Adhyatmik Guruon Ke Prerak Vichar
Author:
Swati GautamPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
अध्यात्म का अर्थ है—स्वयं का अध्ययन। धर्म का अर्थ है— कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्गुण और जो धारण करने योग्य है, जिसे सभी मनुष्यों को धारण करना चाहिए। धर्म-अध्यात्म हमें ऐसी शक्ति की ओर ले जाते हैं, जो हमारी आस्तिकता को मजबूत बनाती है। जो ईश्वर में विश्वास करे, वह आस्तिक होता है। वही आस्तिकता जब मजबूत होती है, तब व्यक्ति अध्यात्म की ओर बढ़ता है और एक ऐसी शक्ति में विश्वास करता है, जो ऊर्जा का केंद्र है, जो हमारे जीवन का केंद्रबिंदु है।
भारत आध्यात्मिक विभूतियों का केंद्र रहा है। चाहे रामकृष्ण परमहंस, दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, रमण महर्षि, अखंडानंद सरस्वती हों—मानवकल्याण के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करनेवाले इन दिव्य प्रेरणापुंजों ने मानव जीवनमूल्यों की स्थापना के लिए जो वाणीरत्न दिए, वे सबके लिए वरेण्य हैं, अनुकरणीय हैं। इन्हें जीवन में उतारकर हम एक सफल-सार्थक-समर्पित जीवन जी सकते हैं।
भारतीयता के ध्वजवाहक विश्वविख्यात आध्यात्मिक गुरुओं के प्रेरक वचनों का यह संकलन हमें जीवन के हर अवसर पर प्रेरणा देगा, हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाएगा।
ISBN: 9789390378715
Pages: 208
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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पुस्तक की भूमिका ‘अनभै साँचा’ में एक वाक्य है—‘हिन्दी संस्कृति में वाद-विवाद को अच्छा नहीं समझा जाता।’ बावजूद इसके यदि डॉ. नामवर सिंह वाद-विवाद को करणीय मानते हैं तो उद्देश्य उनका संवाद ही है, क्योंकि साहित्य हो या समाज, संवादहीनता ठहराव और घुटन को जन्म देती है।
‘वाद विवाद संवाद’ के तमाम निबन्धों की रचना इसी पृष्ठभूमि में हुई है और वह भी इस महत्त्वपूर्ण, आत्मस्वीकृति के साथ कि ‘अपने आप से असहमति का जोखिम उठाकर भी दूसरे के साथ संभाव्य सहमति की तलाश वांछनीय है और मानवीय भी। सुसंगति की वेदी पर इस मानवीय दुर्बलता की बलि देने का मन नहीं होता।’ क्योंकि साहित्य न तो तर्कशास्त्र है और न मनुष्य। वस्तुतः यही वह भावना है जो संवाद को रचनात्मक बनाती है। उल्लेखनीय है कि यहाँ संकलित निबन्धों में से अधिसंख्य पिछले तीन दशकों के दौरान हिन्दी आलोचना के अन्तर्गत तीव्र वाद-विवाद के केन्द्र में रहे हैं। नामवर जी ने इनमें अत्यन्त बारीकी और बेबाकी से उन मुद्दों पर विचार किया है जो कि समकालीन भाषा, साहित्य और आलोचना-कर्म की बुनियादी चिन्ताओं से सम्बद्ध हैं जिन्हें प्रायः अनदेखा कर दिया जाता है। ऐसे निबन्धों में ‘आलोचना की संस्कृति और संस्कृति की आलोचना’, ‘प्रासंगिकता का प्रमाद’, ‘प्रगतिशील साहित्य-धारा में अंध लोकवादी रुझान’, ‘प्रगीत और समाज’, ‘युवा लेखन पर एक बहस’, ‘विश्वविद्यालय में हिन्दी’ तथा ‘आलोचना और संस्थान’ विशेष रूप से पठनीय हैं।
निश्चय ही यह एक ऐसी आलोचनात्मक कृति है जो हमारे साहित्यिक संस्कार और समझ को अधिकाधिक सार्थक और प्रासंगिक बनाती है।
Hindi Vyakaran Mimansa
- Author Name:
Kashiram Sharma
- Book Type:

- Description: व्याकरण छह वेदांगों में से एक है। वह वेद का मुख है। अत: भारत में उसके अध्ययन की प्राचीनता उतनी ही है जितनी वेदों की। आज से कम से कम अढ़ाई हज़ार वर्ष पूर्व तो पाणिनि ने उसे पूर्णता तक पहुँचा दिया था। व्याकरण में वर्णों के उच्चारण, शब्दों की रचना और रूप रचना तथा वाक्यों की रूप-रचना पर विचार होता है। वह भाषा का उच्चारण और रूप रचनामूलक अध्ययन करता है। दूसरे शब्दों में, वह शब्द-प्रधान है, अर्थ-प्रधान नहीं। इसीलिए उसे शब्दानुशासन या शब्दशास्त्र भी कहते हैं। पश्चिम के ग्रामर अर्थ-प्रधान होते हैं। वे वर्णों के केवल लिपिगत रूप पर विचार करते हैं। शब्दों का वर्गीकरण उनके अर्थ के आधार पर करते हैं : अमुक बोधक, तमुक वाचक आदि। वाक्य में रूप-रचना का भी ध्यान रखते हैं पर प्रधानता विश्लेषण की ही होती है जो प्रकार्य (अर्थ) प्रधान होती है—क्रिया, उसका कर्ता, कर्म, पूरक आदि। सार यह कि ग्रामर अर्थ-प्रधान होते हैं, व्याकरण शब्द-प्रधान। हिन्दी आदि सीखने के लिए विदेशियों ने ग्रामर बनाए, दुर्भाग्य से उन्हें ही व्याकरण कहा जाने लगा। बाद में ब्लूमफील्ड आदि ने भाषा के अध्ययन की व्याकरणिक शैली अपनाई पर उसे ग्रामर नहीं कहा, संरचनात्मक भाषिकी आदि कहा। उनकी भाषिकी व्याकरण है। इसीलिए उन्होंने ग्रामर नहीं कहा प्रस्तुत रचना में डॉ. दीमशिन्स, कामता प्रसाद गुरु और किशोरीदास वाजपेयी के व्याकरणों की समीक्षा के व्यपदेश से व्याकरण का विषय क्षेत्र तो स्पष्ट किया ही गया है, सच्चे हिन्दी व्याकरण की रूपरेखा भी दी गई है; ऐसे व्याकरण बनेंगे तो भाषा अध्ययन की सही दिशा मिलेगी। जो ग्रामरी शैली को ठीक समझें, वे ग्रामर पढ़ें और लिखें भी, पर उन्हें व्याकरण न कहें? व्याकरण की वही परिभाषा रहने दें जो चार-पाँच हज़ार वर्ष से रही है।
Hindi Upanyas Ka Itihas
- Author Name:
Gopal Ray
- Book Type:

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Description:
बीसवीं शताब्दी के अन्त के साथ हिन्दी उपन्यास की उम्र लगभग 130 वर्ष की हो चुकी है। बड़े ही बेमालूम ढंग से 1970 ई. में पं. गौरीदत्त की ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’ के रूप में इसका जन्म हुआ, जिसकी तरफ़ लगभग सौ वर्षों तक किसी का ध्यान भी नहीं गया। लेखक ने पुष्ट तर्कों के आधार पर ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’ को हिन्दी के प्रथम उपन्यास के रूप में स्वीकार किया है और 1970 ई. से 2000 ई. तक की अवधि में हिन्दी उपन्यास के ऐतिहासिक विकास को समझने का प्रयास किया है।
हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों के प्रामाणिक विवरण का अभिलेख सुरक्षित रखने की समृद्ध और विश्वसनीय परम्परा प्रायः नहीं है। इस कारण हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन में अनेक प्रकार की मुश्किलें आती हैं। इस पुस्तक में पहली बार लगभग 1300 उपन्यासों का उल्लेख उनके प्रामाणिक प्रकाशन-काल के साथ किया गया है। यह दावा तो नहीं किया जा सकता कि इस किताब में कोई महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार या उपन्यास छूट नहीं गया है, पर इस बात की कोशिश ज़रूर की गई है। साहित्य के इतिहास में सभी लिखित-प्रकाशित रचनाओं का उल्लेख न सम्भव है न आवश्यक, इसलिए सचेत रूप में भी अनेक उपन्यासों का ज़िक्र इस पुस्तक में नहीं किया गया है।
साहित्य के इतिहास में पुस्तकों की प्रकाशन-तिथियों की प्रामाणिकता के साथ-साथ यह भी ज़रूरी होता है कि सम्बद्ध विधा के विकास की धाराओं की सही पहचान की जाए। विधा के रूप में हिन्दी उपन्यास का विकास अभी जारी है। विकास ‘ऐतिहासिक काल’ में ही होता है और इतिहास में प्रामाणिक तथ्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कोशिश यह की गई है कि यह पुस्तक हिन्दी उपन्यास का मात्र ‘इतिहास’ न बनकर ‘विकासात्मक इतिहास’ बने।
Kahani Nai Kahani
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

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Description:
प्रस्तुत पुस्तक लगभग एक दशक की चिन्तन-यात्रा की पगडंडी है जिसमें कथा-समीक्षा की एक पद्धति निकालने की कोशिश की गई है।
इस कहानी में आलोचना की वही विश्लेषणात्मक पद्धति अपनाई गई है जो पिछले कुछ दशकों से छोटी कविताओं के विश्लेषण में सफल पाई गई थी। इस निबन्ध से, मेरे निकट, उन लोगों के लिए भी उत्तर प्रस्तुत था जिनका यह आरोप था कि मैं कहानी-समीक्षा में काव्य-समीक्षा की पद्धति का बलात् उपयोग करके भूल कर रहा हूँ।
हिन्दी आलोचना जो अभी तक मुख्यतः काव्य-समीक्षा रही है, कविता से कथा-नाटक आदि साहित्य-रूपों का विधिवत् विश्लेषण करके ही अपने को सुसंगत एवं समृद्ध बना सकती है। कहानी-समीक्षा सम्बन्धी ये निबन्ध इसी दिशा में विनम्र प्रयास हैं। इसीलिए इनका महत्त्व केवल कहानियों की समीक्षा तक सीमित न होकर एक व्यापक समीक्षा-पद्धति के निर्माण की दिशा में है।
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