Aastha Aur Saundarya
Author:
Ramvilas SharmaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 716
₹
895
Available
डॉ. रामविलास शर्मा की यह मूल्यवान आलोचनात्मक कृति भारोपीय साहित्य और समाज में क्रियाशील आस्था और सौन्दर्य की अवधारणाओं का व्यापक विश्लेषण करती है। इस सन्दर्भ में रामविलास जी के इस कथन को रेखांकित किया जाना चाहिए कि अनास्था और सन्देहवाद साहित्य का कोई दार्शनिक मूल्य नहीं है, बल्कि वह यथार्थ जगत की सत्ता और मानव-संस्कृति के दीर्घकालीन अर्जित मूल्यों के अस्वीकार का ही प्रयास है। उनकी स्थापना है कि साहित्य और यथार्थ जगत का सम्बन्ध सदा से अभिन्न है और कलाकार जिस सौन्दर्य की सृष्टि करता है, वह किसी समाज-निरपेक्ष व्यक्ति की कल्पना की उपज न होकर विकासमान सामाजिक जीवन से उसके घनिष्ठ सम्बन्ध का परिणाम है।</p>
<p>रामविलास जी की इस कृति का पहला संस्करण 1961 में हुआ था। इस संस्करण में दो नए निबन्ध शामिल हैं। एक ‘गिरिजाकुमार माथुर की काव्ययात्रा के पुनर्मूल्यांकन’ और दूसरा ‘फ़्रांस की राज्यक्रान्ति तथा मानवजाति के सांस्कृतिक विकास की समस्या’ को लेकर। इस विस्तृत निबन्ध में लेखक ने दो महत्त्वपूर्ण सवालों पर ख़ास तौर से विचार किया है कि क्या मानवजाति के सांस्कृतिक विकास के लिए क्रान्ति आवश्यक है और फ़्रांस ही नहीं, रूस की समाजवादी क्रान्ति भी क्या इसके लिए ज़रूरी थी? कहना न होगा कि समाजवादी देशों की वर्तमान उथल-पुथल के सन्दर्भ में इन सवालों का आज एक विशिष्ट महत्त्व है।</p>
<p>संक्षेप में, यह एक ऐसी विवेचनात्मक कृति है जो किसी भी सौन्दर्य-सृष्टि की समाज-निरपेक्षता का खंडन करते हुए उसके सामाजिक-सांस्कृतिक सम्बन्धों और आस्थावादी मूल्यों का तलस्पर्शी उद्घाटन करती है।
ISBN: 9788126703654
Pages: 257
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
Recommended For You
Prasad Ka Kavya
- Author Name:
Premshankar
- Book Type:

-
Description:
समालोचक डॉ. प्रेमशंकर की एक बहुचर्चित पुस्तक है ‘प्रसाद के काव्य’।
प्रसाद के सन्दर्भ में ग़ौर करनेवाली बात यह है कि उनके काव्य को केन्द्र में रखकर लिखा गया यह पहला शोध-प्रयत्न था, और छायावादी कविता के उस महाकवि को लेखक ने भीतर-बाहर से गम्भीरतापूर्वक समझना चाहा था। प्रसाद एक संश्लिष्ट कवि हैं और उनके रचना-कर्म तक पहुँचने का कार्य सरल नहीं है। दूसरे शब्दों में, किसी भी अध्येता के लिए यह एक चुनौती है और समीक्षक के नाते प्रेमशंकर ने इस चुनौती को स्वीकार किया है। सौभाग्य से उन्हें आचार्य केशवप्रसाद मिश्र से 'कामायनी’ पढ़ने का अवसर मिला था, जिसे आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के निर्देशन ने नया विस्तार दिया। यही कारण है कि यह कृति पिछले तीन दशकों से एक मानक-प्रयत्न के रूप में स्वीकृत है।
Hindi Sahitya Ka Aalochanatmak Itihas
- Author Name:
Ramkumar Verma
- Book Type:

-
Description:
“साहित्य और संस्कृति एक वृन्त के दो पुष्प हैं, और उनका पोषण एक ही रस से होता है। एक ही रस में रचे-पचे तथा परस्पर अभिन्न अन्तरंगता से जुड़े ऐतिहासिक चेतना के अद्वैत तत्त्व हैं।” ऐसी लेखक की अवधारणा है।
डॉ. वर्मा साहित्येतिहास को धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान और सामाजिक धारणाओं के अखंड प्रतिफल के रूप में परिभाषित करते हैं, इसलिए आपके समक्ष प्रस्तुत ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ सांस्कृतिक सन्दर्भों की कसौटी पर अत्यन्त प्रामाणिक और विश्वसनीय बनकर उतरता है।
आचार्य रामकुमार वर्मा का यह इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास के बाद ही नहीं लिखा गया, बल्कि शुक्ल जी के इतिहास-लेखन की अवधारणाओं से भिन्न प्रत्ययों के आधार पर लिखा गया।
लेखक ने संस्कृति, समाज, धर्म आदि को साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए प्रभावकारी और पोषणीय तत्त्व के रूप में स्वीकार किया। इसलिए उनका इतिहास केवल साहित्य का इतिहास न होकर संवत् 750 से लेकर संवत् 1750 तक के मनुष्य की सोच, भावुकता, समन्वयशीलता, प्रतिरोधात्मकता, रक्षणशीलता, आचरणपरकता और समग्र क्रियाशीलता का इतिहास भी है। यह जितना साहित्य का इतिहास है, उतना ही संस्कृति विमर्श है।
डॉ. वर्मा ने सन्धिकाल और चरणकाल पर जितने विस्तार और गम्भीरता से प्रमाण-पुष्ट उदाहरणों द्वारा विचार किया है, वैसा किसी साहित्य के इतिहासकार ने नहीं किया।
कलाकाल या रीतिकाल का इतिहास भी लिखा है और मेरी राय में वह रीतिकाल पर लिखे गए इतिहासों से अधिक प्रामाणिक और व्यवस्थित है। भक्तिकाल का एक अर्थ में इतिहास तो वर्मा जी ने ही लिखा।
इस इतिहास-ग्रन्थ से आदिकालीन और भक्तिकालीन साहित्य की गम्भीर समझ विकसित होती है और साहित्य के निर्वचन की शक्ति प्राप्त होती है।
Anuvad Vigyan Ki Bhumika
- Author Name:
Krishan Kumar Goswami
- Book Type:

-
Description:
अनुवाद आधुनिक युग में एक सामाजिक आवश्यकता बन गया है। भूमंडलीकरण से समूचा संसार ‘विश्वग्राम’ के रूप में उभरकर आया है और इसी कारण विभिन्न भाषा-भाषी समुदायों तथा ज्ञानक्षेत्रों में अनुवाद की महत्ता और सार्थकता में वृद्धि हुई है। इधर भाषाविज्ञान और व्यतिरेकी विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में हो रहे अनुवाद चिन्तन से अनुवाद सिद्धान्त अपेक्षाकृत नए ज्ञानक्षेत्र के रूप में उभरा है तथा इसके कलात्मक स्वरूप के साथ-साथ वैज्ञानिक स्वरूप को भी स्पष्ट करने का प्रयास हो रहा है। इसीलिए अनुवाद ने एक बहुविधात्मक और अपेक्षाकृत स्वायत्त विषय के रूप में अपनी पहचान बना ली है। इसी परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत पुस्तक में सैद्धान्तिक चिन्तन करते हुए उसे सामान्य अनुवाद और आशु-अनुवाद की परिधि से बाहर लाकर मशीनी अनुवाद के सोपान तक लाने का प्रयास किया गया है। ‘अनुप्रायोगिक आयाम’ में साहित्य, विज्ञान, जनसंचार, वाणिज्य, विधि आदि विभिन्न ज्ञानक्षेत्रों को दूसरी भाषा में ले आने की इसकी विशिष्टताओं की जानकारी दी गई है। ‘विविध अवधारणाएँ’ आयाम में तुलनात्मक साहित्य, भाषा-शिक्षण, शब्दकोश आदि से अनुवाद के सम्बन्धों के विवेचन का जहाँ प्रयास है, वहाँ अनुसृजन और अनुवाद की अपनी अलग-अलग सत्ता दिखाने की भी कोशिश है।
अनुवाद की महत्ता और प्रासंगिकता तभी सार्थक होगी जब इसकी भारतीय और पाश्चात्य परम्परा का भी सिंहावलोकन किया जाए। इस प्रकार अनुवाद के विभिन्न आयामों और पहलुओं पर यह प्रथम प्रयास है। अतः उच्चस्तरीय अध्ययन तथा गम्भीर अध्येताओं के लिए इसकी सार्थक और उपयोगी भूमिका रहेगी।
Geetavali (Tulsidas Krit)
- Author Name:
Tulsidas
- Book Type:

-
Description:
‘गीतावली’ को ध्यान से पढ़ने पर 'रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका’ की अनेक पंक्तियों की अनुगूँज सुनाई पड़ती है। ‘रामचरितमानस’ के मार्मिक स्थल ‘गीतावली’ में भी कथा-विधान के तर्क से हैं और वर्णन की दृष्टि से भी उतने ही मार्मिक बन पड़े हैं। लक्ष्मण की शक्ति का प्रसंग भ्रातृभक्ति का उदाहरण ही नहीं है किसी को भी विचलित करने के लिए काफ़ी है। भाव संचरण और संक्रमण की यह क्षमता काव्य विशेषकर महाकाव्य का गुण माना जाता है।
‘गीतावली’ में भी कथा का क्रम मुक्तक के साथ मिलकर भाव संक्रमण का कारण बनता है। कथा का विधान लोक सामान्य चित्त को संस्कारवशीभूतता और मानव सम्बन्धमूलकता के तर्क से द्रवित करने की क्षमता रखता है। ‘मो पै तो कछू न ह्वै आई’ और ‘मरो सब पुरुषारथ थाको’ जैसे राम के कथन सबको द्रवित करते हैं। यह प्रकरण वक्रता मात्र नहीं है, बल्कि प्रबन्धवक्रता के तर्क से ही प्रकरण में वक्रता उत्पन्न होती है। असंलक्ष्यक्रमव्यंगध्वनि के द्वारा ही यहाँ रस की प्रतीति होती है। राग-द्वेष, भाव-अभाव मूलक पाठक या श्रोता जब निबद्धभाव के वशीभूत होकर भावमय हो जाते हैं तो वे नितान्त मनुष्य होते हैं और काव्य की यही शक्ति ‘गीतावली’ को भी महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृति बना देती है।
Nirala Ka Katha Sahitya
- Author Name:
Durga Singh
- Book Type:

-
Description:
यह किताब निराला के न केवल कथा, बल्कि समूचे साहित्य को नयी निगाह से देखने का न्यौता देती है और निराला के कथा साहित्य और उनकी कविता को अलगाने वाली समझ भी खंडित करती है। साथ ही निराला के बहाने देश के स्वाधीनता आंदोलन की याद के कारण आजादी के अमृतकाल में विगत को नयी प्रासंगिकता प्रदान करती है।
निराला अपनी प्रसिद्धि के बावजूद कुछ ही लेखकों के गम्भीर विवेचन का विषय बने। उनकी रचनात्मकता का दाय तो बहुतों ने ग्रहण किया लेकिन विवेचन कम ने किया। जिन्होंने किया भी उनकी निगाह कविता पर अधिक केंद्रित रही। यह किताब उनके लेखन के अभिन्न अंग, कथा साहित्य के चुनिंदा पाठों का विश्लेषण प्रस्तुत करके निराला साहित्य के सहज बोध को व्यापक पैमाने पर संपन्न बनायेगी। निराला की कहानियों के महत्व को समझने में इस किताब को पढ़ने का फिलहाल कोई विकल्प नजर नहीं आता है। इस किताब को पढ़ने के उपरांत कोई भी पाठक निराला के कथा साहित्य को अधिक सजग होकर पढ़ेगा और उसके लिए यह साहित्य ऐसे तमाम अर्थ प्रेषित करेगा जिनको खोलना उसकी जिम्मेदारी में शामिल होगा।
-गोपाल प्रधान
Kriti Vikriti Sanskriti
- Author Name:
Satyaprakash Mishra
- Book Type:

-
Description:
सत्यप्रकाश मिश्र हिन्दी आलोचना में साहित्यिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सन्दर्भों एवं उनसे निःसृत समाजवादी मान-मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में किसी भी कृत और प्रवृत्ति का मूल्यांकन करनेवाले एक सेक्यूलर आलोचक थे। समकालीन हिन्दी आलोचना भाषा को उन्होंने जो आवाज़ दी, वह अपने आप में अकेली और अनोखी है। इस आवाज़ में जहाँ तीक्षा असहमति का स्वर है वहाँ भी सप्रमाण तर्कशक्ति के साथ विषय और सन्दर्भों का विवेकपूर्ण प्रकटन है जिसको पढ़कर लगता है कि हिन्दी आलोचना के लिए इस तरह के आलोचना कर्म की ज़रूरत आज और भी अधिक है, क्योंकि समकालीन हिन्दी आलोचना परिचय-धर्मिता का शिकार हो रही है।
प्रो. मिश्र यह मानते हैं कि आलोचक का कार्य केवल उद्धारक या प्रमोटर का नहीं होना चाहिए। रचनाकार, उसके परिवेश और कृति को समग्रता में समझने के कार्य को वह आलोचना का प्रमुख कार्य मानते हैं। इस पुस्तक में नवें दशक की हिन्दी कविता पर लिखा उनका लम्बा लेख इसका उदाहरण है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी और नन्ददुलारे वाजपेयी के पश्चात् व्यापक सामाजिक चेतना वाले आलोचकों—रामविलास शर्मा, विजयदेव नारायण साही, नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय की आलोचना-दृष्टि, पद्धति और प्रविधि तथा मूल्यांकन क्षमता की परख करते हुए इस पुस्तक में सत्यप्रकाश मिश्र ने हिन्दी आलोचना के विकास-क्रम को निर्दिष्ट किया है। वे अपने प्रिय आलोचक साही की ही तरह यह मानते थे कि आलोचना के मुहावरे को ग़लत बनाम सही, झूठ या अपर्याप्त सच बनाम सच का रूप ग्रहण करना ही चाहिए। ‘कृति विकृति संस्कृति’, इसी आलोचनात्मक मुहावरे का रूपाकार है।
Kavi Ka Akelapan
- Author Name:
Mangalesh Dabral
- Book Type:

-
Description:
कवियों के गद्य में कोई न कोई विशेषता तो होती होगी जो हम उसे अक्सर आम गद्य से अलग करके देखने की कोशिश करते हैं। वह विशेषता क्या हो सकती है? क्या कवि का बादल लिखना हम पर छाया कर जाता है? क्या कवि के बारिश लिखने से हम भीगने लगते हैं? कवि का प्रेम या ख़ून के बारे में कुछ लिखना हमें बेचैन करने लगता है? मंगलेश डबराल का गद्य पढ़ते हुए कितनी ही बार हम संवेदना के कई ऐसे बारीक़ उतार-चढ़ावों से गुज़र सकते हैं। मगर यह कहना कि उनका गद्य दरअसल उनकी कविता का ही एक आयाम है, इस गद्य की विशेषता को पूरा अनावृत नहीं करता। इससे गुज़रते हुए सबसे पहले तो यही लगता है कि यह गद्य क़तई महत्त्वाकांक्षी नहीं है। यह सिर्फ़ भाषा के स्तर पर आपको मोहित नहीं करता, बल्कि कविताओं और एक कवि के दूसरे कई सरोकारों की समाजशास्त्रीय और राजनीतिक विवेचना की गहराई इसे असली उठान देती है। उसमें अनुभव की गहराई, विचार की प्रतिबद्धता और शिल्प की सुन्दरता एक साथ बुनी हुई है।
‘कवि का अकेलापन’ दो हिस्सों में बँटा हुआ है। पहले हिस्से में मंगलेश अपने कुछ प्रिय कवियों की रचनाओं, उनकी पंक्तियों को खोलते हुए उनके अर्थ-स्तरों और उस भावभूमि तक पहुँचने की कोशिश करते हैं, जहाँ से वे पंक्तियाँ अवतरित हुई होंगी और ऐसा करते हुए वह अलग-अलग स्थितियों, विषयों और विचारों के सन्दर्भ में उस कवि के और साथ ही स्वयं अपनी सोच और कल्पना को उघाड़ते हैं। यह हमें एक साथ दो-दो कवियों के भीतरी लोक में समाहित काव्यात्मक स्पन्दन और विमर्श के संसार की अद्भुत छवियाँ दिखाता है। दूसरे हिस्से में कवि की बेतरतीब डायरी है। यह डायरी एक बेचैन व्यक्ति, एक आम नागरिक, एक पुत्र, एक दोस्त, एक संगीत-प्रेमी और इन सबसे थोड़ा ज़्यादा एक कवि के रूप में मंगलेश डबराल को हमारे सामने खोलने का काम करती है और अन्ततः हम यह सोचकर विस्मित हुए बिना नहीं रह पाते कि एक कवि अपने अकेलेपन में किस तरह अपने चारों ओर फैले दृश्यों, बदलावों, अदृश्य दबावों, विस्मृतियों, तकलीफ़ों की नज़र न आनेवाली वजहों और न जाने कितने ही दूसरे अमूर्तों की शिनाख़्त कर उन्हें मूर्त कर सकता है। अगर इसी किताब में प्रयुक्त शीर्षकों की मदद से कहा जाए तो यह ‘असमय के बावजूद’, ‘प्रसिद्धि के उद्योग’ और ‘बर्बरता के विरुद्ध’ एक कवि का ‘लौटते हुए पूर्णतर’ होते जाना है।
Samvaad Anayas
- Author Name:
Govind Mishra +1
- Book Type:

