Vatayan
Author:
ShivaniPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
घर के झरोखे से बैठे-बैठे देखते रहिए, जाने कितने दृश्य आँखों के आगे चलचित्र की तरह गुज़रते जाते हैं, तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की घटनाएँ। शिवानी जी के इस ‘वातायन’ से भी बहुत विस्तृत और रंग-बिरंगे दृश्य-पट दिखाई देते हैं। बिना पैसा-कौड़ी लिए हड्डी बिठानेवाला, चमचमाती मोटरों पर पोश होटलों में महँगे डिनर खाते लोग, और बाहर एक-एक दाने को तरसते भिखारी। न जाने कितनी पुरानी यादें, कितने कड़वे-तीते अनुभव, जो हमें रोज़ होते हैं, और इनके पीछे हैं लेखिका की गहरी संवेदना और अप्रतिम वर्णन शैली।</p>
<p>ऊँचे अधिकारी अपने इन्द्रासन से हटते ही किस प्रकार नगण्य हो जाते हैं, छोटे-छोटे दफ़्तरों के छोटे-छोटे अधिकारियों के हाथों किस प्रकार प्रताड़ना सहते हैं, मृत पति की पेंशन लेने किस प्रकार एक महिला को क़दम-क़दम पर हृदयहीन लालफ़ीताशाही का सामना करना पड़ता है, ये सब अनुभव मार्मिकता के साथ शिवानी के ‘वातायन’ में मिलते हैं। इनको निबन्ध की संज्ञा देने से इनका ठीक परिचय नहीं मिलता। ये झाँकियाँ हैं—केवल बाहरी नहीं, अन्तर की भी। लखनऊ के दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’ में प्रति सप्ताह ‘वातायन’ को पढ़ने के लिए लोग कितने लालायित रहते हैं, इनको पढ़ने के बाद कितने फ़ोन और पत्र आते हैं लेखिका और सम्पादक दोनों के पास, यह इनकी लोकप्रियता का प्रमाण है।</p>
<p>शिवानी की प्रतिभा का यह नया आयाम है। इनमें गहरी पकड़ है जो उनकी कहानियों व उपन्यासों में मिलती है। साथ ही इनमें लेखिका के प्राचीन संस्कृत साहित्य के ज्ञान और सुसंस्कृत व्यक्तित्व का भी पुट है। इनसे हिन्दी पत्रकारिता में स्तम्भ-लेखन का स्तर ऊँचा हुआ है। अंग्रेज़ी में चार्ल्स डिकेंस, मार्क ट्वेन, रडयार्ड किपलिंग, चेस्टर्टन आदि के उत्कृष्ट निबन्ध और कथाएँ समाचार-पत्रों के माध्यम से ही पहली बार प्रस्तुत हुई थीं। हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएँ विविध और विशाल पाठक वर्ग तक पहुँचती हैं और लेखक को नियमित और रेडीमेड श्रोता-मंडल देती हैं, परन्तु पत्र-पत्रिकाएँ एक बार पढ़कर फेंक दी जाती हैं, जबकि पुस्तकें साथ रहती हैं। ‘वातायन’ में शिवानी ने साहित्य-निधि दी है।</p>
<p>—अशोक जी
ISBN: 9788183614290
Pages: 92
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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“मुझे एक ऐसे महापुरुष के चरणों में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है जिसका जीवन उसकी समस्त शिक्षाओं व उपदेशों की अपेक्षाकृत हज़ारों गुणा अधिक उपनिषदों की वाणी की एक उत्कृष्ट जीवित व्याख्या है, जो वास्तव में मानवरूप में उपनिषदों की एक जीवित आत्मा है...जो भारत के विभिन्न विचारों का समन्वय है...।” यह महापुरुष और कोई नहीं, रामकृष्ण परमहंस थे।
स्वामी विवेकानन्द आगे लिखते हैं : “भारत-भूमि हमेशा विचारकों और ऋषियों से समृद्ध रही है। शंकर के पास एक महान मस्तिष्क था और चैतन्य के पास एक विशाल हृदय था और अब वह समय आ गया था जब मस्तिष्क और हृदय—इन दोनों के एक समन्वित मूर्तरूप की आवश्यकता थी—एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जिसके अन्दर एक ही शरीर में शंकर के चमत्कारिक मस्तिष्क और चैतन्य के आश्चर्यजनक रूप से उदार व विशाल हृदय का समावेश हो; जो प्रत्येक सम्प्रदाय में एक ही आत्मा, एक ही परमात्मा को कार्य करते हुए देखता हो; जो प्रत्येक वस्तु के अन्दर भगवान को देखता हो, जिसका हृदय इस संसार में भारतवर्ष व उसके बाहर सब जगह समस्त दीन-दुखियों, दुर्बलों, पददलितों और पीड़ितों के लिए आर्तनाद करता हो और इसके साथ ही जिसकी विशाल तीव्र बुद्धि परस्पर विरोधी विभिन्न सम्प्रदायों के बीच संगति स्थापित करनेवाले उदार विचारों की कल्पना करती हो...