Hindi Sahitya Ka Aalochanatmak Itihas
Author:
Ramkumar VermaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 796
₹
995
Available
“साहित्य और संस्कृति एक वृन्त के दो पुष्प हैं, और उनका पोषण एक ही रस से होता है। एक ही रस में रचे-पचे तथा परस्पर अभिन्न अन्तरंगता से जुड़े ऐतिहासिक चेतना के अद्वैत तत्त्व हैं।” ऐसी लेखक की अवधारणा है।</p>
<p>डॉ. वर्मा साहित्येतिहास को धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान और सामाजिक धारणाओं के अखंड प्रतिफल के रूप में परिभाषित करते हैं, इसलिए आपके समक्ष प्रस्तुत ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ सांस्कृतिक सन्दर्भों की कसौटी पर अत्यन्त प्रामाणिक और विश्वसनीय बनकर उतरता है।</p>
<p>आचार्य रामकुमार वर्मा का यह इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास के बाद ही नहीं लिखा गया, बल्कि शुक्ल जी के इतिहास-लेखन की अवधारणाओं से भिन्न प्रत्ययों के आधार पर लिखा गया।</p>
<p>लेखक ने संस्कृति, समाज, धर्म आदि को साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए प्रभावकारी और पोषणीय तत्त्व के रूप में स्वीकार किया। इसलिए उनका इतिहास केवल साहित्य का इतिहास न होकर संवत् 750 से लेकर संवत् 1750 तक के मनुष्य की सोच, भावुकता, समन्वयशीलता, प्रतिरोधात्मकता, रक्षणशीलता, आचरणपरकता और समग्र क्रियाशीलता का इतिहास भी है। यह जितना साहित्य का इतिहास है, उतना ही संस्कृति विमर्श है।</p>
<p>डॉ. वर्मा ने सन्धिकाल और चरणकाल पर जितने विस्तार और गम्भीरता से प्रमाण-पुष्ट उदाहरणों द्वारा विचार किया है, वैसा किसी साहित्य के इतिहासकार ने नहीं किया।</p>
<p>कलाकाल या रीतिकाल का इतिहास भी लिखा है और मेरी राय में वह रीतिकाल पर लिखे गए इतिहासों से अधिक प्रामाणिक और व्यवस्थित है। भक्तिकाल का एक अर्थ में इतिहास तो वर्मा जी ने ही लिखा।</p>
<p>इस इतिहास-ग्रन्थ से आदिकालीन और भक्तिकालीन साहित्य की गम्भीर समझ विकसित होती है और साहित्य के निर्वचन की शक्ति प्राप्त होती है।
ISBN: 9788180318429
Pages: 688
Avg Reading Time: 23 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: ठीक ही तो कहा है दोस्तोयेव्स्की ने—“कोई विषय कभी इतना पुराना नहीं होता कि अब उस पर कुछ नया कह पाना सम्भव ही नहीं हो।” नाना व्याकरण-सम्मत होना इस पुस्तक की मुख्य विशेषता नहीं है। इसमें जो ‘क्वचित् अन्योपि’ है, वही इसके नयेपन और महत्त्वपूर्ण होने का आधार है। कारण-कार्य सिद्धान्त पर रचे इस व्याकरण में ‘अन्वयमुख’ और ‘व्यतिरेक मुख’ कथन का सुप्रयोग करते हुए व्याकरणिक अवधारणाओं का गम्भीर और समग्र विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास परिलक्षित है। हिन्दी, चूँकि एक अलग भाषिक संरचना है, इसलिए उसे संस्कृत और अंग्रेजी के डंडे से नहीं चलाया जा सकता। हिन्दी का अपना यथार्थ उसके लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इस कारण संस्कृत अथवा अंग्रेजी का सिद्धान्त और व्यवहार उसके निर्धारणों का आधार कतई नहीं हो सकता। लेखक की नजर में हिन्दी एक बहुत ही वैज्ञानिक भाषा है। इसमें अपवादों का अत्यन्त सीमित अवसर है। जो हैं भी वे