
Reetikaleen Kaviyon Ki Prem-Vyanjana
Publisher:
Rajkamal Prakashan Samuh
Language:
Hindi
Pages:
459
Country of Origin:
India
Age Range:
18-100
Average Reading Time
918 mins
Book Description
<span style="font-weight: 400;">साहित्य का कोई काल-खंड अपने आप में स्वतन्त्र इकाई नहीं होता, उसका एक परिवर्तनमान नैरन्तर्य होता है, परम्परा होती है। रीतिकाल की मुख्यधारा पर, विशेषतः जिसे रीतिबद्ध कहा जाता है, आचार्य शुक्ल ने तीखी टिप्पणियाँ जड़ी हैं। शुक्लजी की देखा-देखी उनके आलोचकों ने उसे प्रतिक्रियावादी साहित्य की संज्ञा से अभिहित किया। कुछ अन्य लोगों ने उसकी प्रतिरक्षा में दलीलें खड़ी कीं। इसका फल यह हुआ कि रीतिकाव्य- रीतिमुक्त काव्य का चित्र धुंधलके से ढंक गया। यदि इसे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा देशभाषा-काव्य (भक्तिकाव्य) की परम्परा में देखा गया होता, आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से परखा गया होता, सामन्ती परिवेश के अन्तर्विरोध के परिप्रेक्ष्य में, लक्षित किया गया होता तो इस काल के क्लासिक का मूल्यांकन अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता। कहना न होगा कि इस काल को इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की गयी है। </span></p> <p><span style="font-weight: 400;">बदले हुए सामन्ती परिवेश में कविता का लक्ष्य ही बदल गया था। एक समय था, जब कहा गया–‘कीन्हे प्राकृतजन गुनगाना सिर धुन गिरा लागि पछताना।’ ‘सन्तन को कहाँ सीकरी सों काम आवत-जात पनहियाँ टूटीं बिसरि गयो हरिनाम।’ एक समय आया, जब कहा जाने लगा–‘हुकुम पाइ जयसाहि कै...।’ ‘ठाकुर सो कवि भावत मोंहि जो राजसभा में बड़प्पन पावै / पंडित और प्रवीनन को जोइ चित्त हरै सो कवित्त बनावै।’ इस चित्तवृत्ति का प्रभाव कविता पर पड़ना ही पड़ना था। लेकिन इन कविताओं में प्रेम का उदात्त और अनुदात्त, दोनों प्रकार का चित्रण है। इसकी परम्परा सूर के काव्य में ही मिल जाती है। प्रेम के प्रति जैसी बेचैनी घनानन्द, ठाकुर, बोधा में मिलती है, वैसी बेचैनी, मीरा को छोड़, समस्त भक्ति-काव्य में नहीं मिलेगी। सामाजिक नैतिकता, छद्म, अस्पृश्यता, आदि पर भी इसमें पहली बार प्रकाश डाला गया है।</span></p> <p><span style="font-weight: 400;">बिम्बों, प्रतीकों, अलंकारों, विशेषणों, शब्दार्थ के बदलावों के सन्दर्भ में भी प्रेम के विरोधात्मक आयामों को विवेचित किया गया है। वेश-भूषा भी प्रेम की भाषा है। इस पर अलग से विचार किया गया है। लोक में प्रचलित तीज- त्योहार, ऋतु-उत्सव, आदि जितने मनोयोगपूर्वक इस काल की कविताओं में वर्णित हैं, अन्यत्र नहीं मिलेंगे। आधुनिक काव्य में लोकोत्सव-चित्रण की निरन्तर कमी होती जा रही है। रीतिकालीन काव्य से बहुत कुछ छोड़ा जा सकता है तो बहुत कुछ सीखा भी जा सकता है।</span>