और उनमें संगति स्थापित करके मस्तिष्क और हृदय के एक सार्वभौम धर्म को जन्म देनेवाली हो—ऐसे मनुष्य ने जन्म लिया था।...समय उसके अनुकूल था, यह आवश्यक था कि ऐसे मनुष्य का जन्म हो, और वह आया था, और सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि उसका कर्मक्षेत्र एक ऐसी नगरी के निकट था, जो पाश्चात्य विचारों से पूर्ण थी, जो पश्चिमी विचारों के पीछे पागल हो उठी थी और जिस नगरी ने भारत के अन्य सब नगरों की अपेक्षा कहीं अधिक आचार-विचारों को अपनाया था। ऐसे स्थान में, बिना किसी किताबी ज्ञान के वह रहता था। इस महान मनीषी को अपना नाम तक भी लिखना न आता था, परन्तु हमारे विश्वविद्यालयों के बड़े-बड़े प्रतिभाशाली स्नातक उसकी बुद्धि की विराट शक्ति को देखकर दंग रह जाते थे...वह अपने समय का महान ऋषि था, जिसकी शिक्षाएँ वर्तमान समय के लिए सबसे अधिक लाभदायक हैं।”
...यदि मैं आपको एक भी सत्य बात कहता हूँ तो वह उसकी और केवल उसकी है और यदि मैंने आपसे कोई भ्रान्तिपूर्ण या ग़लत बातें कही हैं, तो वे सब मेरी अपनी हैं, उनका उत्तरदायित्व मेरे ऊपर है।’’
“जिस मनुष्य की मूर्ति की मैं यहाँ स्थापना करना चाहता हूँ, वह तीस करोड़ नर-नारियों के दो सहस्र वर्षव्यापी आध्यात्मिक जीवन का परिपूर्ण रूप है। यद्यपि चालीस वर्ष हुए, उसका देहावसान (सन् 1886) हो चुका है, तथापि उसकी आत्मा आधुनिक भारत को प्राणदान कर रही है। वह गांधी के समान कर्मवीर नहीं था, कला या विचार में गेटे व टैगोर के समान प्रतिभाशाली नहीं था। वह बंगाल के एक छोटे से गाँव का रहनेवाला ब्राह्मण था, जिसका बाह्य जीवन संकीर्ण रूढ़ियों की सीमा में आबद्ध था। उसमें उल्लेख योग्य कोई विशेष घटना न थी, और तात्कालिक सामाजिक व राजनीतिक हलचल से वह सर्वथा पृथक् था; परन्तु उसके आन्तरिक जीवन में नाना देवताओं और मानवों का एक विचित्र समावेश था। उसका अभ्यन्तरीय जीवन उस सकल शक्ति की मूलाधार स्वरूपिणी दैवी ‘शक्ति’ का अंशमात्र था, जिस दैवी शक्ति की मिथिला के प्राचीन कवि विद्यापति और बंगाल के कवि रामप्रसाद ने वन्दना की है।
—रोमां रोलां
Borunda Diary
- Author Name:
Malchand Tiwari
- Book Type:

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ऐसे लेखक बिरले होते हैं जो अपनी आधुनिकता/प्रगतिशीलता को सही विकल्प मानने के बावजूद उस अहंकार को जीत पाते हैं जो आधुनिकता और प्रगतिशीलता में कहीं बद्धमूल है। बिज्जी ऐसे बिरले आधुनिक लेखक थे। वे पूर्व-आधुनिक से उसकी वाणी नहीं छीनते, उसका ‘प्रतिनिधि’ बनने की, उसे अपने अधीन लाने की और इस तरह अपने को श्रेष्ठतर जताने की औपनिवेशिक कोशिश नहीं करते। जैसे ‘व्हाइट मेन’स बर्डन’ होता है वैसे ही एक ‘मॉडर्न मेनֹ’स बर्डन’ भी होता है। बिज्जी के कथा-लोक में उनकी ‘बातां री फुलवाड़ी’ में, जो उनके लेखन का सबसे सटीक रूपक भी है और उनका मैग्नम ओपस भी, पूर्व-आधुनिक भी फूल हैं, ‘पिछड़े’, ‘गँवार’ नहीं।
बिज्जी ताउम्र बोरूंदा में रहे, वहीं एक प्रेस स्थापित किया, प्रणपूर्वक राजस्थानी में लिखा और अपने गाँव में अपने प्रगतिशील, आधुनिक विचारों और नास्तिकता के बावजूद विरोधी भले माने गए हों, ‘बाहरी’ कभी नहीं माने गए।