कतई अकारण नहीं हैं। अतः कारणों की तथ्यपरक गम्भीर पड़ताल इस पुस्तक में है। ‘पाण्डित्यः परिच्छेदम्’, ‘विशेषदर्शित्व’, रूपभेद से अर्थभेद और अर्थभेद के लिए रूपभेद आदि इसकी वैज्ञानिकता के ही आयाम हैं। इनका सम्यक्-सुप्रयोग न किये जाने से ही हिन्दी के रूप गड्ड-मड्ड-से हो गये हैं। फलतः हिन्दी में मानकीकरण की गम्भीर समस्या पैदा हो गयी है। हिन्दी की समस्त व्याकरणिक समस्याओं पर यह पुस्तक इन्द्र, बृहस्पति, यास्क, पाणिनि, पतंजलि और भर्तृहरि से लेकर कामताप्रसाद गुरु, पंडित किशोरीदास वाजपेयी और बदरीनाथ कपूर तक की ज्ञान-परम्परा को दृष्टिपथ में रखकर विशद समग्रता के साथ विचार करती है। इसके द्वारा निर्धारित किये गये मानक ‘परिच्छेद’ और ‘विशेषदर्शित्व’ के अभिनव उदाहरणों को प्रस्तुत करते हैं। अस्तु, यह पुस्तक पठनीय तो है ही, आचरणीय भी है।
Bhartiya Puralipi
- Author Name:
Rajbali Pandey
- Book Type:

- Description: पुरालिपि-शास्त्र बड़ा ही रोचक विषय है। यह लिपि के विकास का अध्ययन सम्मुख रहता है। श्री डब्ल्यू.जी. बुहलर और महामहोपाध्याय पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के बाद पुरालिपि के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण खोज हुए हैं। मुअनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाइयों के बाद इस क्षेत्र में क्रान्तिकारी और नई स्थापनाएँ हुई हैं। इन स्थानों से प्राप्त सामग्रियों से भारतीय लेखन-कला की प्राचीनता और उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ है। इस हालत में भारतीय पुरालिपि पर एक ऐसी पुस्तक की बड़ी उपयोगिता है। इस पुस्तक ने पुरालिपि क्षेत्र के तीस वर्षों का व्यवधान पाटने का काम किया है। प्रस्तुत पुस्तक में प्राचीन काल से सन् 1200 ई. तक भारतीय लेखन-कला का इतिहास प्रस्तुत है। विषय को सुगम बनाने के लिए क्रमबद्ध प्रकरणों में उसका विवेचन प्रस्तुत है। अन्त में आवश्यक सारणियाँ भी दी गई हैं। पुरालिपि-शास्त्र के छात्रों, भावी शोधकर्ताओं और अनुसन्धित्सु पाठकों के लिए यह ग्रन्थ विशेष उपयोगी है।
Nirala Ki Kavityan Aur Kavyabhasha
- Author Name:
Rekha Khare
- Book Type:

- Description: प्रस्तुत पुस्तक में काव्यभाषा के संवेदनात्मक स्तर पर रचना-प्रक्रिया के जटिल और संश्लिष्ट स्वरूप के परीक्षण का प्रयत्न किया गया है। निराला की स्थिति सभी छायावादी कवियों में विशिष्ट रही है। उनका काव्य-व्यक्तित्व सबसे अधिक गत्यात्मक, प्रखर तथा अन्वेषी रहा है, जिसका जीवन्त साक्ष्य प्रस्तुत करती है उनकी काव्यभाषा। काव्यभाषा को लेकर निराला के मानस में रचनात्मक बेचैनी उनके विविध और गतिशील भाषा-स्वरों में देखी जा सकती है। व्यक्ति के रूप में तो एक लम्बे अरसे तक वे उपेक्षित रहे, कवि के रूप में भी उनकी प्रतिभा को सही रूप में बहुत समय तक नहीं पहचाना गया। बाहर मैं कर दिया गया हूँ। ‘भीतर, पर, भर दिया गया हूँ’, में कवि के इस मानसिक द्वन्द्व की ध्वनि सुनी जा सकती है।
Kavita Ka Janpad
- Author Name:
Ashok Vajpeyi
- Book Type:

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Description:
इस संचयन में कविता के समाज के साथ अन्तर्सम्बन्ध, उसका आत्म-संघर्ष, अमानवीयीकरण, मध्यवर्गीय चेतना, एशियाई अस्मिता, शब्दप्रयोग, बिम्ब आदि पर विचार है। इसके अतिरिक्त अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, गजानन माधव मुक्तिबोध, त्रिलोचन, कुँवर नारायण, विजय देव नारायण साही, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, धूमिल, कमलेश और विनोद कुमार शुक्ल की कविता का विश्लेषण है।
हमारा विश्वास है कि यह सामग्री और इसके लेखक पिछले एक दशक में इस क्षेत्र में जो गम्भीर और विचारोत्तेजक हुआ है, उसमें शामिल हैं। उनके माध्यम से हमारी कविता की समझ और कवियों के संघर्ष की हमारी पहचान और परख गहरी होती है। हम उन अकारथ हो रहे पदों और अवधारणाओं से मुक्त होकर, जिनसे आज की ज़्यादातर आलोचना ग्रस्त है, नई ताज़गी और विचारोत्तेजना से अपने समय की मूल्यवान कविता, उसकी अपने समाज में जगह और शब्द के विराट् अवमूल्यन के इस क्रूर समय में कविता की भाषा के अनेकार्थी और बहु-स्तरीय जीवट और संघर्ष को समझ सकते हैं। यह आलोचना कविता के साथ है...उससे युगपत है। जैसे हमारी कविता में जीवन, अनुभव और भाषा को समझने और विन्यस्त करने के अनेक स्तर और प्रक्रियाएँ हैं, हमारी आलोचना में भी कविता और उसके माध्यम से अपने समय और उसकी उलझनों तक पहुँचने और उन्हें परिप्रेक्ष्य देने के अनेक स्तर और दृष्टियाँ सक्रिय हैं। जैसे कि कविता में वैसे ही, सौभाग्य से, आलोचना में रुचि और दृष्टि का प्रजातंत्र है।
हम इस प्रसन्न विश्वास के साथ यह संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं कि यहाँ एकत्र आलोचना कवितादर्शी और जीवनदर्शी है : अख़बारी सतहीपन और सनसनीखेजी, वैचारिक एकरसता के आत्मतुष्ट समय में वह हमें अपनी सूक्ष्मता और जटिलता से विचलित कर कविता की अर्थसमृद्ध और गहरी समझ की ओर ले जाने में समर्थ आलोचना है।
—भमिका से
Hindi Bhasha : Sanrachna Ke Vividh Aayam
- Author Name:
Ravindranath Shrivastava
- Book Type:

-
Description:
प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी भाषा की संरचना के विविध आयामों पर प्रकाश डालती है। विभिन्न व्याकरणाचार्यों के विचारों से सहमति-असहमति प्रकट करते हुए प्रो. श्रीवास्तव ने विभिन्न लेखों में तार्किक उक्तियों द्वारा अपने पक्ष को पुष्ट किया है। उनके चिन्तन की गहराई तथा साफ़-सुथरा विवेचन सर्वत्र विद्यमान है। हिन्दी भाषा की व्याकरणिक संरचना को आरेख के रूप में सम्भवतः पहली बार प्रो. श्रीवास्तव ने तैयार किया था, उसे भी इस पुस्तक में दे दिया गया है। पाठकों के सम्मुख यह पुस्तक रखते हुए दुःख और सन्तोष दोनों की मिली-जुली अनुभूति हो रही है। दुःख इस बात का कि यह पुस्तक उनके जीवनकाल में प्रकाशित न हो सकी, और सन्तोष यह है कि उनका यह महत्त्वपूर्ण अध्ययन पाठकों तक पहुँच पा रहा है।
आशा है, यह पुस्तक तथा इस शृंखला की अन्य पुस्तकें भी प्रो. श्रीवास्तव के भाषा-चिन्तन को प्रभावशाली ढंग से अध्येताओं तक पहुँचाएँगी और हिन्दी भाषा के प्रति स्नेह एवं लगाव रखनेवाले मनीषी भाषाविद् प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव की स्मृति को ताज़ा रखेंगे।
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