Bhartiya Sanskriti
Author:
Santosh Kumar ChaturvediPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 260
₹
325
Available
भारतीय संस्कृति का विश्व संस्कृति में अपना अनुपम स्थान है। यह जीवन के भौतिक पक्ष की अपेक्षा आध्यात्मिक पक्ष पर बल देती है। साथ ही यह व्यक्तित्व के एक कल्पनाशील एवं भावना- प्रवण, उदार एवं सौम्य आदर्श पर जोर देती रही है। यह आदर्श अत्यन्त प्राचीन काल से लेकर आज तक किसी न किसी रूप में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता रहा है। अपनी ग्रहणशीलता एवं समन्वय की प्रवृत्ति के चलते यह हमेशा परिष्कृत होती रही है एवं समय के साथ चलती रही है। संस्कृति ही सामाजिक एवं ऐतिहासिक धरातल प्रदान करती है। संस्कृति की रश्मियों से ही किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व सजता, संवरता एवं निखरता है।</p>
<p>संस्कृति वह सामाजिक विरासत हैं जिससे परम्परा से कला-कौशल, विचार-व्यवहार, आदतें, नैतिक मूल्य आदि समावेशित हो जाते हैं। संस्कृति से हीन परिवार, समाज या राष्ट्र की कल्पना करना गप्प हाँकने जैसा है। इन संस्थाओं की निर्मिति में संस्कृति आधाररूप में कार्य करती है। संस्कृति के माध्यम से ही समाज के नवयुवक अपने देश की परम्परा- धर्म, दर्शन, इतिहास, ज्ञान-विज्ञान एवं विरासत से परिचित हो पाते हैं।
ISBN: 9788180315930
Pages: 212
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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नामवर सिंह जीते-जी विशिष्ट शख़्सियत की देहरी लाँघकर एक लिविंग ‘लीजेंड' हो चुके थे। तमाम तरह के विवादों, आरोपों और विरोध के साथ असंख्य लोगों की प्रसंशा से लेकर ‘भक्ति-भाव तक को समान दूरी से स्वीकारने वाले नामवर जी ने पिछले दशकों में मंच से इतना बोला कि शोधकर्ता लगातार उनके व्याख्यानों को एकत्रित कर रहे हैं और पुस्तकों के रूप में पाठकों के सामने ला रहे हैं। यह पुस्तक भी इसी तरह का एक प्रयास है लेकिन इसे किसी शोधार्थी ने नहीं उनके पुत्र विजय प्रकाश ने संकलित किया है।
इस संकलन में मुख्यत: उनके व्याख्यान हैं और साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखे-छपे उनके कुछ आलेख भी हैं। नामवर जी ने अपने जीवन-काल में कितने विषयों को अपने विचार और मनन विषय बनाया होगा, कहना मुश्किल है। अपने अपार और सतत अध्ययन तथा विस्मयकारी स्मृति के चलते साहित्य और समाज से लेकर दर्शन और राजनीति तक पर उन्होंने समान अधिकार से सोचा और बोला। इस पुस्तक में संकलित आलेख और व्याख्यान पुन: उनके सरोकारों की व्यापकता का प्रमाण देते हैं। इनमें हमें सांस्कृतिक बहुलतावाद, आधुनिकता, प्रगतिशील आन्दोलन, भारत की जातीय विविधता जैसे सामाजिक महत्त्व के विषयों के अलावा अनुवाद, कहानी का इतिहास, कविता और सौन्दर्यशास्त्र, पाठक और आलोचक के आपसी सम्बन्ध जैसे साहित्यिक विषयों पर भी आलेख और व्याख्यान पढ़ने को मिलेंगे।
पुस्तक में हिन्दी और उर्दू के लेखकों-रचनाकारों पर केन्द्रित आलेखों के लिए एक अलग खंड रखा गया है जिसमेँ पाठक मीरा, रहीम, संत तुकाराम, प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, त्रिलोचन, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, परसाई, श्रीलाल शुक्ल, ग़ालिब और सज्जाद ज़हीर जैसे व्यक्तित्वों पर कहीं संस्मरण के रूप में तो कहीं उन पर आलोचकीय निगाह से लिखा हुआ गद्य पढ़ेंगे।
