Hindi Navjagaran Ka Aarthik Chintan
Author:
Jay Singh NeeradPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 796
₹
995
Available
हिन्दी नवजागरण भारतीय नवजागरण से प्रेरित और प्रभावित होते हुए भी इस दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है कि वह हिन्दी पट्टी के सामाजिक-सांस्कृतिक और राष्ट्रीय जनजागरण का वाहक बना रहा। विशेष रूप से सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में ही उसकी विवेचना भी की गई लेकिन पता नहीं क्यों विद्वानों का ध्यान इस वास्तविकता की ओर नहीं गया कि हिन्दी पट्टी में सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण के साथ जो स्वातंत्र्य आन्दोलन परवान चढ़े उनके मूल में विद्यमान हिन्दी नवजागरण का आर्थिक चिन्तन उनकी अपरिहार्य प्रेरणा-भूमि है। इस दौर के अधिकांश लेखकों और साहित्यकारों ने राष्ट्रीय और सामाजिक उद्देश्यों के लिए अपने आर्थिक चिन्तन को हथियार की तरह इस्तेमाल किया। इस आर्थिक चिन्तन को आत्मसात किए बिना हिन्दी नवजागरण को सम्पूर्णता से नहीं समझा जा सकता।</p>
<p>इस पुस्तक में लेखक ने हिन्दी नवजागरण के आर्थिक चिन्तन के अनुशीलन का प्रयास किया है। इस चिन्तन को आधुनिक युग के आर्थिक परिप्रेक्ष्य से जोड़ने की कोशिश भी की गई है। इस अध्ययन से यह पूरी तरह स्पष्ट है कि उत्तर भारत के स्वातंत्र्य आन्दोलनों और सामाजिक जागरण को औपनिवेशिक शासन द्वारा किए गए भारतीयों के आर्थिक शोषण ने अपने ढंग से प्रेरित और प्रभावित किया। यही कारण है कि तत्कालीन राजनीतिक परिप्रेक्ष्य भी इस आर्थिक चिन्तन से अनिवार्यतः जुड़ा रहा है।</p>
<p>वर्तमान में यह आवश्यक है कि आधुनिक अर्थव्यवस्था को हिन्दी नवजागरणकालीन औपनिवेशिक शोषण के परिप्रेक्ष्य में भी समझा जाए। यह पुस्तक इसी दिशा में पहल करने का एक प्रयास है।
ISBN: 9788119989676
Pages: 384
Avg Reading Time: 13 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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समकालीन हिन्दी साहित्य का आलोचना से सबसे निकट का सम्बन्ध है। वह आलोचना को जितना अभिप्रेरित करता है, उतना ही उसका उपजीव्य होता है। समध्कालीन भूमि पर अपना परीक्षण करके तब आलोचना परम्परा की ओर दृष्टि डालती है, और उससे अपना सम्बन्ध तलाश करती है। सिर्फ़ प्राचीन-मध्यकालीन साहित्य पर लिखकर पंडित हुआ जा सकता है, आलोचक नहीं। आलोचक एक तरह से, एलियट के अर्थ में, समूचे साहित्य का सहवर्तित्व प्रमाणित करता है। इसके लिए अपने समकालीन साहित्य से उसकी अन्तरक्रिया और कृतकृत्यता बुनियादी महत्त्व की होती है।
बीसवीं अर्द्धशताब्दी के आसपास हिन्दी में नई कविता और नवलेखन का जो उत्थान हुआ, उसकी पहली व्यवस्थित आरम्भिक समीक्षा थी ‘हिन्दी नव-लेखन’ जो 1960 में प्रकाशित हुई। स्वतंत्र देश की पहली रचनात्मक अभिव्यक्ति का किसी क़दर सहानुभूतिपूर्ण और परिचयात्मक अध्ययन यहाँ पहली बार हुआ था। फिर अज्ञेय, उनके समवर्ती तथा अज्ञेयोत्तर कृतित्व की वैसे ही नए सन्दर्भों में व्याख्या आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी के कृतित्व का एक मुख्य अंग बन गई। प्रस्तुत कृति में ‘हिन्दी नवलेखन’ से आरम्भ करके आलोचक की दृष्टि समकालीन साहित्य के प्रति कैसे परिष्कृत होती गई, इसका बड़ा सटीक अध्ययन है। फिर यह दृष्टि कैसे समूची साहित्य-परम्परा को देखती है, वह समूचा परिदृश्य सामने आता है। इस अर्थ में आधुनिक आलोचना की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है—‘समकालीन हिन्दी साहित्य : विविध परिदृश्य’।
Patna Mein 1857 Ki Bagawat
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Hindi Bhasha Ka Vikas
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- Description: यह पुस्तक संघ एवं राज्य लोक सेवा आयोग के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के लिए भी अत्यन्त उपयोगी है। पुस्तक IAS/PCS के हिन्दी साहित्य प्रथम प्रश्न-पत्र(वैकल्पिक विषय) के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी भाषा एवं नागरी लिपि के इतिहास सम्बन्धी प्रत्येक बिन्दु का सुव्यवस्थित अध्ययन इस किताब में शामिल है।
