Kant Ke Darshan Ka Tatparya
Publisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 319.2
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399
Available
आचार्य ने पदावली को विशेष पारिभाषिक रूप दिया है। अपनी परिभाषाओं को कृष्णचन्द्र जी खोलते भी चलते हैं। आचार्य का प्रतिपादन भी बड़ा कसा-गठा है, उसके विचार-सूत्र अपनी बुनावट में निबिड़ परस्परभाव के साथ आपस में गझिन गुँथे हुए हैं।</p>
<p>आपको याद न दिलाना होगा कि आचार्य कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य ने स्वातंत्र्य आन्दोलन के समय विचार के स्वातंत्र्य—स्वराज—का उद्घोष किया था। अंग्रेज़ी में किया था, जो विचार की भाषा बन चली थी। और है। पर उनके कथन में सहज ही ऊह्य और व्यंजित था कि ऐसे स्वराज का मार्ग अपनी भाषा के ही द्वार की माँग करता है।</p>
<p>प्रस्तुत निबन्ध में उन्होंने काण्ट के दर्शन का नितान्त स्वतंत्र स्थापन-प्रतिपादन किया है जो अपनी तरह से विलक्षण है। इसके लिए उन्होंने भाषा भी अपनी ही ली है। जहाँ तक मैं जानता हूँ, बांग्ला में यह उनकी अकेली रचना है। पर इस एक रचना से ही स्पष्ट है कि वे अपने शेष चिन्तन को भी बांग्ला में विदग्ध अभिव्यक्ति दे सकते थे। उनके इस एक प्रौढ़ लेखन में भाषा की सम्भावनाओं का स्पष्ट, समृद्ध इंगित है।</p>
<p>आचार्य संस्कृत के निष्णात पण्डित थे। उनकी पदावली यहाँ स्वभावत: पुराने परिनिष्ठित शब्दों की ओर मुड़ती है पर इस मार्ग पर वे स्वभावत: ही नहीं, 'स्वरसेन’ चलते दिखते हैं। पुरानी पदावली रूढ़ ही नहीं है—जो कि कोई भी पदावली होती है—उसमें महत् लोच है। आचार्य इस पदावली को एक नई दिशा, नई व्याप्ति, नया आयाम देते हैं।
ISBN: 9789389577655
Pages: 247
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
मेरे जैसे अध्येता के लिए यह कालावधि भूमंडलीकरण के प्रभाव की सबसे भयावह अवधि रही है। वह इसलिए कि विश्व व्यवस्था के इस नए परिवर्तन का प्रभाव अपने विविध रूपों के साथ खुलकर सामने आने लगा है; यहाँ तक कि उसने वैचारिक धरातल से नीचे उतरकर ज़मीनी सच्चाई को प्रभावित करना शुरू कर दिया है।
आज का आदमी एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है जिसमें इतिहास और संस्कृति ही नहीं, बल्कि वर्तमान से भी उसका रिश्ता अरूप होता चला जा रहा है। यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं है कि इतिहास, विचार और साहित्य से लेकर मूल्यों तक की घोषणाएँ की जा रही हैं और हम उन घोषणाओं की वास्तविकता को परखने के बदले उनकी व्याख्या और बहस के लम्बे-चौड़े आयोजन करने में लगे हुए हैं। इस दौर में स्त्री, दलित और जनजातीय समाज लगातार बहस के केन्द्र में अपनी जगह बना रहे हैं। माना जा रहा है कि यह उत्तराधुनिकता से प्रेरित एक ऐसी परिघटना है, जिसमें पूरी सक्रियता के साथ जड़ों की ओर लौट रहे हैं तथा विकेन्द्रित परिस्थितियों का निर्णय करके अपने यथार्थ को समझने की कोशिश कर रहे हैं।
स्त्री, दलित और जनजाति तीनों ने ही पूरी व्यवस्था के सामने कुछ असहज सवाल खड़े कर दिए हैं, जिनमें कुछ इन वर्गों की पहचान से जुड़े हैं और कुछ इनकी स्वाधीनता, निर्णय के सम्मान और इनके स्वीकार से सम्बन्धित हैं। इसी सबके चलते पिछले वर्षों में मैंने विचार के स्तर पर अपने को सक्रिय भी अनुभव किया और परेशान भी। मुझे सोचने के लिए नए-नए रास्ते दिखाई दिए हैं।
—भूमिका से
Shabdon Ka Safar : Vol. 2
- Author Name:
Ajit Wadnerkar
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ब्लॉग-जगत में भाषा के प्रेमियों के बीच अजित वडनेरकर का एक बहुत रसीला ब्लॉग, शब्दों का सफ़र, अर्से से लोकप्रिय रहा है। अजित जी ने आम बोलचाल के शब्दों के रहस्य खोलकर भाषा की अन्तरराष्ट्रीय और संस्करण की जटिल और लम्बी प्रक्रिया से भी पाठकों का परिचय कराया है। इसका पुस्तकाकार प्रकाशन देखना सुखद है।
—मृणाल पाण्डे; वरिष्ठ कथाकार-पत्रकार
अजित वडनेरकर प्रमाण हैं कि हिन्दी रुकेगी नहीं। कम से कम लेकिन रोचक शब्दों में अधिक से अधिक कह देना उनके शब्दों के सफ़र की पहचान है। उनकी छोटी-छोटी ललित लोल रचनाओं में रवानी, प्रवाह, लय का आस्वाद है। सच तो ये है कि यह मानवता के विकास का महासफ़र है।
—अरविन्द कुमार; ख्यात कोशकार
बहुत शोधपरक, उपयोगी और महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ। हिन्दी में इतनी संलग्नता के साथ ऐसा परिश्रम करनेवाले विरले ही होंगे। तपस्या कहूँ कि लगन कि साधना....or a passionate pursuit...? Whatever, you are doing a very useful job...kudos! big...big...kudos
—उदय प्रकाश; वरिष्ठ कवि-कथाकार
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