-
Description:
इस पुस्तक के रचनाक्रम के बारे में सुपरिचित कथाकार गोविन्द मिश्र के इन शब्दों को उद्धृत किया जाना चाहिए—'ऐसा शायद हमेशा रहा होगा जब एक समय में लिख रहे दो साहित्यकार पारस्परिक संवाद में लम्बे समय के लिए रहे हों—उनकी हर रचना में पारस्परिक साझेदारी रही हो। मुंशी अजमेरी और मैथिलीशरण गुप्त, गुलेरी जी और रामचन्द्र शुक्ल आदि में ऐसा कुछ सुना जाता है। ये वे दिन थे जब चीज़ें अपेक्षाकृत साफ़ थीं, आस्थाएँ भी सुनिश्चित थीं। आज जैसा आस्था का संकट तब नहीं था। इसलिए तब रचनाशीलता में साझेदारी फ़ॉर्म, भाषा, छन्द...इन तक सीमित रहती होगी। जो हमारा समय है, उसमें संवाद, साझेदारी रचना के पहले की...ये ज़्यादा ज़रूरी हो गए हैं...कि हम एक-दूसरे को भटकने से बचाए रख सकें, जो साहित्य में संघर्ष का रास्ता है, उसी पर चलने की अपनी ज़िद बनाए रख सकें। जो तकलीफ़ें, विषाद, संत्रास उपजे, उन्हें आपस में बाँटते हुए चल सकें—चलने की गरिमा महसूस करते हुए। बल्लभ और मेरा संवाद जो इधर अनायास हुआ, वह इसी कशिश को लेकर हुआ है।’
एक समय और एक ही विधा में लिख रहे दो संवेदनशील साहित्यकारों—गोविन्द मिश्र और बल्लभ सिद्धार्थ—के इस संवाद में प्रेरणा एक-दूसरे को तर्क से काटने की नहीं, बल्कि दूसरे की बात को कुरेदने और विस्तार करने की है। यह संवाद उन सभी सवालों से जूझता है, जिनसे आज का कोई भी रचनाकार किनारा नहीं कर सकता—दुःख, संत्रास, जीवन, संसार, आज का समय, लेखकीय कर्म, अध्यात्म और धर्म, समाज या व्यवस्था और लेखक का विरोध, उस विरोध का स्वरूप, साहित्य और कला की पहचान, कलाकार की मृत्यु...और, और भी जाने कितने सवाल। इन बड़े सवालों की तह में हमें दो लेखकों की कशमकश की झलक भी मिलती है। अगर लेखक की कार्यशाला जैसी कोई चीज़ हो सकती है तो यहाँ वह भी है।
संक्षेप में कहा जाए तो हिन्दी में अपनी तरह की यह पहली और दुर्लभ पुस्तक है।
Madhyakaleen Hindi Kavya Bhasha
- Author Name:
Ramswaroop Chaturvedi
- Book Type:

-
Description:
काव्यभाषा साहित्य चिन्तन की नई दिशा है। इस दृष्टि से यहाँ समूचे मध्यकालीन काव्य को एक साथ देखने-परखने का पहली बार प्रयास हुआ है। आधुनिक समीक्षा-प्रक्रिया और मध्यकालीन काव्य-धारा का यह सम्पर्क जितना जीवन्त है, उतना ही विचारोत्तेजक भी। सन्त कबीरदास से लेकर आचार्य भिखारीदास तक सभी प्रमुख भक्तिकाल और रीतिकाल के कवियों पर अलग-अलग अध्ययन है। भाषा, शिल्प, विधान के विविध पक्षों को इस कृति में एक सार्थक अन्विति मिलती है, जहाँ कविता बनने की प्रक्रिया ही समीक्षा के केन्द्र में है। अन्त में कई परिशिष्ट अध्ययन को व्यावहारिक स्तर पर उपयोगी बनाते हैं।
Kuchh Aur Gadya Rachanayen
- Author Name:
Shamsher Bahadur Singh
- Book Type:

-
Description:
शमशेर जी के ये निबन्ध बरबस इस तथ्य को गहराई से रेखांकित करते हैं कि मात्र कविता में ही नहीं, बल्कि गद्य में भी वे लगातार अपने समकालीनों के कृतित्व से जुड़े रहे हैं। उसको पढ़ते हैं, उस पर सोचते हैं और लिखते भी हैं, बल्कि कहीं न कहीं इसे वे अपना आत्मीय फ़र्ज़ भी मानते रहे हैं। अपने बराबर के साथी अपने ज्येष्ठ व कनिष्ठ समकालीनों पर दिल खोलकर इतना अधिक लिखनेवाले साहित्यकार बहुत कम हैं। ‘दोआब’ की ही तरह इस संग्रह में भी उन्होंने अपनी परम्परा के श्रेष्ठ कवियों पर भी लिखा है, जैसे ग़ालिब और रहीम।
यह एक बात ग़ौर करने की है, शमशेर जी के इन निबन्धों में लालित्य किस तरह छिपा है। एकाध निबन्धों को छोड़ प्रायः सभी निबन्धों में शमशेर जी के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू नज़र आते हैं। इन निबन्धों के विषय ललित नहीं हैं, पर अपनी प्रस्तुति और प्रभाव में ये बहुत दूर तक ललित हैं। साहित्य से जुड़े अन्य विषयों पर भी शमशेर जी का चिन्तन इस संग्रह में शामिल निबन्धों में देखा जा सकता है। ये वे चिन्ताएँ हैं, जो शमशेर के अन्दरूनी कलाकार को मथती रहती हैं। चाहे वे ‘सामाजिक सत्य और रचना का माध्यम’ हो या ‘अमूर्त कला’ या फिर हल्का-फुल्का लगनेवाला ‘आशु कविता’ जैसा विषय। उनका जागरूक साहित्यकार भाषा और साहित्य पर एक नए दृष्टिकोण की माँग भी करता है।
Prithvi-Putra
- Author Name:
Dr. Vasudeva Sharan Agrawala
- Book Type:

- Description: "‘पृथिवी-पुत्र’ डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा समय-समय पर लिखे गए उन लेखों और पत्रों का संग्रह है, जिनमें जनपदीय दृष्टिकोण से साहित्य और जीवन के सम्बन्ध में कुछ विचार प्रकट किए गए थे। इस दृष्टिकोण की मूल प्रेरणा पृथिवी या मातृभूमि के साथ जीवन के सभी सूत्रों को मिला देने से उत्पन्न होती है। ‘पृथिवी-पुत्र’ का मार्ग साहित्यिक कुतूहल नहीं है, यह जीवन का धर्म है। जीवन की आवश्यकताओं के भीतर से ‘पृथिवी-पुत्र’ भावना का जन्म होता है। ‘पृथिवी-पुत्र’ धर्म में इसी कारण प्रबल आध्यात्मिक स्फूर्ति छिपी हुई है। ‘पृथिवी-पुत्र’ दृष्टिकोण हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व और विकास की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के साथ हमारा परिचय कराता है। पृथिवी को मातृभूमि और अपने आपको उसका पुत्र समझने का अर्थ बहुत गहरा है। यह एक दीक्षा है, जिससे नया मन प्राप्त होता है। पृथिवी-पुत्र का मन मानव के लिए ही नहीं, पृथिवी से सम्बन्धित छोटे-से तृण के लिए भी प्रेम से खुल जाता है। पृथिवी-पुत्र की भावना मन को उदार बनाती है। जो अपनी माता के प्रति सच्चे अर्थों में श्रद्धावान् है, वही दूसरे के मातृप्रेम से द्रवित हो सकता है। मातृभूमि को जो प्रेम करता है, वह कभी हृदय की संकीर्णता को सहन नहीं कर सकता। जनता के पास नेत्र हैं, लेकिन देखने की शक्ति उनमें साहित्यसेवी को भरनी है। भारतीय साहित्यसेवी का कर्तव्य इस समय कम नहीं है। उसे अपने पैरों के नीचे की दशांगुल भूमि से पृथिवी-पुत्र धर्म का सच्चा नाता जोड़कर उसी भावना और रस से सींच देना है।
Hindi Bhasha : Sanrachna Ke Vividh Aayam
- Author Name:
Ravindranath Shrivastava
- Book Type:

-
Description:
प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी भाषा की संरचना के विविध आयामों पर प्रकाश डालती है। विभिन्न व्याकरणाचार्यों के विचारों से सहमति-असहमति प्रकट करते हुए प्रो. श्रीवास्तव ने विभिन्न लेखों में तार्किक उक्तियों द्वारा अपने पक्ष को पुष्ट किया है। उनके चिन्तन की गहराई तथा साफ़-सुथरा विवेचन सर्वत्र विद्यमान है। हिन्दी भाषा की व्याकरणिक संरचना को आरेख के रूप में सम्भवतः पहली बार प्रो. श्रीवास्तव ने तैयार किया था, उसे भी इस पुस्तक में दे दिया गया है। पाठकों के सम्मुख यह पुस्तक रखते हुए दुःख और सन्तोष दोनों की मिली-जुली अनुभूति हो रही है। दुःख इस बात का कि यह पुस्तक उनके जीवनकाल में प्रकाशित न हो सकी, और सन्तोष यह है कि उनका यह महत्त्वपूर्ण अध्ययन पाठकों तक पहुँच पा रहा है।
आशा है, यह पुस्तक तथा इस शृंखला की अन्य पुस्तकें भी प्रो. श्रीवास्तव के भाषा-चिन्तन को प्रभावशाली ढंग से अध्येताओं तक पहुँचाएँगी और हिन्दी भाषा के प्रति स्नेह एवं लगाव रखनेवाले मनीषी भाषाविद् प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव की स्मृति को ताज़ा रखेंगे।
Meera Aur Meera
- Author Name:
Mahadevi Verma
- Book Type:

-
Description:
‘मीरा और मीरा’ छायावाद की मूर्तिमान गरिमा महीयसी महादेवी वर्मा के चार व्याख्यानों का संग्रह है। महादेवी जी ने ये व्याख्यान जयपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की राजस्थान शाखा के निमंत्रण पर दिए थे।
इन चार व्याख्यानों के शीर्षक हैं–मीरा का युग, मीरा की साधना, मीरा के गीत और मीरा का विद्रोह। इनमें महादेवी ने मध्यकालीन स्त्री की स्थिति का विशेष सन्दर्भ लेकर भक्ति, मुक्ति, आत्मनिर्णय, विद्रोह और निजपथ-निर्माण आदि को विश्लेषित किया है।
‘मीरा और मीरा’ को प्रकाशित करते हुए हमें इसलिए भी विशेष प्रसन्नता है कि यह समय अस्मिता-विमर्श का है। स्त्री-विमर्श के ‘समय विशेष’ में स्त्री-अस्मिता के दो शिखर व्यक्तित्वों का ‘रचनात्मक संवाद’ महत्त्वपूर्ण है। इन दो दीपशिखाओं के आलोक में परम्परा और आधुनिकता के जाने कितने निहितार्थ स्पष्ट होते हैं। ‘शृंखला की कड़ियाँ’ की लेखिका ने ‘सूली ऊपर सेज पिया की’ का गायन करने वाली रचनाकार के मन में प्रवेश किया है। यह दो समयों (मध्यकाल और आधुनिक युग) का संवाद भी है।
यह सोने पर सुहागा ही कहा जाएगा कि प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका सुप्रसिद्ध कवि, कथाकार व विमर्शकार अनामिका ने लिखी है। कहना न होगा कि यह लम्बी भूमिका एक मुकम्मल आलोचनात्मक आलेख है।
Aadhunik Sahitya : Mulya Aur Mulyankan
- Author Name:
Nirmala Jain
- Book Type:

-
Description:
रचना और आलोचना की सतत् विकासमान प्रक्रिया युग-सापेक्ष सही मूल्यों का निर्धारण करती है तथा उन सार्थक प्रतिमानों का निर्माण करती चलती है जो साहित्य के मूल्यांकन को दिशा और गति देते हैं। इस दृष्टि से देखें तो डॉ. निर्मला जैन की यह पुस्तक अपना विशेष महत्त्व रखती है। इसमें 'मूल्य' और 'मूल्यांकन' के ही बिन्दुओं पर आधुनिक साहित्य की रचनात्मकता और आलोचनात्मकता के प्रश्नों को बारीकी और संजीदगी से उठाया गया है।
‘आधुनिक साहित्य : मूल्य और मूल्याकंन’ आलोचनात्मक निबन्धों का एक सुनियोजित उपयोगी संकलन है। समय-समय पर लिखे गए अपने इन निबन्धों में डॉ. जैन ने बहुत ही धारदार शैली में साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों और समस्याओं का वैचारिक विश्लेषण किया है। अनेक ऐसे मुद्दों को उन्होंने यहाँ नए आयाम दिए हैं जो बहसों के दौरान आए दिन बार-बार सामने आते रहे हैं। साथ ही, कविता और कथा के क्षेत्रों में अब तक की विशिष्ट उपलब्धियों को भी उन्होंने नए कोणों से देखा-परखा और रेखांकित किया है। संक्षेप में, यह पुस्तक रचना और आलोचना की सही पहचान कराने में सक्षम है।
Vichar Ka Aina : Kala Sahitya Sanskriti : Nirala
- Author Name:
Suryakant Tripathi 'Nirala'
- Book Type:

-
Description:
विचार का आईना शृंखला के अन्तर्गत ऐसे साहित्यकारों, चिन्तकों और राजनेताओं के ‘कला साहित्य संस्कृति’ केन्द्रित चिन्तन को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्होंने भारतीय जनमानस को गहराई से प्रभावित किया। इसके पहले चरण में हम मोहनदास करमचन्द गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारपरक लेखन से एक ऐसा मुकम्मल संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं जो हर लिहाज से संग्रहणीय है।
हिन्दी कविता के सौन्दर्यशास्त्र को हमेशा के लिए बदल देनेवाले सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ऐसे कवि-दार्शनिक हैं जिन्होंने कविता को न सिर्फ एक नए सौन्दर्य-बोध के साथ सड़क पर उतार दिया अपितु छायावाद को प्रगति की कामना और श्रम के मूल्यों से जोड़ने का भी काम किया। उनकी कविताएँ, कहानियाँ और उपन्यास हों या निबन्ध हों, उनके लेखन और चिन्तन में परम्परा और आधुनिकता के बीच एक द्वन्द्वात्मक रिश्ता सदा बना रहा जिसने उनके लेखन में विलक्षण रूप से नए-नए अर्थ सम्भव किए। उनकी “अन्याय जिधर है उधर शक्ति” जैसी पंक्ति अन्यायी सत्ता और उसके प्रतिरोध में खड़े जन का एक कालजयी रूपक बन गई। हमें उम्मीद है कि उनके कला, साहित्य और संस्कृति सम्बन्धी प्रतिनिधि निबन्धों की यह किताब पाठकों के समक्ष निराला के चिन्तन की एक मुकम्मल तसवीर पेश कर सकेगी।
Shabdon Ka Mandal
- Author Name:
Renata Czekalska
- Book Type:

-
Description:
यह पुस्तक हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ लेखक अशोक वाजपेयी के कृतित्व की प्रमुख काव्यात्मक स्पेसों का भाष्यपरक (हर्मेन्यूटिक) विश्लेषण है। पुस्तक के चार अध्याय उन महत्त्वपूर्ण नृतात्त्विक प्रश्नों पर केन्द्रित हैं जो इस कवि के सन्दर्भ में साधनभूत हैं, इस कवि के सन्दर्भ में विश्व के साथ एकत्व के सिद्धान्त की खोज की प्रक्रिया में भाषा को अस्तित्व के एक रूप और विस्तार में बदल देता है। लेखिका ने दर्शाया है कि किस तरह वाजपेयी भारतीय और पाश्चात्य सांस्कृतिक परम्पराओं का सहयोजन करते हुए अपनी कविता को ‘सभ्यताओं के बीच’ स्थित करते हैं, जहाँ वह काव्यात्मक सम्प्रेषण के मौलिक और आकर्षक पैटर्नों का रूप लेते विमर्श का आत्मनिर्भर विमर्श बनती है। यह पुस्तक आधुनिक वैश्वीकृत दुनिया में पूरब और पश्चिम की सांस्कृतिक मुठभेड़ के एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण को चित्रित करती है।
मूर्धन्य आलोचक मदन सोनी द्वारा किया गया पुस्तक का हिन्दी अनुवाद मूलतः पोलिश भाषा में लिखी गई पुस्तक के (स्वयं रेनाता चेकाल्स्का द्वारा किए गए) अंग्रेज़ी अनुवाद पर आधारित है।
Harishankar Parsai : Desh Ke Is Daur Mein
- Author Name:
Vishwanath Tripathi
- Book Type:

-
Description:
देश के इस दौर में हरिशंकर परसाई के व्यंग्य-निबन्धों की विवेचना है। यह वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपनी गहरी अन्तर्दृष्टि के साथ विवेचना की है। परसाई पर केन्द्रित पुस्तकों में इस पुस्तक का अपना अलग स्थान है। बकौल ज्ञानरंजन ‘यह अभी तक की एक अनुपम और अद्वितीय पुस्तक है जिसमें परसाई के रचना-संसार को समझने और उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है।’
त्रिपाठी जी का मानना है कि ‘परसाई का रचनाकार एक इतिहास-पुरुष है जो अपने समय का सबकुछ देख रहा है, अपने युग का चित्र बना रहा है। विवेक के साथ।’ वे कहते हैं कि ‘परसाई का व्यंग्य असहज-असुन्दर का उद्घाटन करके सहज-सुन्दर को गढ़ने का प्रयास करता है।’
लगभग चालीस वर्षों में फैली परसाई की रचनात्मकता को इस पुस्तक में विश्वनाथ त्रिपाठी ने जितने आत्मीय ढंग से जान-समझकर हम तक पहुँचाया है, उससे परसाई हमें एक नए सिरे से समझ आते हैं। वर्तमान की उनकी समझ, अपने पात्रों को लेकर उनकी संवेदना की व्यापकता, मनोविकारों का चित्रण, उनके व्यंग्य-निबन्धों के विषयों का असीम संसार, मानवीय करुणा, चरित्र-चित्रण और उनके सौन्दर्यबोध को उद्धरणों के साथ जिस तरह यहाँ विश्लेषित किया गया है, वह अपूर्व है।
यह इस पुस्तक का परिवर्द्धित संस्करण है जिसमें परसाई के जीवन-वृत्त के साथ भूमिका के रूप में उनके व्यंग्य पर केन्द्रित एक लम्बा आलेख भी शामिल किया गया है।
Sahityalochan
- Author Name:
Shyam Sundar Das
- Book Type:

-
Description:
‘साहित्यालोचन’ का प्रकाशन 1922 में हुआ था। हिन्दी भाषा के अध्ययन-अध्यापन और विकास के लिए बाबू श्यामसुन्दर दास ने जो प्रयास किए थे, उनमें इस पुस्तक का विशिष्ट स्थान है।
यह पुस्तक साहित्य और अन्यान्य कलाओं की मूल अवधारणाओं का निरूपण करते हुए, कला के भिन्न-भिन्न रूपों, और विशेष रूप से साहित्य की विभिन्न श्रेणियों के आस्वादन और तदनुरूप उनके विवेचन की आधारशिला रखनेवाली कृति है। ग़ौरतलब है कि बीसवीं सदी के आरम्भिक दशकों में जब हिन्दी की रचनात्मकता अपने शास्त्र की खोज ही कर रही थी, इस पुस्तक की मूल प्रस्थापनाओं में इस बात को रेखांकित करना उन्हें आवश्यक लगा था कि आलोचना-समीक्षा अथवा शास्त्र का काम साहित्य-रचना के लिए नियमों का निर्धारण नहीं है, बल्कि उसके साथ चलते हुए अपनी भी दृष्टि का विस्तार करना है। लेकिन आज भी आलोचना अक्सर इस भ्रम में भटक जाती है कि वह रचना को रास्ता दिखानेवाली कोई मशाल है।
इस पुस्तक को पढ़ते हुए हम जान पाते हैं कि हमारी भाषा का वह युग सत्य और तर्क को लेकर कितना सजग था और आज भी हमें उस दृष्टि की कितनी आवश्यकता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि गत लगभग एक सदी से यह पुस्तक अपनी उपयोगिता को बरकरार रखे हुए है, और आज भी न सिर्फ़ छात्रों के लिए बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए उपादेय है जो हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति गम्भीर है।
Aalochana Aur Vichardhara
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