बानगी के रूप में देश की सांस्कृतिक विविधता पर मँडरा रहे संकट पर नामवर जी का कहना है : ‘संस्कृति एकवचन शब्द नहीं है, संस्कृतियाँ होती हैं...सभ्यताएँ दो-चार होंगी लेकिन संस्कृतियाँ सैकड़ों होती हैँ...सांस्कृतिक बहुलता का नष्ट होते हुए देखकर चिन्ता होती है और फिर विचार के लिए आवश्यक स्रोत ढूँढ़ने पड़ते हैं।’ यह पुस्तक ऐसे ही विचार-स्रोतों का पुंज है।
Duniya Ko Badal Denewale 50 Yuddha
- Author Name:
Pallav Kishore
- Book Type:

- Description: प्रकति में जब भूकंप या सूनामी इत्यादि आपदाओं के कारण उथल-पुथल मचती है तो दुनिया के नक्शे में बदलाव होता है और जब कतिपय कारणों से सामाजिक वर्णों में युद्ध छिड़ता है तो समाज के स्तर पर दुनिया में बड़ा बदलाव आता है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अनेक यूरोपीय और अफ्रीकी देशों की भू- सीमाओं और मानविकी में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ, जिससे स्थानीय सभ्यता और संस्कृति पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा। दूसरे विश्वयुद्ध ने आग में घी का काम किया और पूरी दुनिया को प्रभावित किया। भारत के आजादी के संग्राम और उसके बाद भारत का विभाजन कर पाकिस्तान बनाया गया--उस दौरान हुए भीषण संघर्ष में न केवल दुनिया के नक्शे पर एक नए देश का आविर्भाव हुआ, वरन् भयंकर रक्तक्रांति भी हुईं। इसने आगामी अनेक वर्षों तक मानव सभ्यता को प्रभावित किया। दरअसल जब से दुनिया बनी है, युद्ध कहीं-न-कहीं होते रहे हैं। आज भी अनेक देश युद्ध की आग में झुलस रहे हैं--सीरिया संकट, उत्तर कोरिया संकट, अफगानिस्तान में तालिबान संकट, भारत- पाक तना-तनी, इजराइल-फिलिस्तीन संकट। दुनिया में अमन-शांति के लिए आवश्यक है कि मानवहित में इन युद्धों पर पूर्णविराम लगे।
Aage Andhi Gali Hai
- Author Name:
Prabhash Joshi
- Book Type:

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Description:
‘आगे अन्धी गली है’ में विख्यात पत्राकार प्रभाष जोशी द्वारा ‘प्रथम प्रवक्ता’ और ‘तहलका’ में छपे कॉलम संकलित हैं।
प्रभाष जोशी ने हिन्दी पत्रकारिता में कॉलम लेखन को एक नया रूप देने के साथ ही उसे विविधता भी प्रदान की। ‘जनसत्ता’ में लिखे उनके कॉलम ‘कागद कारे’ के समानान्तर ‘प्रथम प्रवक्ता’ का कॉलम ‘लाग लपेट’ तथा ‘तहलका’ का ‘शून्य काल’ भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ‘कागद कारे’ में प्रभाष जी ने अपनी संवेदना के आधार पर समय को परिभाषित किया है जबकि ‘लाग लपेट’ और ‘शून्य काल’ में अपने गांधीवादी विचार और तर्क से समकालीन परिदृश्य की पहचान निश्चित की है।
इस पुस्तक में प्रभाष जोशी के अन्तिम दो वर्षों का लेखन संकलित है। पुस्तक की भूमिका में प्रभाष जोशी की ज़िन्दगी के अन्तिम छह दिनों का संवेदनात्मक वृत्तान्त भी दिया गया है। जीवन के अन्तिम सप्ताह में प्रभाष जोशी अपने लेखन, सामाजिक सक्रियता और विसंगतियों के विरुद्ध व्याख्यान की घुमन्तू दिनचर्या में बेहद व्यस्त थे। पुस्तक के सम्पादकीय में उसका क्रमशः ब्यौरा दिया गया है। भागमभाग के बीच भी क्रिकेट से दीवानगी की हद तक उनका लगाव हमें आश्चर्य से भर देता है।
यह पुस्तक प्रभाष जी के अन्तिम दिनों के वैचारिक मानस को समझने की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
Dhoop Chhanh
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

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Description:
‘धूपछाँह’ हिन्दी साहित्य में अपने ढंग की एक दुर्लभ कृति है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा समय-समय पर दूसरी भाषाओं की रचनाओं से प्रेरित हो किशोरों के लिए लिखी गई इन कविताओं में ओजस्विता तो है ही, प्रांजल प्रवाहमयी भाषा, उच्चकोटि का छंद-विधान और भाव-सम्प्रेषण भी अद्भुत है।
