Anubhav Aur Utkarsh
Author:
AartiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 316
₹
395
Available
जीवन को पढ़ने के दो प्रमुख रास्ते हैं—संसार और साहित्य। संसार का संसरण और शब्द और अर्थ का ठीक-ठीक मेल हमारे अस्तित्व की निरन्तर परिवर्तित अवस्थाओं का न केवल प्रकटीकरण है बल्कि अन्वेषण भी। यदि कोई कलाकृति हमें नवीन दृष्टिबोध का उल्लास-अनुभव देने में असमर्थ है, तो जान लीजिए, वह केवल एक स्नायविक हलचल भर है, रचनात्मक अनुष्ठान की प्रक्रिया नहीं।</p>
<p>किसी साहित्यिक पत्रिका के सम्पादकीय में यदि हर बार अनेक चिन्तनपरक, हृदयग्राही सूक्त-वाक्य पढ़ने को मिलें, तो बहुत सम्भव है, आप भी मेरी तरह</p>
<p>डॉ. ब्रजरतन जोशी के सम्पादकीय पढ़ते हों। ऐसे विरल, साफ और स्पष्ट चिन्तन को समग्रता में पुस्तकाकार रूप में देखना मेरे लिए सुखद अनुभव है।</p>
<p>यह निश्चित ही डॉ. ब्रजरतन जोशी की अकादमिक दक्षता है जिसने उनके सुघड़ सम्पादन में राजस्थान साहित्य अकादेमी की पत्रिका ‘मधुमती’ को समकालीन साहित्य के लिए एक उर्वर और विचारोत्तेजक जमीन तैयार करने की निपुणता दी है। </p>
<p>अपने इन लेखों में एक ओर वह सांस्कृतिक विषय उठाते हैं, दूसरी ओर विभिन्न विभूतियों के अवदान को रेखांकित करते हैं। मसलन ‘ग्रन्थमालाएँ और साहित्य’ या ‘आयोजन का मर्म’ विषय पर उनके उद्घाटन पढ़िए और उसके साथ गांधी, विवेकानन्द पर उनकी टीप। इसी तरह ‘साहित्य पगडंडी है, मार्ग नहीं’ के बरअक्स प्रसाद, रेणु और निर्मल पर लिखे उनके लेख पढ़ जाइए, आपके सामने एक बड़ा वितान स्वतः ही खुलता जाएगा। ज्ञान की विविध धाराओं पर डॉ. जोशी की जानकारी और पकड़ विस्मित तो करती ही है, समग्रता में अपनी परम्परा को जानने के लिए उल्लसित भी करती है।</p>
<p>—गगन गिल
ISBN: 9788119133420
Pages: 108
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
रामविलास शर्मा उन भारतीय लेखकों, विचारकों, बुद्धिजीवियों और मार्क्सवादी चिन्तकों में अग्रणी हैं जिन्होंने अपने समय में लेखन के ज़रिए निरन्तर और सार्थक हस्तक्षेप किया है। अपने समय और समाज की समस्याओं पर विचार किया है और उनके निदान भी सुझाए हैं।
अपने पहले लेख ‘निराला जी की कविता’ में उन्होंने लिखा था, ‘निराला जी की कविता नए युग की आँखों से यौवन को देखती हैं।’ उन्होंने सदैव नए युग की आँखों को महत्त्व दिया। आज जब बहुत सारे युवाओं ने हथियार डाल दिए हैं, और लेखक-आलोचक उत्तर-आधुनिकता और उत्तर-संरचनावाद जैसी बहसों में लिप्त हैं, हमें रामविलास जी की अडिगता, अविचलता और मार्क्सवादी दर्शन में अटूट आस्था तथा जन-संघर्षों में विश्वास को याद करने की ज़रूरत है।
रामविलास शर्मा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और निराला की अगली कड़ी हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि तुलसीदास को जो राम के नाम पर होता था, वही अच्छा लगता था। देश और जनता के हित में जो होता है, वह मुझे अच्छा लगता है। उनके लेखन की मुख्य चिन्ता हिन्दी और भारत रहे।
सम्भवत: बीसवीं सदी में विश्व की किसी और भाषा में कोई ऐसा दूसरा आलोचक नहीं है जिसने अपने जातीय समाज, जातीय भाषा और साहित्य के सम्बन्ध में एक साथ क्रान्तिकारी स्थापनाएँ दी हों। वे साहित्य समीक्षक, सभ्यता समीक्षक और संस्कृति समीक्षक एक साथ रहे हैं। यह पुस्तक आज के भारत के सन्दर्भ में उनका पुनर्पाठ करने का प्रयास है—अपने लम्बे लेखन-काल में उन्होंने जिन-जिन विषयों को व्यापक ढंग से छुआ, उनके सम्बन्ध में उनके विचारों को दुबारा पढ़ने का भी और वर्तमान घटाटोप में कोई रास्ता निकालने का भी।
Doosare Shabdon Mein
- Author Name:
Nirmal Verma
- Book Type:

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निर्मल वर्मा के लिए निबन्ध हमेशा ऐसी विधा रही जिसके माध्यम से उन्होंने सभ्यता, संस्कृति, साहित्य और रचनात्मकता के मूलभूत प्रश्नों पर सोचते हुए जितनी बाहर, उतनी ही अपने भीतर भी यात्रा की। किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से ज़्यादा सत्य के पीछे एक सजग यात्रा।
इस पुस्तक में शामिल निबन्ध इस लिहाज से और भी विशेष हैं। भाषा, अस्मिता, परम्परा और आधुनिकता के बार-बार चिह्नित प्रश्नों को यहाँ उन्होंने एक बार फिर से अपने चिन्तन का विषय बनाया है।
इसमें कुछ साक्षात्कार भी संकलित हैं जिनके प्रश्नों ने निर्मल वर्मा को पुन: एक अवसर दिया कि वे अपने सोचे और कहे गए को नए ढंग से व्यक्त करें। इस बहाने उनके कुछ अप्रत्याशित पहलू भी उजागर हुए।
स्वतंत्रता के समय देश को नए सिरे से रचने के जो स्वप्न हमने देखे, ख़ासकर सांस्कृतिक सन्दर्भ में, क्या वे हमारे साथ बने रहे या धीरे-धीरे हमारे हाथ से छूट गए? हमारी प्राथमिकताओं ने हमें क्या दिया, और अगर कोई नई शुरुआत करनी ज़रूरी है तो वह कहाँ से हो?
ऐसे अनेक प्रश्नों पर मनन-रत ये निबन्ध हमारी वर्तमान दुविधाओं और दुश्चिंताओं के लिए भी उपयोगी कहे जा सकते हैं।
Doosari Parampra Ki Khoj
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

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‘दूसरी परम्परा की खोज’ में नामवर सिंह आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के माध्यम से भारतीय संस्कृति और साहित्य की उस लोकोन्मुखी क्रान्तिकारी परम्परा को खोजने का सर्जनात्मक प्रयास करते हैं जो कबीर के विद्रोह के साथ ही सूरदास के माधुर्य और कालिदास के लालित्य से रंगारंग है।
आठ अध्यायों वाली इस पुस्तक के प्रत्येक अध्याय का प्रस्थान-बिन्दु आचार्य द्विवेदी की कोई-न-कोई कृति है, किन्तु यह पुस्तक उन कृतियों की व्याख्या मात्र नहीं है और न उनके मूल्यांकन का प्रयास है बल्कि उनके माध्यम से उस मौलिक इतिहास-दृष्टि के उन्मेष को पकड़ने की कोशिश की गई है जिसके आलोक में समूची परम्परा एक नए अर्थ के साथ उद्भासित हो उठती है।
‘दूसरी परम्परा की खोज’ से एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है जो अपनी सहजता में मोहक है, अपने संघर्ष और पराजय में भी गरिमामय है और अपनी मानव-आस्था में परम्परा के सर्वोत्तम मूल्यों का साक्षात् विग्रह है—कुटज के समान साधारण होते हुए भी मनस्वी और देवदारु के समान मस्ती से झूलते हुए भी अभिजात तथा अपनी ऊँचाइयों में एकाकी। आलोचना कितनी सर्जनात्मक हो सकती है, इसका उदाहरण है—‘दूसरी परम्परा की खोज’।
Path Sampadan Ke Siddhant
- Author Name:
Kanhaiya Singh
- Book Type:

- Description: प्राचीन कवियों के पाठों का जैसा वैज्ञानिक सम्पादन चाहिए, वैसा हिन्दी में कम हुआ है। जायसी और तुलसी के पाठ-सम्पादन के महत्त्वपूर्ण कार्य हुए हैं। अन्य कवियों के पाठों के अभी इतने सन्तोषजनक परिणाम नहीं मिले हैं। भाषा विषयक शोध, ऐतिहासिक शोध तथा रचनाकार की साहित्यिक सैद्धान्तिक समालोचना के लिए सर्वप्रथम उसकी रचना का मूलपाठ स्थिर होना आवश्यक होता है। इस पुस्तक में पाठ-सम्पादन के सिद्धान्त और अन्य सहायक विषयों की चर्चा की गई है।
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