-
Description:
‘आलोचना और विचारधारा’ डॉ. नामवर सिंह के व्याख्यानों का संग्रह है। इन व्याख्यानों के केन्द्र में ‘आलोचना’ है। संकलित 22 व्याख्यान किसी निश्चित परियोजना के तहत नहीं दिए गए हैं। इसीलिए इनमें कोई पूर्व निश्चित सिलसिला नहीं है। इन व्याख्यानों का समय भी दो दशक से अधिक तक फैला हुआ है। बावजूद इसके इनमें एक आन्तरिक एकता और सुसम्बद्धता है।
नामवर जी के व्याख्यानों की यह दूसरी पुस्तक है। ये व्याख्यान नामवर जी के उत्तरवर्ती समय की वैचारिकता की स्पष्ट झलक देते हैं। पूर्ववर्ती लेखन में वैचारिक संघर्ष के क्रम में समय-समय पर वे ‘आलोचना’ के बारे में अपनी राय रखते रहे, परन्तु आलोचना में स्वीकृत अवधारणाओं की विस्तृत समीक्षा करने और हिन्दी आलोचना की पूरी परम्परा पर एक साथ विचार करने के अवसर कम ही आए। इन व्याख्यानों में व्यक्त विचार वस्तुतः नामवर जी के सम्पूर्ण रचनात्मक जीवन के सार की तरह देखे जा सकते हैं। यह एक तरह से ‘मधु कोष’ है।
पुस्तक चार खंडों में बँटी हुई है। पहले खंड में संकलित दोनों व्याख्यान ‘नामवर के निमित्त’ के कार्यक्रमों में दिए गए थे। इधर के वर्षों में एक आलोचक के रूप में उनकी सभी प्रमुख चिन्ताएँ यहाँ एक साथ मौजूद हैं। दूसरे खंड के व्याख्यान नामवर जी की आलोचना की मूल दृष्टि को स्पष्ट करने में मदद करते हैं। इनका परिप्रेक्ष्य स्पष्टतः वैचारिक और अवधारणात्मक है।
तीसरे खंड के व्याख्यानों का सम्बन्ध हिन्दी की आलोचना विशेषतः उसके समकालीन परिदृश्य से है। आलोचना के समक्ष मौजूद संकटों को पहचानने की कोशिश करते ये व्याख्यान ज़रूरी विवादों के परिप्रेक्ष्य में अपना पक्ष मज़बूती से रखते हैं। चौथे खंड में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा और राहुल सांकृत्यायन पर केन्द्रित व्याख्यान हैं। आचार्य द्विवेदी पर एक शृंखला में दिए गए तीन व्याख्यानों में पहली बार उनकी रचनात्मकता की विशिष्टता का प्रकटन होता है।
नामवर जी की परवर्ती आलोचना में राहुल सांकृत्यायन के विचारों की एक अनुगूँज सुनी जा सकती है। डॉ. रामविलास शर्मा से संस्कृति सम्बन्धी विवादों का एक सिरा यहाँ तक भी जाता हुआ, स्पष्टतः देखा जा सकता है।
Dalit Sahitya : Anubhav, Sangharsh Evam Yatharth
- Author Name:
Omprakash Valmiki
- Book Type:

-
Description:
प्रस्तुत पुस्तक में दलित साहित्य की अन्त:चेतना को समझने की कोशिश की गई है जिसमें कवि-कहानीकार के रूप में दलित रचनाकार को अपनी रचना-प्रक्रिया के द्वारा दलित साहित्य की आन्तरिकता को तलाश करने के लिए कई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है।
दलित लेखक किसी समूह, मसलन—किसी जाति विशेष, सम्प्रदाय के ख़िलाफ़ नहीं है, व्यवस्था के विरुद्ध है। दलितों की प्राथमिक आवश्यकता अपनी अस्मिता की तलाश है, जो हज़ारों साल के इतिहास में दबा दी गई है। दलित साहित्य में जो आक्रोश दिखाई देता है, वह ऊर्जा का काम कर रहा है जिसकी उपस्थिति को ग़ैर-दलित आलोचक नकारात्मकता की दृष्टि से देखते हैं, जबकि वह दलित साहित्य को गतिशीलता के साथ जीवन्त भी बनाता है। आज भी भारत में जाति-व्यवस्था का अमानवीय रूप अनेक प्रतिभाओं के विनाश का कारण बनता है। लेकिन भारतीय मनीषा की महानता पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आज भी दलितों को पीने के पानी तक के लिए संघर्ष करना पड़ता है, दलित आत्मकथाएँ इन सबको पूरी ईमानदारी से बेनक़ाब करती हैं। दलित कहानियाँ समाज में रचे-बसे जातिवाद की भयावह स्थितियों से संघर्ष करने के साथ-साथ समाज में घृणा की जगह प्रेम की पक्षधरता दिखाती हैं। भारतीय समाज-व्यवस्था की असमानता पर आधारित जीवन की विषमताओं, विसंगतियों के बीच से दलित कविता का जन्म हुआ है जो नकार, विद्रोह और संघर्ष की चेतना के साथ सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध है, वह जीवन-मूल्यों की पक्षधर है। आलोचक उसके रूप और शिल्प-विधान को तलाश करते हुए उसकी आन्तरिक ऊर्जा को नहीं देखते हैं। दलित साहित्य-विमर्श में यदि यह पुस्तक कुछ जोड़ पाती है तो मुझे बेहद ख़ुशी होगी।
—भूमिका से
Customer Reviews
0 out of 5
Book
Be the first to write a review...