नहीं है। ऐसे चरित्र का वर्णन दो-एक अंग्रेज़ी लेखकों और कवियों ने भी किया है जिनमें एक का नाम जॉन गॉड्फ्रे सैक्से है। इसी प्रकार ‘रौशन बे की बहादुरी’ का प्लॉट लांगफेलो की एक कविता से लिया गया है।”
इस तरह देखें तो पुस्तक में संकलित रचनाएँ अपने कैनवस पर अपने विविध रंगों में परिचित दुनिया की आत्मीय और अविस्मरणीय रचनाएँ हैं। निस्सन्देह, राष्ट्रकवि दिनकर की यह कृति युवा पीढ़ी को एक नया सन्देश देगी, देती रहेगी।
Reetikaleen Kaviyon Ki Prem-Vyanjana
- Author Name:
Bachchan Singh
- Book Type:

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साहित्य का कोई काल-खंड अपने आप में स्वतन्त्र इकाई नहीं होता, उसका एक परिवर्तनमान नैरन्तर्य होता है, परम्परा होती है। रीतिकाल की मुख्यधारा पर, विशेषतः जिसे रीतिबद्ध कहा जाता है, आचार्य शुक्ल ने तीखी टिप्पणियाँ जड़ी हैं। शुक्लजी की देखा-देखी उनके आलोचकों ने उसे प्रतिक्रियावादी साहित्य की संज्ञा से अभिहित किया। कुछ अन्य लोगों ने उसकी प्रतिरक्षा में दलीलें खड़ी कीं। इसका फल यह हुआ कि रीतिकाव्य- रीतिमुक्त काव्य का चित्र धुंधलके से ढंक गया। यदि इसे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा देशभाषा-काव्य (भक्तिकाव्य) की परम्परा में देखा गया होता, आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से परखा गया होता, सामन्ती परिवेश के अन्तर्विरोध के परिप्रेक्ष्य में, लक्षित किया गया होता तो इस काल के क्लासिक का मूल्यांकन अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता। कहना न होगा कि इस काल को इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की गयी है।
बदले हुए सामन्ती परिवेश में कविता का लक्ष्य ही बदल गया था। एक समय था, जब कहा गया–‘कीन्हे प्राकृतजन गुनगाना सिर धुन गिरा लागि पछताना।’ ‘सन्तन को कहाँ सीकरी सों काम आवत-जात पनहियाँ टूटीं बिसरि गयो हरिनाम।’ एक समय आया, जब कहा जाने लगा–‘हुकुम पाइ जयसाहि कै...।’ ‘ठाकुर सो कवि भावत मोंहि जो राजसभा में बड़प्पन पावै / पंडित और प्रवीनन को जोइ चित्त हरै सो कवित्त बनावै।’ इस चित्तवृत्ति का प्रभाव कविता पर पड़ना ही पड़ना था। लेकिन इन कविताओं में प्रेम का उदात्त और अनुदात्त, दोनों प्रकार का चित्रण है। इसकी परम्परा सूर के काव्य में ही मिल जाती है। प्रेम के प्रति जैसी बेचैनी घनानन्द, ठाकुर, बोधा में मिलती है, वैसी बेचैनी, मीरा को छोड़, समस्त भक्ति-काव्य में नहीं मिलेगी। सामाजिक नैतिकता, छद्म, अस्पृश्यता, आदि पर भी इसमें पहली बार प्रकाश डाला गया है।
बिम्बों, प्रतीकों, अलंकारों, विशेषणों, शब्दार्थ के बदलावों के सन्दर्भ में भी प्रेम के विरोधात्मक आयामों को विवेचित किया गया है। वेश-भूषा भी प्रेम की भाषा है। इस पर अलग से विचार किया गया है। लोक में प्रचलित तीज- त्योहार, ऋतु-उत्सव, आदि जितने मनोयोगपूर्वक इस काल की कविताओं में वर्णित हैं, अन्यत्र नहीं मिलेंगे। आधुनिक काव्य में लोकोत्सव-चित्रण की निरन्तर कमी होती जा रही है। रीतिकालीन काव्य से बहुत कुछ छोड़ा जा सकता है तो बहुत कुछ सीखा भी जा सकता है।
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