Anvaya - Khand : 1
Author:
Kunwar NarainPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 1036
₹
1295
Available
कुँवर नारायण ने लगभग सात दशकों का समृद्ध साहित्यिक जीवन जिया है। वे विश्व के श्रेष्ठ कवियों में गिने जाते हैं। उनके रचना-संसार पर समय-समय पर लिखा जाता रहा है तथा अनेक मर्मज्ञ लेखकों, कवियों एवं शोधार्थियों ने उनके व्यक्तित्व और साहित्य पर कार्य किया है। उन पर अनेक ग्रन्थ लिखे व सम्पादित किए गए हैं और देशी-विदेशी संचयनों में उनकी कविताएँ शामिल हैं। अनेक भाषाओं में उनकी कृतियों के अनुवाद हुए हैं।</p>
<p>उन्होंने अपनी कविता-यात्रा में हमें कई नायाब संग्रह दिए हैं। जहाँ उनकी कविताएँ स्मृति और परम्परा से सम्पन्न हैं, वहीं उनकी कहानियाँ क़िस्सागो के रूप में उनके अलग मिज़ाज की बानगी देती हैं। एक समालोचक और गद्यकार के रूप में उनकी आलोचना, निबन्ध, डायरी, सिने-विवेचन और भेंटवार्ताओं की पुस्तकें साहित्य, कला, जीवन, समाज, राजनीति और संस्कृति पर उनके सारभूत चिन्तन की विरल उदाहरण हैं। विश्व कवियों के उनके अनुवाद काव्यानुवाद कौशल के परिचायक हैं। वे उच्च काव्यादर्श के कवि हैं जिसका पूर्ण परिपाक उनके प्रबन्ध काव्यों में देखने को मिलता है। ऐसे उच्चादर्शों के लिए वे अतीत, इतिहास और मिथक के पास जाते हैं जिनसे रूबरू होते हुए हम अपने समय का एक आधुनिक प्रतिबिम्ब देख पाते हैं। उनकी कविता इसी सदाशयता की कविता है। बिना शोरोगुल के कविता में वह ऐसी शहदीली मिठास पैदा कर देते हैं कि उसे पढ़ते ही सृष्टि से प्यार हो उठे।</p>
<p>कुँवर नारायण जितने अच्छे कवि, आलोचक और चिन्तक हैं, उतने ही अच्छे मनुष्य। उनसे मिलते हुए कभी उनके व्यक्तित्व का आतंक नहीं महसूस होता, अपने व्यक्तित्व की लघुता नहीं महसूस होती। उनके व्यक्तित्व और रचना-संसार पर हमारे समय के सुधी चिन्तकों और साहित्यिकों के आकलन का यह खंड उन पर लिखी गई समालोचना का एक श्रेष्ठ उपहार है। उन पर लिखे आलोचनात्मक निबन्धों का यह चयन दो खंडों में है : ‘अन्वय’ और ‘अन्विति’। ‘अन्वय’ के इस खंड में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखे आलेख समाहित हैं। ‘अन्विति’ उनकी कृतियों को केन्द्र में रखकर लिखे निबन्धों का चयन है। आशा है, कुँवर नारायण के साहित्य और व्यक्तित्व में रुचि रखनेवाले सभी पाठकों के लिए ये दोनों खंड मूल्यवान साबित होंगे।
ISBN: 9789388183482
Pages: 416
Avg Reading Time: 14 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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यह पुस्तक विधिवत् लिखी गयी पुस्तक नहीं है : पिछले छह दशकों से कविता के बारे में समय-समय पर जो सोचा-गुना-लिखा, उसका संचयन है।
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स्वयं कवि होने के नाते मैंने कविता की, अल्पसंख्यकता के बावजूद, अपनी जगह खोजने-पाने की जद्दोजहद और उस पर बेजा क़ब्ज़ा न करने देने की सावधानी भरसक अलक्षित नहीं जाने दी है। कविता किसी बिल में नहीं दुबकी है और, सौभाग्य से, वह साहस-संघर्ष-सौन्दर्य-अन्त:करण का अवाँगार्द बनी हुई है। वह साहचर्य का स्थल है : कल्पना और स्वप्न की रंगभूमि भी। यह आरोप लग सकता है कि मैंने कविता से बहुत अधिक की उम्मीद लगा रखी है : मैं उसे स्वीकार करता हूँ क्योंकि मुझे कभी कविता के सिलसिले में कम-से-कम का ख़याल नहीं आया। एक कारण यह भी कि संसार की कविता कम-से-कम की नहीं अधिक-से-अधिक की भावना जगाती रही है। अगर पाठकों में कविता को लेकर कुछ उद्वेलन और उत्सुकता यह संचयन जगा पाये तो उसकी मेरी लम्बी और निस्संकोच पक्षधरता अकारथ नहीं जायेगी।
Shakuntika : Srijan Aur Drishti
- Author Name:
Anil Singh
- Book Type:

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Description:
ख्यात उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल के उपन्यास ‘शकुंतिका’ पर केन्द्रित आलोचना-पुस्तक उनकी रचनाधर्मिता की सार्थकता को रेखांकित करने का गम्भीर प्रयास है। इसके साथ ही यह इस उपन्यास के बहाने भारतीय समाज में मौजूद पितृसत्तात्मक मानसिकता और पुरुषवादी वर्चस्व के दुष्परिणामों तथा स्त्री-पुरुष समानता की महत्ता को समझने-समझाने का उपक्रम भी है।
‘शकुंतिका’ में उपन्यासकार ने न केवल बेटियों के प्रति हमारे समाज में मौजूद रूढ़िवादी धारणाओं को दिखलाया है, बल्कि समय के साथ उन धारणाओं में आ रहे सकारात्मक बदलाव को भी रेखांकित किया है। उनकी इस रचना-दृष्टि को यह पुस्तक रूढ़िवादी मान्यताओं के बरअक्स विश्वास की परम्परा के निर्माण के रूप में परिभाषित करती है। यह दिखलाती है कि किसी भी समाज के लिए केवल आदर्श विचारों का होना पर्याप्त नहीं है। उन्हें व्यावहारिक रूप में लागू किए बग़ैर वास्तविक प्रगति नहीं हो सकती। ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ की सूक्ति सँजोने के बावजूद हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति सामाजिक भेदभाव और लैंगिक असमानता के बने रहने का यही कारण है। इस सन्दर्भ में यह पुस्तक सामाजिक-सांस्कृतिक उत्थान के लिए आवश्यक जीवन-मूल्यों के प्रति रचनात्मक आग्रह को भी सप्रमाण रेखांकित करती है।
निस्सन्देह, यह पुस्तक हिन्दी साहित्य के अध्येताओं के साथ-साथ सुधी पाठकों के लिए भी एक संग्रहणीय है।
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