चौदह खंडों में ‘बातां री फुलवाड़ी’ रचकर उन्होंने भारतीय और विश्वसाहित्य के इतिहास में जिस युगान्तकारी परिवर्तन का सूत्रपात किया था, वह अब भी हिन्दी पाठकों को अपनी समग्रता में उपलब्ध नहीं था। बिज्जी के स्नेहाधिकारी और द्विभाषी लेखक मालचन्द तिवाड़ी उसके बड़े हिस्से का अनुवाद करने के लिए एक साल तक बिज्जी के साथ बोरूंदा में रहे, वही एक साल जो बिज्जी के जीवन का अन्तिम एक साल सिद्ध हुआ। इस डायरी में बिज्जी का वह पूरा साल है जब वे शारीरिक रूप से परवश होकर अपनी स्वभावगत सक्रियता का अनन्त भार अपने मन पर सँभाले रोग-शय्या पर थे।
यह भी एक अर्थ-बहुल विडम्बना है कि बिज्जी के शाहकार का अनुवाद एक ऐसे लेखकीय आत्म के हाथों सम्पन्न हुआ जो इस डायरी-वृत्तान्त में एक आस्तिक ही नहीं, एक पूर्व-आधुनिक की तरह प्रस्तुत है। इस डायरी-वृत्तान्त को पढ़ना, डायरीकार को पढ़ना दरअसल बिज्जी के अपने रचे समाज को, उनके कथा-संसार को पढ़ना है जिसके साथ बिज्जी के द्वन्द्वात्मक लेकिन करुणामय सम्बन्ध का एक उदाहरण इस डायरीकार के साथ बिज्जी का—और बिज्जी के साथ डायरीकार का—अपना निजी, जटिल और रागात्मक सम्बन्ध है।
C.V. Raman : A Biography
- Author Name:
Uma Parameswaran
- Book Type:

- Description: Celebrated for his groundbreaking discovery, the Raman Effect, C.V. Raman (1888–1970) was the first non-white and the first Asian to receive a Nobel Prize in the sciences in 1930. He also became the first Indian director of the Indian Institute of Science in Bangalore. While Raman’s scientific work is significant and well documented, his personal story is less known. In this thoroughly researched and comprehensive volume, the biographer sheds light on Raman’s personal vision, quirks, and struggles. In her attempt to record his life, she traces the influences and events that shaped Raman into the fascinating man and scientist he was.
Potraj
- Author Name:
Parth Polke
- Book Type:

- Description: “मेरा बाप पोतराज था। पोतराज कमर में रंग-बिरंगे खंडों के चीथड़े तथा कपड़े पहनते हैं। पोतराज की उस पोशाक को आभरान कहते हैं। आभरान मुझे यहाँ की व्यवस्था द्वारा पोतराज को दिए हुए राजवस्त्र लगते हैं। हाँ, ऐसे राजवस्त्र जो ज़िन्दगी को चीथड़े-चीथड़े कर डालते हैं। आभरान पहनकर अपने बदन को कोड़ों से फटकारता हुआ मेरा बाप—आबा—हमारे लिए घर-घर भीख माँगता रहा। सारी ज़िन्दगी उसने पोतराज के रूप में खटते-घसीटते बिताई। आख़िर उसी में वह मरा। मरना सबको है; लेकिन यहाँ की व्यवस्था ने न जाने कितने लोगों को बिना सहमते-संकोचते, बड़े आराम से बलि चढ़ाया है। मेरे आबा उन्हीं में से एक हैं। पोतराज के जिस आभरान को उतारना आबा के लिए सम्भव नहीं हुआ, मैंने उसे उतारा। उसकी होली जलाते हुए भी मेरा मन भीतर ही भीतर आबा और बाई की यादों से बेचैन रहा। मैं उपेक्षा तथा ग़रीबी की लपटों की आँच सहनेवाले अनेकों में से एक हूँ। व्यवस्था द्वारा दी गई वेदना का साक्षी हूँ। भुक्तभोगी हूँ। ये वेदनाएँ मुझ जैसे अनेक की अनेक पीढ़ियों को चुभती रही हैं। मैं दु:खों और वेदनाओं को कुरेदते हुए जीना नहीं चाहता; लेकिन एक प्रश्न अवश्य पूछना चाहता हूँ कि यह सारा दु:ख-दर्द हमें ही क्यों भोगना पड़ता है।” ‘पोतराज’ में उपस्थित लेखक पार्थ पोलके के ये शब्द सहसा हृदय को विचलित कर देते हैं। मूल मराठी भाषा में लिखित चर्चित आत्मकथा का यह हिन्दी अनुवाद पाठकों को निश्चित रूप से एक नवीन सामाजिक दृष्टि प्रदान करेगा। सघन संवेदना, समानता के तीखे प्रश्न, अभाव के असमाप्त अरण्य और अदम्य जिजीविषा—ये तत्त्व इस रचना को महत्त्वपूर्ण बनाते हैं।
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