BHARAT-ISRAEL SAMBANDH
Author:
Maj (Dr.) Parshuram GuptPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
मेजर (डॉ.) परशुराम गुप्त
जन्म : 30 अगस्त, 1953 को रायबरेली जिले के सलोन नगर में।
शिक्षा एवं दायित्व : स्नातकोत्तर (इलाहाबाद विश्वविद्यालय), पी-एच.डी. (गोरखपुर विश्व विद्यालय), पूर्व प्राचार्य : गो. महंत अवेद्यनाथ महाविद्यालय, चौक, महाराज-गंज (उ.प्र.), पूर्व विभागाध्यक्ष एवं एसोशिएट प्रोफेसर, रक्षा अध्ययन विभाग, जवाहरलाल नेहरू स्मारक पो. ग्रे. कालेज, महाराजगंज (उत्तर प्रदेश)।
प्रकाशन : राष्ट्रीय महत्त्व की बीस पुस्तकें प्रकाशित और अनेक का लेखन अनवरत जारी।
सम्मान : दो बार रक्षा मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित, शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान हेतु दैनिक जागरण और भोजपुरी परिवार मस्कट, ओमान द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान हेतु सम्मानित, महानिदेशक, राष्ट्रीय कैडेट कोर द्वारा सम्मानित, भारत के मान. राष्ट्रपति (भारत सरकार) द्वारा राष्ट्रीय कैडेट कोर में प्रशंसनीय सेवा हेतु इसी कोर में ‘मेजर’ के अवैतनिक रैंक से सम्मानित, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, द्वारा ‘कबीर सम्मान’ से सम्मानित, उत्तर प्रदेश दिवस के अवसर पर साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान हेतु जिलाधिकारी द्वारा सम्मानित।
ISBN: 9789390900541
Pages: 200
Avg Reading Time: 7 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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लेखक ने अपने अध्ययन के दौरान इस पुस्तक में आर्य एवं हड़प्पा संस्कृतियों की भिन्नता को दर्शाया है। लेखक का मानना है कि हड़प्पा सभ्यता नगरी है लेकिन वैदिक सभ्यता में नगर का कोई चिह्न नहीं है। कांस्य युग का हड़प्पा सभ्यता में प्रमाण मिलता है। हड़प्पा में लेखन-कला प्रचलित थी लेकिन वैदिक युग में लेखन-कला का कोई प्रमाण नहीं है।
अपनी सूक्ष्म विश्लेषण-दृष्टि और अकाट्य तर्कशक्ति के कारण यह कृति भी लेखक की पूर्व-प्रकाशित अन्य कृतियों की तरह पठनीय और संग्रहणीय होगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
Singhbhum Ka Itihas: Pracheen Se Purv-Aupniveshik Kaal Tak
- Author Name:
Lalita Sundi
- Book Type:

- Description: औपनिवेशक पराधीनता झेल चुके समाजों का इतिहास जाने-अनजाने औपनिवेशक दृष्टिकोण के बोझ से दबा नजर आता है। भारत के आदिवासियों के सन्दर्भ में यह समस्या दोहरी रही है क्योंकि उनके सामने ब्रिटिश पराधीनता के साथ-साथ वर्चस्वशाली गैर-आदिवासी तबके का शोषण भी रहा है। दरअसल आदिवासियों का इतिहास भी अब तक ज्यादातर गैर-आदिवासी ही लिखते रहे हैं जिसमें उन्हें देखने के दो प्रमुख दृष्टिकोण रहे हैं। पहला, सब-आल्टर्न परिप्रेक्ष्य जिसमें इतिहास को नीचे से देखने अर्थात उपेक्षित-वंचित तबकों का इतिहास में समुचित उल्लेख करने और उन्हें वाजिब श्रेय देने पर जोर रहा है। और दूसरा, राष्ट्रवादी परिप्रेक्ष्य जिसमें मुख्य रूप से राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में आदिवासियों की भूमिका को रेखांकित किया जाता रहा है। ये दोनों दृष्टिकोण भी आदिवासी समुदायों को अन्य और विशिष्ट सांस्कृतिक समूह मानने की औपनिवेशिक भ्रान्ति से मुक्त नहीं रह पाए। इसलिए इन दोनों तरह के इतिहासकारों के लेखन में प्राचीन और मध्यकालीन आदिवासी राजवंशों और गणराज्यों की प्रभावी उपस्थिति का जिक्र या आकलन न के बराबर मिलता है। ललिता सुंडी की यह पुस्तक उपरोक्त सीमाओं को लाँघकर आदिवासी इतिहास को बहुआयामी स्वरूप प्रदान करती है। इसमें सिंहभूम की भौगोलिक स्थिति, प्राचीन इतिहास, राजवंशों का उदय, राजनीतिक परिदृश्य, सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराएँ, पारम्परिक शासनप्रणाली, क्षेत्र के प्रमुख आदिवासी समुदायों का महत्व और उनका परस्पर सम्बन्ध आदि तमाम विषयों को समाहित किया गया है। इस ऐतिहासिक विवेचना में सिंहभूम के अर्थशास्त्रीय पक्ष को भी शामिल किया गया है। वस्तुतः यह पुस्तक सिंहभूम के हवाले से आदिवासियों के प्रति रूढ़ दृष्टिकोण को नकारने की एक शोधपरक पहल है जिसमें उन्हें सिर्फ जंगल और पिछड़ेपन से जोड़कर देखे जाने के विपरीत उनके समृद्ध इतिहास को प्रस्तुत किया गया है। इसका दस्तावेजी महत्त्व असंदिग्ध है।
Hadappa Sabhyata Aur Vaidik Sahitya
- Author Name:
Bhagwan Singh
- Book Type:

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Description:
हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य (1987) के प्रकाशन से पहले तक इतिहासकार और पुरातत्त्वविद् अपने-अपने क्षेत्रों में अर्ध-दिग्भ्रमित से प्राचीनतम इतिहास को समझने का प्रयत्न कर रहे थे और अपने साक्ष्यों से टकराते हुए ख़ुद पछाड़ खाकर गिर जाते थे। अन्तर्विरोधी दावों का ऐसा दबाव था कि उनके पक्ष में प्रमाण भी नहीं मिल रहे थे और फिर भी उनका निषेध नहीं हो पा रहा था। सच तो यह है कि न तो इतिहास को अपना पुरातत्त्व मिल रहा था, न पुरातत्त्व को अपना इतिहास। ‘हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य’ के प्रकाशन ने इन दोनों अनुशासनों और इनके प्रमाण-पुरुषों के आत्मनिर्वासन को पहली बार पूरे अधिकार और विपुल प्रमाणों के साथ खंडित किया और उसके बाद भारतीय पुरातत्त्व में पुरातात्त्विक सामग्री को साहित्य से जोड़कर भी देखने का आरम्भ हुआ। इस अर्थ में इसे एक युगान्तरकारी कृति के रूप में स्वीकार किया गया।
इस बीच शब्दमीमांसा को आधार बनाकर भी लेखक ने ऋग्वैदिक भाषा का अध्ययन किया और साहित्यिक सन्दर्भ से हटकर उनके शब्दों के मूलार्थ को ग्रहण करते हुए तकनीकी शब्दावली के आधार पर अपनी स्थापनाओं की जाँच करते हुए लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इनसे उसकी स्थापनाओं की पुष्टि ही नहीं होती, अपितु ‘हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य’ में प्रकाशित उसकी स्थापनाएँ आइसबर्ग के दृश्य भाग को ही प्रकट कर पाई हैं। हड़प्पा सभ्यता के लगभग सभी प्रमुख पार्थिव लक्षणों की पुष्टि तो ऋग्वेद से होती ही है, यह ऐसे अनेक उदात्त और जीवन्त सांस्कृतिक पक्षों का भी उद्घाटन करता है जिनकी आशा पार्थिव अवशेषों से की ही नहीं जा सकती। उसके इस अध्ययन का सार The Vedic Harappans (1995) के रूप में प्रकाशित हुआ।
इस पुस्तक के वर्तमान संस्करण में इस पक्ष का समावेश भी किया गया है जिससे इसकी सार्थकता इसके ही पूर्व संस्करणों से अधिक बढ़ जाती है। इस संस्करण को आदि से अन्त तक सम्पादित करते हुए कुछ और भी परिवर्द्धन-संशोधन किए गए हैं। हड़प्पा सभ्यता का वैभव और वैदिक साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने की दृष्टि से यह पुस्तक अनन्य है।
Pracheen Bharat Mein Nagar Tatha Nagar-Jivan
- Author Name:
Uday Narayan Rai
- Book Type:

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Description:
इस ग्रन्थ में आरम्भ से लेकर बारहवीं शती ई. तक ‘प्राचीन भारत में नगर तथा नगर-जीवन’ विषय का विशद् एवं रोचक ऐतिहासिक परिचय पहली बार प्रस्तुत किया गया
है।इस ग्रन्थ के प्रथम तीन अध्यायों में आज से लगभग साढ़े चार हज़ार वर्षों पूर्व ताम्राश्म-काल में प्रथम नगरीय सभ्यता का स्वदेशी उद्भव एवं प्रारम्भिक विकास, हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो-सदृश प्रथम नगरों के सन्निवेश का मौलिक स्वरूप, पाश्चात्य समकालीन नगरों की तुलना में उनके निर्माण की उत्कृष्टता, कालान्तर में लौह काल में द्वितीय पुर-कान्ति के साथ गांगेय उपत्यका में नगरीकरण की प्रक्रिया का आरम्भ, नगर-सन्निवेश की विकसित शैली तथा नगर-तत्त्वों के नवीन विकास और समावेश के विवरण प्राप्य हैं।
तदुपरान्त चतुर्थ से लेकर ग्यारहवें अध्याय तक देश के लगभग पचास प्रतिनिधि नगरों का तिथिक्रम के अनुसार ऐतिहासिक परिचय, नगर एवं गृह-निर्माण की वैज्ञानिक पद्धति, भारतीय अभियन्ताओं की मौलिक सूझ-बूझ तथा नगर-शासन की विशेषताओं का परिचय उपलब्ध होता है। बारहवें से पन्द्रहवें अध्याय तक नगरों का आर्थिक जीवन एवं संघटन, सामाजिक, भौतिक एवं सांस्कृतिक जीवन की विशेषताओं का विश्लेषण, प्राचीन भारतीय कला में नगरीय रूपांकन तथा समग्र परिशीलन का सारगर्भित निष्कर्ष प्राप्य है।
नवीनतम साक्ष्यों के आधार पर इस रचना को अधिकाधिक सज्य बनाने का प्रयास किया गया है। इसका प्रत्येक अध्याय सम्यक् पठनीय तथा नवीन तथ्यों से भरपूर एवं ऋद्ध है। अद्यतन पुरातत्त्वीय साक्ष्यों से मंडित सटीक चित्रफलक, मानचित्र एवं युक्तियाँ विवेचन को अधिकाधिक प्रामाणिक, रोचक एवं सारगर्भित बनाने के उद्देश्य से यथास्थान संयुक्त हैं।
आशा एवं विश्वास है कि अपने वर्तमान स्वरूप में यह पहले से अधिक उपादेय एवं अपने अभीष्ट की पूर्ति में सफल सिद्ध हो सकेगी।
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