'Rag Darbari' Ka Mahatva
Author:
MadhureshPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 320
₹
400
Available
श्रीलाल शुक्ल-कृत ‘राग दरबारी’ एक ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है। निसंग और सोद्देश्य व्यंग्य के साथ लिखा गया हिन्दी का शायद यह पहला उपन्यास है। फिर भी ‘राग दरबारी’ व्यंग्य कथा नहीं है। इसका सम्बन्ध एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे हुए गाँवों की ज़िन्दगी से है, जो वर्षों की प्रगति और विकास के नारों के बावजूद निहित स्वार्थों और अवांछनीय तत्त्वों के सामने घिसट रही है।</p>
<p>1968 में पहली बार प्रकाशित ‘राग दरबारी’ के विचार और मूल्यांकन की वस्तुपरकता के साथ देखना और परखना आवश्यक है। इस उपन्यास को पूरी तरह समझने के लिए पुस्तक के सभी पक्षों पर लेख बटोरे गए हैं। जिनके माध्यम से ‘राग दरबारी’ समूचे परिवेश में अधिक पूर्णता के साथ समझा जा सकेगा।
ISBN: 9788180319860
Pages: 231
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
Recommended For You
Hindi Ka Gadhyaparv
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

-
Description:
नामवर सिंह न सीमित अर्थों में साहित्यकार थे और न आलोचक। वे हिन्दी में मानवतावादी, लोकतांत्रिक और समाजवादी विचारों की व्यापक स्वीकृति के लिए सतत संघर्षशील प्रगतिशील आन्दोलन के अग्रणी विचारक थे।
यह पुस्तक साक्ष्य है नामवर जी के लेखन-जीवन का—एक दस्तावेज़ी साक्ष्य। इसमें उनका पहला प्रकाशित निबन्ध है और अन्तिम निबन्ध ‘द्वा सुपर्णा...’ और ‘पुनर्नवता की प्रतिमूर्ति’ भी।
पूर्व प्रकाशित ख्यातिनाम और लोकप्रिय पुस्तकों के बावजूद इस तरह की पुस्तक का विशेष महत्त्व इसलिए भी है कि इस एक अकेली पुस्तक में नामवर जी की विकास-यात्रा के प्राय: सभी पड़ावों की झलक मौजूद है। निबन्धों के लेखन-काल की ही तरह उनके विषय भी विस्तृत क्षेत्र में फैले हैं। परन्तु इस पुस्तक के केन्द्र में है—आलोचना। वैश्विक पृष्ठभूमि वाले आलोचकों जॉर्ज लूकाच, लूसिएँ गोल्डमान और रेमंड विलियम्स से लेकर भारतीय परम्परा को पुनर्नवा करनेवाले गौरव नक्षत्रों—आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और डॉ. रामविलास शर्मा पर लिखे गए निबन्ध यहाँ एक साथ मौजूद हैं। दीर्घ सक्रियता की अवधि में नामवर जी ने पुस्तक समीक्षाएँ प्राय: नहीं लिखीं। इस पुस्तक में अलग-अलग अवसरों पर लिखी गईं पाँच समीक्षाएँ भी मौजूद हैं।
Tulsi-Kavya Mein Sahityik Abhipray
- Author Name:
Janardan Upadhyay
- Book Type:

-
Description:
भक्ति कविता स्वयं में साहित्यिक परम्परा से जुड़ी प्रतिबद्ध भारतीय आध्यात्मिक कविता ही है और अब उन आलोचकों की मान्यताएँ ख़ारिज हो चुकी हैं जो कबीर तथा तुलसीदास जैसे श्रेष्ठतम काव्य सर्जकों को साहित्येतर श्रेणी में रखते रहे हैं।
तुलसी की आध्यात्मिक कविता की व्याख्या केवल उनके द्वारा अभिव्यक्त भावात्मक संवेदनाओं से ही न की जाकर उन सन्दर्भों से भी किया जाना अपेक्षित है—जो साहित्य एवं सर्जन के संरचनात्मक मानदंड के रूप में परम्परा में जाने जाते रहे हैं—और जिनको कलात्मक परम्परा के कवियों यथा—कालिदास, भारवि, श्रीहर्ष आदि ने अपनाया है। ये मानदंड हैं, साहित्यिक अभिप्राय अर्थात् कवि के कल्पना प्रसूत कलात्मक मानक जैसे—विविध प्रकार के कवि समय, काव्य रूढ़ियाँ, काल्पनिक कथाएँ, अलंकार विधान की प्रचलित उपमान तथा उपमेय परम्पराएँ आदि।
गोस्वामी तुलसीदास अपनी व्यक्ति काव्य-प्रतिमा के प्रति विनयोक्ति जैसा भाव प्रगट करते हुए भी भारतीय कविता की शास्त्रीय परम्पराओं की वे उपेक्षा नहीं करते। इन सबके लिए मानस में वे 'काव्य प्रौढ़ि' एवं ‘काव्य छाया’ शब्दों का प्रयोग करके इंगित करते हैं कि भारतीय कविता की वैभवमयी परम्परा को त्याग कर कविता का सर्जन किसी भारतीय कवि के लिए सम्भव नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन का गन्तव्य इसी सन्दर्भ को स्पष्ट करना रहा है कि तुलसी जैसे श्रेष्ठ आध्यात्मिक कवि की कविता भी भारतीय कविता की कलात्मक परम्परा से पूरी तरह जुड़ी है और उसे किसी भी तरह से धार्मिक साहित्य की श्रेणी में रखकर एकांगी एवं संकीर्ण नहीं बनाया जाना चाहिए। आध्यात्मिक कविता के श्रेष्ठतम मानक भारतीय कविता तथा कला के मानक हैं—और उन्हीं से हम भारतीयों की पहचान भी सम्भव है।
—डॉ. योगेन्द्र प्रताप सिंह
Relevance of Savarkar Today
- Author Name:
Ashok Modak
- Book Type:

- Description: Swatantryaveer Vinayak Damodar Savarkar (1883-1966) was a multidimensional personality - a freedom fighter, social reformer, writer, poet, historian, political leader and philosopher all combined into one. Savarkar's ideas of modernity, social and religious reforms, cultivation of scientific temper and embracing technological tools continue to be relevant in the 21st century. "Relevance of Savarkar Today", 25 pearls of visionary wisdom by Veer Sawarkar, is the product of deep study and research by Dr Ashok Modak. Savarkar's quotations, the author's expert comments and nearly 60 supportive comments by senior political leaders, social reformers, and intellectuals in 25 chapters illustrate the relevance of following the visionary messages of Savarkar for a new India of the 21st century. Bring out a solid, cohesive social fabric through unity Hindutva embraces the whole being of the Hindu race Brave foreign policies for the total defence of India Strong India for the real happiness of humanity.
Keshavdas
- Author Name:
Vijaypal Singh
- Book Type:

-
Description:
केशवदास ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी ही के प्रथम आचार्य नहीं हैं, वरन् प्रौढ़ता, व्यापकता एवं मौलिकता की दृष्टि से वे रीतिकाल के भी सर्वश्रेष्ठ आचार्य हैं। वे रीतिकाल के युग-निर्माता साहित्यकार हैं। समस्त रीतिकाल में केशव के समान व्यापक अध्ययन, गहरी एवं मौलिक दृष्टि वाला अन्य आचार्य दिखाई नहीं देता।
केशव के महत्त्व को व्याख्यायित करनेवाले प्रस्तुत ग्रन्थ को सम्पादित करते समय विद्वान सम्पादक ने रीतिकालीन साहित्य के मूर्धन्य विद्वानों और आलोचकों का सहयोग प्राप्त किया है। पूरी पुस्तक का संयोजन इस तरह किया गया है, जिससे अध्येताओं और शोधार्थियों के साथ छात्रों को केशवदास और उनके काव्य अवदान का सम्पूर्ण ज्ञान एक जगह उपलब्ध हो जाए। आचार्य केशवदास सम्बन्धी अध्ययन के क्षेत्र में प्रस्तुत पुस्तक एक बड़े अभाव की पूर्ति करती है।
Adhunik Vishwa Sahitya Aur Siddhant
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

-
Description:
आधुनिक आलोचक का समकाल सिर्फ देशी या राष्ट्रीय परिदृश्य से ही परिभाषित नहीं होता। इसमें वैश्विक परिदृश्य भी शामिल होता है। सम्भवतः यही कारण है कि नामवर सिंह लगातार आधुनिक विश्व साहित्य और सिद्धान्तों के सम्पर्क में रहे। उनसे संवाद करते रहे। इस पुस्तक में ऐसे कुछ निबन्ध शामिल हैं, जिनसे इस संवाद की बुनियादी प्रवृत्तियों को समझा जा सकता है।
इनमें सबसे पहले तो यही बात ध्यान खींचती है कि नामवर जी ने ‘आधुनिक विश्व’ का अर्थ ‘यूरोप’ या ‘अमरीका’ तक सीमित नहीं किया है। ‘विश्व’ और ‘विश्व साहित्य’ को परिभाषित करते हुए उन्होंने जगह-जगह यूरोपीय राष्ट्रों की अमानवीय क्रूरताओं को संकेतित करनेवाले उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद जैसे पदों का प्रयोग किया है औरएशियाई, अफ्रीकी और लैटिन अमरीकी साहित्य के ब्योरे दिये हैं। जगह-जगह प्रमुख प्रवृत्तियों, लेखकों और रचनाओं का विशेष इन्दराज है और उन पर आत्मीय आलोचनात्मक टिप्पणियाँ हैं। प्रमुख लेखकों पर टिप्पणियाँ करते समय उन्होंने विश्व में उनकी लोकप्रियता या प्रभाव की तुलना में स्थानीय और राष्ट्रीय समाजों में उनके हस्तक्षेप को ज्यादा महत्त्व दिया गया है।
यह भी दिखाई देता है कि अनेक लोकप्रिय और मान्य लेखकों, आलोचकों और सिद्धान्तकारों की मान्यता और लोकप्रियता से वे अनाक्रान्त रहते हैं। भारतीय परम्परा और आधुनिक भारतीय लेखन की ठोस जमीन पर जमे उनके पाँव उन्हें ‘बाहरी’ को अपनाने और उसका मुग्धताहीन मूल्यांकन करने का विवेक और साहस देते हैं।
ये निबन्ध विश्व साहित्य और सिद्धान्तों से एक भारतीय विचारक-आलोचक का गहरा संवाद है। यह एक ऐसा भारत है जहाँ विश्व एक सच्चे साथी के रूप में मौजूद रहता है। यह भारत उस दुनिया का हिस्सा है, जहाँ कोई भी मुल्क, कोई भी समाज विश्व से अलग हो कर नहीं रह सकता। एक साथी विश्व है तो दूसरी ओर शोषक विश्व। एक ओर अपनेपन से भरा विश्व है तो दूसरी ओर पराया बनाये रखनेवाला विश्व। एक ओर जनवादी विश्व है तो दूसरी ओर जनशत्रु विश्व। हिन्दी में पगा-डूबा एक आलोचक जब ऐसे विश्व में उतरता है तो वह एकतान नहीं हो सकता। उसे प्रतिपल एक जटिल, बहुस्तरीय, बहुआयामी विश्व-यथार्थ से सामना करना पड़ता है। इन निबन्धों में हम ऐसे ही नामवर को देखते हैं।
Hindi Aalochana Aur Bhaktikavya
- Author Name:
Rustam Roy
- Book Type:

-
Description:
‘हिन्दी आलोचना और भक्तिकाव्य’ में रुस्तम राय ने हिन्दी आलोचना के मूल्य-निर्माण की प्रक्रिया, काव्य में लोकमंगल की अवधारणा और उसका संधान, सौन्दर्यानुभूति की पहचान, भक्तिकाव्य की सामाजिक भूमिका, काव्यानुभूति की विशुद्धता और भक्तिकाव्य की प्रगतिशीलता पर विस्तार-पूर्वक विचार किया है। उन्होंने हिन्दी आलोचना के मूल्य-निर्माण की प्रक्रिया के साथ-साथ हिन्दी आलोचकों के भक्तिकाव्य विषयक मूल्यांकन को विस्तृत रूप से प्रस्तुत करते हुए अपने मौलिक विचार भी प्रकट किए हैं। एक प्रकार से हिन्दी आलोचना और भक्तिकाव्य, दोनों पर इस किताब में पुनर्विचार का प्रयत्न है और भक्तिकाव्य से हिन्दी आलोचना के अंतरंग सम्बन्ध की नई व्याख्या भी। लेखक ने सगुण-निर्गुण और उसके सामाजिक आधारों पर विचार करते हुए न केवल भक्त कवियों के आन्तरिक द्वन्द्व को बल्कि आलोचकों के मतों के अन्तर्विरोध को भी उजागर किया है।
कबीर और तुलसी के प्रसंग में उठनेवाले विवादों पर भी इस पुस्तक में चर्चा की गई है। इन दोनों कवियों की विश्व-दृष्टियों के अन्तर को रेखांकित करते हुए उनके आध्यात्मिक विचारों के बदले सामाजिक विचारों को प्राथमिकता दी गई है। इस पुस्तक में एक तरह से भक्तिकाव्य की आलोचना के माध्यम से हिन्दी आलोचना का इतिहास भी प्रस्तुत किया गया है।
समग्रतः इस पुस्तक में लेखक ने न केवल परिश्रम, सूझबूझ और आलोचकीय विवेक का परिचय दिया है, बल्कि मूल्यों की टकराहट और मूल्यांकनों के द्वन्द्व में उसने अपना स्वतंत्र विवेक नहीं खोया है। इसीलिए लेखक के निष्कर्षों से उसके निर्णय की क्षमता भी प्रकट होती है। निश्चय ही पुस्तक की प्रस्तुति स्तरीय, भाषा विषयानुकूल, प्रवाहपूर्ण और परिमार्जित है।
—डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
Samkaleen Hindi Sahitya : Vividh Paridrishya
- Author Name:
Ramswaroop Chaturvedi
- Book Type:

-
Description:
समकालीन हिन्दी साहित्य का आलोचना से सबसे निकट का सम्बन्ध है। वह आलोचना को जितना अभिप्रेरित करता है, उतना ही उसका उपजीव्य होता है। समध्कालीन भूमि पर अपना परीक्षण करके तब आलोचना परम्परा की ओर दृष्टि डालती है, और उससे अपना सम्बन्ध तलाश करती है। सिर्फ़ प्राचीन-मध्यकालीन साहित्य पर लिखकर पंडित हुआ जा सकता है, आलोचक नहीं। आलोचक एक तरह से, एलियट के अर्थ में, समूचे साहित्य का सहवर्तित्व प्रमाणित करता है। इसके लिए अपने समकालीन साहित्य से उसकी अन्तरक्रिया और कृतकृत्यता बुनियादी महत्त्व की होती है।
बीसवीं अर्द्धशताब्दी के आसपास हिन्दी में नई कविता और नवलेखन का जो उत्थान हुआ, उसकी पहली व्यवस्थित आरम्भिक समीक्षा थी ‘हिन्दी नव-लेखन’ जो 1960 में प्रकाशित हुई। स्वतंत्र देश की पहली रचनात्मक अभिव्यक्ति का किसी क़दर सहानुभूतिपूर्ण और परिचयात्मक अध्ययन यहाँ पहली बार हुआ था। फिर अज्ञेय, उनके समवर्ती तथा अज्ञेयोत्तर कृतित्व की वैसे ही नए सन्दर्भों में व्याख्या आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी के कृतित्व का एक मुख्य अंग बन गई। प्रस्तुत कृति में ‘हिन्दी नवलेखन’ से आरम्भ करके आलोचक की दृष्टि समकालीन साहित्य के प्रति कैसे परिष्कृत होती गई, इसका बड़ा सटीक अध्ययन है। फिर यह दृष्टि कैसे समूची साहित्य-परम्परा को देखती है, वह समूचा परिदृश्य सामने आता है। इस अर्थ में आधुनिक आलोचना की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है—‘समकालीन हिन्दी साहित्य : विविध परिदृश्य’।
Itihas Smriti Akanksha
- Author Name:
Nirmal Verma
- Book Type:

- Description: क्या मनुष्य इतिहास के बाहर किसी और समय में रह सकता है? क्या हम वही हैं जो हम दिखाई देते हैं या बीते हुए समय की प्रकृति, लाखों जीव-जन्तुओं और ख़ुद मनुष्य की सैकड़ों सृष्टियाँ हमारी चेतना में कहीं मौजूद हैं? क्या आज का मनुष्य अतीत की अनेकानेक विस्मृत सृष्टियों का स्मारक है? आधुनिक मनुष्य जिसका अस्तित्व इतिहास और स्मृति के दो छोरों पर अटका हुआ है, और जिसकी आत्मखंडित चेतना अवधारणा तथा वास्तविकता के बीच झूलती रहती है, अपने सत्य तक कैसे पहुँचता है? कलाकृति का सत्य क्या है? धार्मिक और सेक्युलर के विभाजन ने हमारे सांसारिक अनुभवों को कैसे प्रभावित किया? ये और ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिन पर निर्मल वर्मा इस पुस्तक में शामिल व्याख्यानों में अपनी विशिष्ट चिन्तन-शैली में विचार करते हैं। स्मृति, इतिहास, विचारधारा, कला-अनुभव और साहित्य के अनेक आधारभूत प्रश्नों पर उन्होंने निबन्धों में भी बार-बार विचार किया है, इन व्याख्यानों में वह प्रक्रिया और घनीभूत दिखाई देती है। ‘वत्सल निधि’ द्वारा आयोजित डॉ. हीरानन्द शास्त्री स्मारक व्याख्यान माला की दसवीं कड़ी (1990) के रूप में दिए गए ये व्याख्यान निर्मल वर्मा के चिन्तक पक्ष को गहराई से रेखांकित करते हैं और हमें पुन: उन प्रश्नों पर लौटने को आमंत्रित करते हैं जिन्हें हमने बीते दो-तीन दशकों में साहित्य-चिन्तन की परिधि से जैसे बाहर ही कर दिया है।
Samaya Sakshi Hai
- Author Name:
Manu Sharma
- Book Type:

- Description: Awating description for this book
Shabd Purush Agyey
- Author Name:
Shri Naresh Mehta
- Book Type:

- Description: आधुनिक हिन्दी साहित्य के लिए यह एक ऐतिहासिक संयोग था कि उसे ‘अज्ञेय’ जैसा विशिष्ट व्यक्ति मिला, जो न केवल अपने निजी लेखन से ही महत्त्वपूर्ण था, बल्कि साहित्य के सभी क्षेत्रों और विषयों पर भी चिन्तातुर था। शायद भारतेन्दु के बाद ऐसी प्रामाणिक साहित्यिक चिन्ता वात्स्यायन में ही दिखलाई देती है। वस्तुत: यह आलेख उनके लेखन और व्यक्ति का आकलन नहीं, बल्कि स्मरण है, और वह भी संस्मरणात्मक आत्मीय भूमि पर से ही किया गया है। साथ ही एक अग्रज समकालीन को जिस सम्यकता से देखा जाना चाहिए, की चेष्टा है।
Mati Pani Mein Sani Baudhikta
- Author Name:
Dr. Archana Singh +1
- Book Type:

- Description: प्रत्येक समाज अपने विकास के क्रम में ज्ञान के अपने संस्रोत विकसित करता है , जो समझने की अन्त : दृष्टि देते हैं । किन्तु भारतीय समाज को समझने की जो दृष्टियाँ हैं उनमें औपनिवेशिकता एवं पश्चिमी ज्ञान संदर्भो की भरमार है । हमें अपने समाज को समझने के लिए देशज चिन्तन दृष्टि की आवश्यकता है । यह पुस्तक समाज विज्ञान के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण देशज चिन्तन दृष्टियों को मुख्य विमर्श का हिस्सा बनाने का एक छोटा सा प्रयास है जो कि अभी तक साहित्य , लोक या गल्प के नाम पर हाशिए पर रही हैं ।
Nirala Ke Srajan Simant
- Author Name:
Archana Verma
- Book Type:

-
Description:
इस किताब की प्रमुख कोशिश निराला को उनकी अपनी भूमि पर देखने और समझने की है, इस आस्था के साथ कि यह अपने आप को भी समझने की शुरुआत है, अपनी परम्परा और अपनी परम्परा की आधुनिकता को।
जिस दुनिया में खड़े होकर आज हम निराला की परम्परागत आधुनिकता को देखते हैं, वह उनकी मूल्यचेतना की सार्थकता और प्रासंगिकता की गवाही स्वयं देती है। जिसे वे जड़वादी दृष्टि कहते थे, उसकी यात्रा की दिशा को वे दूर तक देख और समझ सकते थे। उसके विपक्ष में वे आत्मवाद के साथ खड़े थे तो इसलिए कि वे मानते थे कि अनियंत्रित उपभोग की वह जड़वादी दिशा ही विनाश की है।
‘कुकुरमुत्ता’ में निराला ने कुकुरमुत्ता के ख़ात्मे से उसी अन्त की ओर तथा ‘खजोहरा’ में अपनी ही खुजली से कूदती, फाँदती, भगाई मचाती जड़वादी दृष्टि यानी माया की उपचारहीन जलन की ओर इशारा किया है।
अब उनकी सार्थकता और प्रासंगिकता के बार-बार आविष्कार का समय है। उस दिशा में यह छोटी-सी कोशिश उनकी कविताओं में व्यक्त संसार को मूल रूप से उनके अपने ही निबन्धों, कहानियों, समीक्षाओं आदि में निहित विचारों के सहारे सत्यापित करने की है क्योंकि इससे एक तो उनका अपना मन्तव्य प्रमाणित होता है, दूसरे, आधुनिक आलोचना के पास निराला को जाँचने के लिए ‘अन्तर्विरोध’ के अलावा और कोई अवधारणा न होने के कारण, और उस अवधारणा से मूलतः असहमत होने के कारण लेखिका के पास और कोई उपयुक्त कसौटी नहीं बचती।
Aaj Aur Aaj Se Pahale
- Author Name:
Kunwar Narain
- Book Type:

-
Description:
अगर यह संचयन साहित्य के प्रति निष्ठा से समर्पित एक रचनाकार की सोच-समझ का छोटा-सा किन्तु प्रमाणिक जीवन-भर होता तो मूल्यवान होते हुए भी वह गहरी विचारोत्तेजना का वैसा स्पंदित दस्तावेज़ न होता जैसा कि वह है। कुँवर नारायण आधुनिक दौर के कवि-आलोचकों की उस परम्परा के हैं जिसमें अज्ञेय और मुक्तिबोध, विजयदेव नारायण साही और मलयज आदि रहे हैं और जिसे पिछली अधसदी में हिन्दी की केन्द्रीय आलोचना कहा जा सकता है। अपने समय और समाज को, अपने साहित्य और समकालीनों को, अपनी उलझनों-सरोकारों और संघर्ष को समझने-बूझने और उन्हें मूल्यांकित करने के लिए नए प्रत्यय, नई अवधारणाएँ और नए औज़ार इसी आलोचना ने खोजे और विन्यस्त किए हैं। कुँवर नारायण का वैचारिक खुलापन और तीक्ष्णता, सुरुचि और सजगता तथा बौद्धिक अध्यवसाय उन्हें एक निरीक्षक और विवेचक की तरह 'अपने समय और समाज पर चौकन्नी नजर' रखने में सक्षम बनाते हैं।
यह संचयन कुँवर नारायण का हिन्दी परिदृश्य पर पिछले चार दशकों से सक्रिय बने रहने का साक्ष्य ही नहीं, उनकी दृष्टि की उदारता, उनकी रुचि की पारदर्शिता और उनके व्यापक फ़लक का भी प्रमाण है। प्रेमचन्द, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी से लेकर अज्ञेय, शमशेर, नेमिचन्द्र जैन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, श्रीकान्त वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, श्रीलाल शुक्ल, अशोक वाजपेयी तक उनके दृष्टिपथ में आते हैं और उनमें से हरेक के बारे में उनके पास कुछ-न-कुछ गम्भीर और सार्थक कहने को रहा है। इसी तरह कविता, उपन्यास, कहानी, आलोचना, भाषा आदि सभी पर उनकी नज़र जाती रही है।
जो लोग साहित्य और हिन्दी के आज और आज के पहले को समझना और अपनी समझ को एक बृहत्तर प्रसंग में देखना-रखना चाहते हैं, उनके लिए यह एक ज़रूरी किताब है। कुँवर नारायण में समझ का धीरज है, अपना फ़ैसला आयद करने की उतावली नहीं है और ब्योरों को समझने में एक कृतिकार का अचूक अनुशासन है। हिन्दी आलोचना आज जिन थोड़े से लोगों से अपना आत्मविश्वास और विचार-ऊर्जा साधिकार पाती है। उनमें निश्चय ही कुँवर नारायण एक हैं।
यह बात अचरज की है कि यह कुँवर नारायण की पहली आलोचना-पुस्तक है। बिना किसी पुस्तक के दशकों तक अपनी आलोचनात्मक उपस्थिति अगर कुँवर नारायण बनाए रख सके हैं तो इसलिए कि उनका आलोचनात्मक लेखन लगातार धारदार और ज़िम्मेदार रहा है।
Meghdoot : Ek Adhyayan
- Author Name:
Kalidas
- Book Type:

-
Description:
महाकवि कालिदास की कालजयी कृति ‘मेघदूत’ सदियों से प्रेम और विरह की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति के रूप में समादृत रही है।
संस्कृत साहित्य में ‘उपमा कालिदासस्य’ प्रसिद्ध उक्ति है ही और इस कृति में कालिदास की रचनात्मकता शिखर पर है। इसीलिए ‘मेघदूत’ शताब्दियों से काव्य का प्रतिमान रहा है। रसिकों-विज्ञजनों में महान कृतियों के विशेष अध्ययन की सुस्थापित परम्परा रही है ताकि कृतियों में निहित विशेष भावों, सन्दर्भों, उक्तियों-अन्योक्तियों, कथाओं-अन्तर्कथाओं का खुलासा कर रचना का पूरा आनन्द लिया जा सके, और यदि यह अध्ययन डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जैसे इतिहास-संस्कृति-मर्मज्ञ का हो तो पाठक रचना-रस से आप्लावित हो उठेंगे।
डॉ. अग्रवाल ने स्वयं लिखा : ‘‘यह अध्ययन ‘मेघदूत मीमांसा’ के नाम से 1927 की शरद ऋतु में लिखा गया था। उस समय मैं यौवन के ललाम भाव से परिचित ही हुआ था और मेरा मन उसके अतिरेक सुखों की उस भावभूमि के लिए उन्मुक्त था, जो ‘मेघदूत’ काव्य का सनातन धरातल है। न जाने किस पूर्व पुण्य से काशी विश्वविद्यालय में जब मैं बी.ए. की शिक्षा प्राप्त कर रहा था, तब किसी एकान्त दिवस में स्वर्गिक ज्योति की कोई किरण मेरे मानस में वह अभिज्ञान ले आई, जिसने मेरे लिए इस काव्य का अर्थ ही बदल डाला और इसके स्थूल रूप को सूक्ष्म बाण से बेध दिया। उसने एक साथ ही अध्यात्म और श्रृंगार के नील-लोहित धनुष से ‘मेघदूत’ के भावलोक को जीतकर मुझे भी उसका नागरिक बना लिया।’’
अरसे से अनुपलब्ध इस कृति का प्रकाशन हमारा गौरव है और काव्य-रसिकों के लिए उल्लास का अवसर भी।
Prayojanmoolak Hindi : Sanrachana Evam Anuprayog
- Author Name:
Ram Prakash
- Book Type:

- Description: शताब्दियों से ‘राष्ट्रभाषा’ के रूप में प्रतिष्ठित और लोक-व्यवहार में प्रचलित ‘हिन्दी’ पिछले कई दशकों से ‘राजभाषा’ के संवैधानिक दायरे में भी विकासोन्मुख है। ‘राष्ट्रभाषा’ की मूल प्रकृति तथा ‘राजभाषा’ की संवैधानिक स्थिति को अलगानेवाली प्रमुख रेखाएँ आज भी शिक्षित समाज के बहुत बड़े वर्ग के लिए अस्पष्ट-सी हैं। इसके लिए जहाँ हिन्दी भाषा के उद्भव से लेकर ‘मानक’ भाषा तथा ‘राष्ट्रभाषा’ स्वरूप धारण करने तक की सुदीर्घ विकास-परम्परा का सर्वेक्षण आवश्यक है, वहीं 14 सितम्बर, 1949 ई. से लेकर आज तक के समस्त संवैधानिक प्रावधानों, नियमों-अधिनियमों एवं शासकीय आदेशों और संसदीय संकल्पों आदि का सम्यक् अनुशीलन भी वांछनीय है। इस अनुशीलन-प्रक्रिया के दौरान तत्सम्बन्धी समस्याओं तथा उनके व्यावहारिक समाधान के समायोजन का उपक्रम भी अपेक्षित है। आज इन अपेक्षाओं के दायरे और भी विस्तृत हो गए हैं क्योंकि हिन्दी अब लोक-व्यवहार की सीमाओं से आगे बढ़कर, विभिन्न शैक्षणिक, प्रशासनिक, व्यावसायिक तथा कार्यालयी स्तरों पर भी अपनी प्रयोजनमूलकता प्रतिपादित करने के दायित्व-निर्वाह की ओर अग्रसर है। इस दायित्व-निर्वाह का निकष है—उसके संरचना-सामर्थ्य का अनुप्रयोगात्मक कार्यान्वयन। इस दिशा में विभिन्न स्तरों पर विविध प्रयास चल रहे हैं, किन्तु उनमें एकरूपता, पारस्परिक एकसूत्रता तथा समन्वयशीलता का अभाव होने से, अनेक समस्याएँ गत्यावरोध का कारण बन रही हैं। इन्हीं समस्याओं के निवारण हेतु हिन्दी के प्रयोजनमूलक संरचना-सूत्रों के समुचित संयोजन तथा उनकी अनुप्रयोगात्मक सम्भावनाओं के समन्वित-सुसंग्रथित रेखांकन का विनम्र प्रयास इस पुस्तक का लक्ष्य है।
Hindi Kahani : Prakriya Aur Path
- Author Name:
Surendra Chaudhary
- Book Type:

-
Description:
कहानी को रचनाकर्म के साथ-साथ जीवन से जुड़ा मानकर लेखक एक निरन्तरता में इन्हें देखने की चेष्टा करता है। बदलती हुई प्रवृत्तियों और प्रक्रियाओं को वह इसका बाधक भी नहीं मानता है। उसका विश्वास है कि अनुभव की संश्लिष्टता ही रचना में आकर अपना अर्थ भी खोलती है और स्वयं उस अनुभव को भी बड़ा बनाती है।
अपनी प्रथम पुस्तक में उसकी यह शुरुआत हिन्दी आलोचना में चर्चा का विषय बन गई थी। ‘नई कहानी’ के उस दौर में इस पुस्तक के सम्बन्ध में यह चर्चा कम उत्साहवर्द्धक न थी।
वर्षों बाद भी लेखक की यह पुस्तक अपनी प्रासंगिकता ही बनाए नहीं रखती, बल्कि बदलते हुए इस कथा-दौर में कुछ पूर्वाशित प्रश्न खड़े करने के लिए भी स्मरण की जाती रही है। पाठ भाग में एक कहानी भी जोड़ी गई है। संक्षेप में कहा जाए तो हिन्दी कहानी की रचना-प्रक्रिया पर यह एक मुकम्मल किताब है।
Alochana Anukramanika
- Author Name:
Neelam Singh +1
- Book Type:

-
Description:
स्वतंत्रता के बाद जिस तरह भारतीय समाज और राजनीति अपना रास्ता टटोल रहे थे; हिन्दी साहित्य की स्थिति बेशक वैसी नहीं थी। उसकी अपनी एक परम्परा थी जो ब्रिटिश भारत में भी विद्यमान और गतिशील रहती आई थी। लेकिन आजादी के बाद के नए भारत में उसके सामने कुछ नए कार्यभार थे; जिसमें सबसे अहम था भारतीय लोकतंत्र को एक सामूहिक बोध के रूप में स्थापित करना और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को आगे बढ़ाना।
इसके लिए सिर्फ साहित्य-सृजन की नहीं, एक वैचारिक नेतृत्व की भी जरूरत थी। हिन्दी समाज के लिए इस काम के लिए आलोचना सामने आई। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस त्रैमासिक पत्रिका का पहला अंक अक्तूबर 1951 में आया; और पहले ही अंक से उसने अपनी क्षमता और उद्देश्यों को स्पष्ट रूप में रेखांकित कर दिया।
आलोचना को सिर्फ साहित्यिक समीक्षाओं की पत्रिका नहीं होना था, और वह हुई भी नहीं। उसकी चिन्ता के दायरे में इतिहास, संस्कृति, समाज से लेकर राजनीति और अर्थव्यवस्था तक सभी कुछ था। विश्व के वैचारिक आन्दोलनों और अवधारणाओं को भी उसने बराबर अपनी निगाह में रखा। इसी विराट दृष्टि के चलते आलोचना हिन्दी मनीषा के लिए एक नेतृत्वकारी मंच के रूप में सामने आई, और धीरे-धीरे मानक बन गई।
आलोचना के सम्पादक बदले, लेकिन उसकी दृष्टि का दायरा और फोकस कभी नहीं बदला। आज भी, वह लोकतांत्रिक प्रगतिशील और समतावादी मूल्यों के पक्ष में साहसपूर्वक खड़ी हुई है। अक्टूबर 1951 में प्रकाशित पहले अंक से लेकर अप्रैल-जून 2019 में प्रकाशित ‘विभाजन के सत्तर साल’ विषयक अंक तक की सामग्री इसकी गवाह है, जिसका विवरण आप इस पुस्तक में देखेंगे।
इस पुस्तक में हर अंक की सामग्री का क्रमबद्ध विवरण है जो स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य की यात्रा का द्योतक भी है; और सामाजिक-सांस्कृतिक चिन्ताओं का भी।
Otan Lage Kapas
- Author Name:
Prabhash Joshi
- Book Type:

-
Description:
‘देश व्यवसाय नहीं है और किसी भी प्रगतिशील आधुनिक लोकतांत्रिक देश की पत्रकारिता सिर्फ़ व्यवसाय नहीं हो सकती।...जब तक कौशल के साथ पत्रकारिता लोगों को सही और तथ्यपरक जानकारी देने और निर्भीकता से अपना दृष्टिकोण रखने का माध्यम बनी रहेगी तब तक वह सिर्फ़ व्यवसाय के लेन-देन वाले धंधे में नहीं बदल सकती।’
नवम्बर 1991 में ‘जनसत्ता’ के कोलकाता आगमन पर लिखी गईं प्रभाष जी की ये पंक्तियाँ आज कितनी प्रासंगिक और अनुकरणीय हैं, कहने की ज़रूरत नहीं है। पत्रकारिता के इन आधारभूत मूल्यों को उन्होंने हमेशा बल दिया। जब ज़रूरत हुई सत्ता का विरोध किया, जब ठीक लगा तारीफ़ भी की।
राजीव गांधी के कामकाज का विरोध करते हुए जोशी जी ने ‘एक देवदूत का दलदल से बिदकना’ लिखा तो सोनिया गांधी को जबरन राजनीति में सक्रिय करने के कांग्रेस-जनों के प्रयास को उन्होंने ‘एक सफेद आँचल में दुबकना’ लिखा। अर्थव्यवस्था के खुलेपन का विरोध करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘ईमानदारी से कहो कि हम गलत थे’।
‘ओटन लगे कपास’ पुस्तक को दो खंडों में बाँटा गया है। पहले खंड में केवल 13 लेख शामिल हैं। 17 नवम्बर, 1983 को ‘जनसत्ता’ उनके नेतृत्व में शुरू हुआ। पहले खंड की शुरुआत उसमें प्रकाशित उनकी पहली टिप्पणी से की गई है। दिल्ली के बाद चंडीगढ़, मुम्बई, कोलकाता और रायपुर में जनसत्ता के संस्करण प्रकाशित होने शुरू हुए। चंडीगढ़ के अलावा चारों संस्करणों के पहले दिन के लेख इस पुस्तक में हैं।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ की लम्बी हड़ताल और दिवराला सती कांड से जुड़े लेख भी इस खंड में हैं। सबसे अनोखा लेख ‘मूरख जनम गमायो’ है, जिसे उन्होंने अपनी अलिखित आत्मकथा की भूमिका माना है। इसमें उन्होंने पत्रकार और पत्रकारिता के माहौल पर लिखा है। पुस्तक के दूसरे खंड में उनके सम्पादकीय छोड़ने तक की उन रचनाओं को शामिल किया गया है, जो अब तक किसी पुस्तक में नहीं आ पाई थीं।
Shamsher Bahadur Singh Ki Aalochana-Drishti
- Author Name:
Nirbhay Kumar
- Book Type:

-
Description:
शमशेर एक बड़े कवि के साथ-साथ एक आलोचक भी हैं। एक कवि-आलोचक। इस बात का साक्ष्य उनकी पहली आलोचनात्मक कृति ' दोआब' है। उन्होंने भारतीय साहित्य की परम्परा के महान रचनाकारों और साथ ही अपने समकालीन रचनाकारों और उनकी रचनाओं पर दिलचस्पी के साथ आलोचनात्मक चिन्तन किया है। शमशेर ने ऐसे रचनाकारों पर उस समय आलोचनाएँ लिखी हैं जब हिन्दी आलोचना में उन पर बात करना मुनासिब नहीं समझा जाता था; क्योंकि हिन्दी आलोचना बहुधा पूर्वाग्रहों और दायित्वहीनता का शिकार होती रही है।
शमशेर की आलोचना-दृष्टि का सबसे सबल पक्ष उसकी प्रगतिशीलता एवं भारतीयता है। आज का परिवेश इतिहासबोध, सदियों से चली आ रही सामाजिक संरचना और मौजूदा व्यवस्था में जीवनानुकूल परिवर्तन की बात करता है। इसके लिए संघर्ष की आवश्यकता होती है। शमशेर को जिस किसी रचना और रचनाकार में यह संघर्ष दिखता है; वह उन्हें अपील करता है।
उनकी मनोभूमि और रचनात्मक चिन्ताओं को जानने-समझने के लिए उनकी कविताओं से अधिक उनकी आलोचनाओं पर भरोसा किया जा सकता है। शमशेर ने अपनी आलोचनाओं में भारतीय संस्कृति पर भी चिन्तन किया है। वे अपनी आलोचना के लिए भारतीय भाषाओं की ऐसी रचनाओं का चुनाव करते हैं जो भारतीय संस्कृति के 'सामासिक स्वरूप' को सामने लाती हैं।
परम्परा का मूल्यांकन शमशेर की आलोचना-दृष्टि की आधारभूमि है, तो समकालीन रचनाशीलता का मूल्यांकन उनकी तटस्थता और सजगता का प्रमाण। अपने समय के प्रति जागरूक रचनाकार ही साहित्य, समाज और मनुष्य को अपनी 'मनुष्यता खोने के डर' से उबारकर इन सबको 'मनुष्यता की उच्च भूमि' पर खड़ा कर सकता है। शमशेर इस ओर क़दम बढ़ाते नज़र आते हैं।
शमशेर निर्मम आलोचक नहीं हैं। निराला, ग़ालिब, सुभद्रा कुमारी चौहान, नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन आदि न जाने कितने रचनाकारों पर लिखी आलोचना उनके सन्तुलित और स्वस्थ दृष्टिकोण की परिचायक है। नागार्जुन को 'मुँहफट कवि', त्रिलोचन को 'साहित्य का हनुमान' आदि कह देना शमशेर की बेबाक आत्मीयता का ही प्रमाण है। शमशेर के बारे में अब तक 'अनकही' अनेक बातों को कहने की कोशिश के साथ यह पुस्तक 'पब्लिक स्फ़ियर' में प्रस्तुत है।
Ramvilas Sharma Rachanawali Vol : 1-19
- Author Name:
Ramvilas Sharma
- Book Type:

- Description: भाषा, विचार, साहित्य, दर्शन, संस्कृति, इतिहास और समाजशास्त्र समेत मानव, उसके वर्तमान और भविष्य को लक्षित आलोचना के विराट व्यक्तित्व रामविलास शर्मा का लेखन न केवल परिमाण में विपुल है, बल्कि चिन्तन की लगभग सभी सम्भव दिशाओं में मौलिक दृष्टि तथा गहन अध्ययन से प्रसूत पथ-निर्देशक अवधारणाओं का विशाल आगार है। उनको पढ़ना हिन्दी मेधा के शिखर से गुजरना है। साहित्य-रचना के मर्म तक पहुँचने के लिए उनकी आलोचकीय जिज्ञासा रस, लय, शब्द-संयोजन आदि की पड़ताल करते हुए भाषा-विज्ञान, भाषा-इतिहास और दर्शनशास्त्र तक पहुँची। मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि उनके चिन्तन और विवेचन की अविचल आधारभूमि रही, लेकिन उसे भी उन्होंने अपनी सीमा नहीं बनने दिया। आलोचना-समीक्षा करते समय उन्होंने सिद्धान्तों या प्रतिमानों को विशेष महत्त्व नहीं दिया। उनके अनुसार, 'प्रतिमान आलोचना की अग्रभूमि में स्थित नहीं हैं। प्रत्येक रचना अपना प्रतिमान गढ़ती है; आलोचक उसका अन्वेषण करते हुए रचनाकार की विश्व-दृष्टि, उसकी परिस्थिति, परिवेश और यथार्थ-चित्रण का मूल्यांकन करता है।' यह डॉ. रामविलास शर्मा के सम्पूर्ण आलोचनात्मक लेखन की प्रस्तुति है, जिसकी प्रतीक्षा हिन्दी संसार को लम्बे समय से थी। गत कई वर्षों के अथक परिश्रम के फलस्वरूप तैयार अठारह खंडों की इस रचनावली में रामविलास जी के विचारपरक लेखन को सुचिन्तित क्रम से संकलित किया गया है। रचनावली के इस पहले खंड में रामविलास जी के अवदान पर केन्द्रित डॉ. कृष्णदत्त शर्मा की विस्तृत प्रस्तावना के अलावा रामविलास जी की ‘प्रेमचन्द’ तथा ‘प्रेमचन्द और उनका युग’ पुस्तकों को शामिल किया गया है। रामविलास जी का मानना था कि, ‘प्रेमचन्द की आवाज भारत की अजेय जनता की आवाज है, इसीलिए प्रेमचन्द आज भी हमारे साथ हैं।’ इन पुस्तकों में उन्होंने प्रेमचन्द के व्यक्ति तथा कथाकार, दोनों पर दृष्टिपात किया है।
Customer Reviews
0 out of 5
Book