राष्ट्रकवि ने अपनी इन कविताओं की पृष्ठभूमि के बारे में लिखा है—“ ‘धूपछाँह’ में धूप कम और छाया अधिक है। इसकी सोलह कविताओं में से दो (‘दो बीघा ज़मीन’ और ‘पुरातन भृत्य’) के मूल लेखक रवि बाबू, दो (‘तन्तुवाय’ और ‘तीन दर्द’) की मूल लेखिका श्रीमती सरोजिनी नायडू और एक (‘नींद’) के मूल लेखक गॉड्फ्रे नामक एक पाश्चात्य कवि हैं। ‘बच्चे का तकिया’ और ‘वर-भिक्षा’ सत्येन्द्रनाथ दत्त की बांग्ला कविताओं से ली गई हैं, मगर इनके मूल रचयिता, क्रमशः मार्सेलिन बाल्मोर और नगूची हैं। ‘पानी की चाल’ नामक रचना भी सर्वथा मौलिक नहीं कही जा सकती, क्योंकि यह रॉबर्ट सदी और अकबर इलाहाबादी के अनुकरण पर लिखी गई है। ‘कवि का मित्र’ रचना भी, जिसने मेरे कितने ही घनिष्ठ मित्रों को सिर खुजलाते हुए कुछ सोचने को लाचार किया है, सोलह आना मेरी ही स्वानुभूति नहीं है। ऐसे चरित्र का वर्णन दो-एक अंग्रेज़ी लेखकों और कवियों ने भी किया है जिनमें एक का नाम जॉन गॉड्फ्रे सैक्से है। इसी प्रकार ‘रौशन बे की बहादुरी’ का प्लॉट लांगफेलो की एक कविता से लिया गया है।”
इस तरह देखें तो पुस्तक में संकलित रचनाएँ अपने कैनवस पर अपने विविध रंगों में परिचित दुनिया की आत्मीय और अविस्मरणीय रचनाएँ हैं। निस्सन्देह, राष्ट्रकवि दिनकर की यह कृति युवा पीढ़ी को एक नया सन्देश देगी, देती रहेगी।
Vaikalpik Bharat Ki Talash
- Author Name:
Ravibhushan
- Book Type:

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आज़ादी के बाद हमने एक नया भारत बनाने की योजनाएँ बनाई थीं। एक शोषणविहीन, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर, समतामूलक भारत जहाँ न कोई किसी की दया का मोहताज हो, न किसी को किसी से भय हो, न धर्म के नाम पर लोग मरें, न जाति के नाम पर कोई समाज की मुख्यधारा से बाहर रहे। लेकिन ऐसा हो न सका।
कुल मिलाकर हम उतना आगे नहीं बढ़ सके, जितना अपेक्षित था। हममें से अनेक आज भी उस आज़ादी को तरस रहे जो उनके पुरखों ने गांधी, भगत सिंह की मौजूदगी में सोची थी। लोग बीमार हैं और अस्पतालों में उनके लिए जगह नहीं है, वो जिन्हें अपने उद्धारक प्रतिनिधियों के रूप में चुनकर संसद और विधानसभाओं में भेजते हैं, वो अगले दिन उन्हें पहचानने से इनकार कर देते हैं, जिस व्यवस्था के दायरे में वे अपने घर-परिवार के सपने बुनते हैं, वह एक दिन सिर्फ़ अपने लिए काम करती नज़र आती है।
वैकल्पिक भारत कोई दिमाग़ी शग़ल नहीं है। ज़रूरत है। जिन्हें अपने अलावा किसी भी और की चिन्ता है, वे सब इस ज़रूरत को महसूस करते हैं। रविभूषण सजग आलोचक और सरोकारों के साथ जीनेवाले विचारक हैं। इस पुस्तक में उनके उन आलेखों को शामिल किया गया है जो उन्होंने पिछले दिनों एक चिन्तनशील नागरिक और बौद्धिक के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए लिखे हैं।
पुस्तक का विषय-क्रम देश के समय को एक-एक चरण में पार करते हुए आज तक आता है। दादाभाई नौरोजी, विवेकानन्द से शुरू करते हुए वे आज़ादी, बाद की सत्ता और समाज के चरित्र पर आते हैं और अन्त राष्ट्रवाद पर करते हैं। वही राष्ट्रवाद जो आज उन तमाम ताक़तों का मुखौटा बना हुआ है जिन्हें अपने अलावा किसी भी और का बोलना पसन्द नहीं। जो हिंसा को अपने अस्तित्व का पर्याय मानते हैं, और जिन्हें जाने क्यों लगने लगा है कि यह देश सिर्फ़ उनका है।
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