Manipuri Kavita Meri Drashti Mein
- Author Name:
Devraj
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हिन्दी में मणिपुरी कविता के इतिहास एवं आलोचनात्मक अध्ययन पर केन्द्रित यह प्रथम कृति है। देवराज पिछले दो दशकों से मणिपुर में कार्यरत हैं और वहाँ हिन्दी प्रचार-प्रसार आन्दोलन तथा मणिपुरी साहित्य से निकट से जुड़े हैं। उनके प्रयास से विपुल परिमाण में मणिपुरी साहित्य हिन्दी में आ चुका है और हिन्दी की अनेक कृतियाँ मणिपुरीभाषी पाठकों को उपलब्ध हो चुकी हैं। स्वाभाविक रूप से मणिपुरी साहित्य के विविध पक्षों के सम्बन्ध में उनकी दृष्टि अधिक पैनी और तटस्थ है।
हिन्दी में भारतीय भाषाओं के साहित्य सम्बन्धी आलोचना तथा इतिहास ग्रन्थों की कमी नहीं है, किन्तु यह कृति कुछ अलग हटकर एक समर्थ भारतीय भाषा के काव्य का मूल्यांकन करते समय अन्य भारतीय भाषाओं और कुछ भारतेतर भाषाओं के साहित्य को भी ध्यान में रखती है। इससे अन्य भाषाओं के बीच मणिपुरी भाषा और उसके साहित्य का वास्तविक महत्त्व रेखांकित हो जाता है। यह वैशिष्ट्य इस पुस्तक को साहित्य के अध्ययन की परम्परा में अभिनव स्थान प्रदान करता है।
लेखक ने इसे इतिहास-ग्रन्थ नहीं कहा है, फिर भी पाठक इसकी सहायता से मणिपुरी कविता के इतिहास की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। ग्रन्थ का दूसरा खंड मणिपुरी भाषा में अनूदित-प्रकाशित होकर व्यापक स्वीकृति और प्रशंसा प्राप्त कर चुका है। यह इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता के लिए पर्याप्त है। अभिव्यक्ति में निजता और लालित्य के कारण समग्र सामग्री कथा-साहित्य की सी रोचकता से परिपूर्ण है।
—प्रो. ऋषभदेव शर्मा
Aadhunik Hindi Upanyaas : Vol. 1
- Author Name:
Bhisham Sahni
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प्रेमचन्द ने पहली बार इस सत्य को पहचाना कि उपन्यास सोद्देश्य होने चाहिए अर्थात् उपन्यास या कोई भी साहित्यिक विधा मनोरंजन के लिए नहीं होती वरन् वह मानव-जीवन को शक्ति और सुन्दरता प्रदान करनेवाली सोद्देश्य रचना होती है।
प्रेमचन्द में यथार्थ के जिन दो आयामों (सामाजिक और मनोवैज्ञानिक) का उद्घाटन हुआ, वे प्रेमचन्द के बाद अलग-अलग धाराओं में बँटकर तथा अपनी-अपनी धारा की अन्य अनेक सूक्ष्म बातों में संश्लिष्ट होकर बहुत तीव्र और विशिष्ट रूप में विकसित होते गए। एक ओर मनोविज्ञान की धारा बही, दूसरी ओर समाजवाद की।
प्रेमचन्दोत्तर सामाजिक उपन्यासों में मार्क्सवाद का स्वर प्रधान न भी रहा हो, किन्तु उसका प्रभाव निश्चय ही अन्तर्निहित रहा है। उसके प्रभाव के कारण ही निर्मम भाव से सामाजिक विसंगतियों को उद्घाटित किया गया। आंचलिक उपन्यासों की भी जन-चेतना उन्हें प्रेमचन्द से जोड़ती है, किन्तु अपने स्वरूप और दृष्टि में ये बहुत भिन्न हैं। इन्हें उपन्यास की एक नई विधा के रूप में ही स्वीकारना चाहिए।
यह आकस्मिक नहीं है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद उपन्यास तो बहुत सारे लिखे गए किन्तु उपलब्धि के शिखरों को वे ही छू सके जो सामाजिक जीवन के अनुभवों के प्रति समर्पित रहे, जिनकी दृष्टि की आधुनिकता एक मुद्रा या तेवर की तरह टँगी नहीं रही, बल्कि सघन जीवन-यथार्थ के अनुभवों के बीच एक रचनात्मक शक्ति बनकर व्याप्त रही।
'आधुनिक हिन्दी उपन्यास' के सफ़र पर केन्द्रित यह पुस्तक 'गोदान' से लेकर आठवें दशक तक के महत्त्वपूर्ण उपन्यासों तक आती है। उल्लेखनीय है कि चालीस से अधिक जो उपन्यास इस चर्चा के केन्द्र में हैं; उनमें से अधिकांश हिन्दी के 'क्लासिक्स' के रूप में प्रतिष्ठित हुए। यह पुस्तक केवल समीक्षा-संकलन नहीं है; सन्दर्भित उपन्यासों के रचनाकारों के आत्मकथ्य इसे एक रचनात्मक आयाम भी देते हैं जिनसे हमें इन उपन्यासों की रचना-प्रक्रिया का पता चलता है।
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