Muktibodh Ki Kavya Srishti
Author:
Suresh RituparnaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 476
₹
595
Available
आधुनिक हिन्दी काव्य-साहित्य के इतिहास में निराला के बाद मुक्तिबोध एक ऐसे कवि के रूप में सदैव याद किए जाएँगे जिनका जीवन ही उनकी कविता होती है। जिसकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं होता है।</p>
<p>मुक्तिबोध के काव्य का निर्माण चेतना को झकझोर देनेवाले अन्तःसंघर्ष, उनके अभिशप्त युग तथा व्यक्तित्व के सन्धान से उपजा है। वस्तुत: उनकी कविताओं का पेचीदापन इसी अन्तःसंघर्ष की उपज है। लेकिन अपने युग को अर्थ और वाणी देने से अधिक और क्या सार्थक कार्य कोई कवि कर सकता है!</p>
<p>मुक्तिबोध का काव्य इस चुनौती को स्वीकार करता है तथा अपने युग की भयावहता को पूर्णता के साथ रूपायित भी करता है।</p>
<p>यह सच है कि मुक्तिबोध एक प्रतिबद्ध कवि हैं लेकिन उनकी प्रतिबद्धता को किसी वाद-विशेष से जोड़कर ही यदि देखा जाता रहा तो यह उनकी काव्य-प्रतिभा के साथ अन्याय ही होगा। वस्तुत: उनकी प्रतिबद्धता तो वैश्विक स्तर पर श्रमशील मानव के प्रति ही रही है। प्रस्तुत पुस्तक मुक्तिबोध की काव्य-संवेदना को इसी दृष्टिकोण से समझने का प्रयास है।
ISBN: 9788171199747
Pages: 128
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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प्रोफ़ेसर कृष्णमुरारि मिश्र आधुनिक हिन्दी आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। हिन्दी में आद्यबिम्बात्मक आलोचना के प्रवर्तन का श्रेय उन्हें प्राप्त है। साहित्यिक कृतियों की संरचनात्मक गहनताओं की व्याख्या और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन के लिए उन्हें विशेष ख्याति मिली है। ‘आद्यबिम्ब और साहित्यालोचन’ शीर्षक उनका प्रस्तुत ग्रन्थ इस आलोचना के सिद्धान्त और सम्प्रयोग से सम्बद्ध है। ग्रन्थ में तीन शीर्षक ग्रंथित हैं—'आद्यबिम्ब', 'आद्यबिम्ब और साहित्यालोचन : आधार' तथा ' आद्यबिम्ब और साहित्यालोचन : स्वरूप'।
'आद्यबिम्ब' शीर्षक के अन्तर्गत आद्यबिम्ब की युगीय धारणा का सैद्धान्तिक विवेचन है। इसमें फ़्रायड और युग की धारणाओं के मूलभूत अन्तर का हिन्दी में पहली बार उद्घाटन है। साथ ही आद्यबिम्ब की युगीय धारणा का सारभूत आख्यान है जिसमें यौगपत्य के अल्पज्ञात वैज्ञानिक सिद्धान्त की भी चर्चा है। 'आद्यबिम्ब और साहित्यालोचन : आधार' शीर्षक से मुख्यतया युग के कला-चिन्तन का विवेचन है। आद्यबिम्बात्मक आलोचना की सैद्धान्तिकी के इस विवेचन से सिद्ध है कि युग का कला-चिन्तन हमारे भारतीय साहित्य-चिन्तन के लिए विजातीय नहीं है। वह भारतीय साहित्यशास्त्र के कालसिद्ध निकषों का पोषक है। युग की कलाविषयक धारणाएँ रससिद्धान्त और ध्वनिसिद्धान्त के बहुत निकट हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य-हेतु के रूप में प्रतिभा के जिस स्वरूप की स्थापना की गई है, वह सामूहिक अचेतन की युगीय धारणा के निकट है। सर्जक के व्यक्तित्व की असाधारणता को भारतीय आचार्यों के समान युग ने भी मुक्त कंठ से स्वीकार किया है। भारतीय आचार्यों के समान युग ने भी काव्य की लोकमंगलकारिणी शक्ति पर बल दिया है। उन्होंने सर्जक, भावक और समाज के सन्दर्भ में काव्य के माध्यम से जिस आत्मोपलब्धि का उल्लेख किया है, उसमें आनन्द और लोकमंगल दोनों का समावेश है। 'आद्यबिम्ब और साहित्यालोचन : स्वरूप' शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दी की आद्यबिम्बात्मक आलोचना के स्वरूप की सम्यक् विवृत्ति है।
आशा है, यह ग्रन्थ भी उनके पूर्व प्रकाशित ग्रन्थों की तरह हिन्दी में समादृत होगा।
Ghananad Ka Kavya
- Author Name:
Ramdev Shukla
- Book Type:

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घनानन्द के काव्य में भावस्थितियों के विकास का कोई क्रम बना-बनाया नहीं मिलता, किन्तु उनके शृंगार-काव्य में उसे ढूँढ़ना कठिन भी नहीं है। प्रिय के असाधारण रूप के प्रति आश्रय की रीझ, पूर्वराग की आवेगदशा, असाधारण सुख के अतिरेक के साथ रंकवत लालसा की सीत्कार और ‘शुद्ध सामीप्य’ जैसी तन्मयता वाला संयोग और उस संयोग के बाद स्वभावतः तीव्र विरहानुभूति, यह सब कुछ उनके काव्य में है।
घनानन्द में अतृप्ति है तो इस स्तर की है। इसके आधार पर इनको प्रेम का सुख न प्राप्त कर सकनेवाला भाग्यहीन नहीं घोषित किया जा सकता।
प्रेम के ऐसे विलक्षण अनुभव के बाद ही घनानन्द का विरह इतना तीव्र आवेगमय, इतना करुण और इतना गम्भीर हो सका है कि संसार की दृष्टि में प्रेम के सर्वश्रेष्ठ प्रतीक मीन और पतंग इनके सामने कायर और कपूत होकर हर जाते हैं।
घनानन्द के काव्य के शिल्प-पक्ष के सम्बन्ध में भी ऐसे ही निष्कर्ष निकाले गए हैं : ‘कवि की प्रवृत्ति अपने हृदय की परत खोलने की अधिक होती है, अपनी उक्ति को सजाने-सँवारने की कम।’
Madhyakaleen Sant Kavi
- Author Name:
Naveen Nandwana
- Book Type:

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मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन का स्वरूप अखिल भारतीय था। देश के अलग-अलग प्रान्तों और क्षेत्रों में सगुण भक्ति के साथ-साथ निर्गुणी संतों ने अपनी वाणियों के माध्यम से ईश्वर का गुणगान किया। वहीं दूसरी ओर तत्कालीन समाज और धर्म में विद्यमान रूढ़ियों, कुरीतियों और बुराइयों पर करारी चोट की। इन संतों ने एक ओर मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा का व्यापक प्रयास किया तो वहीं दूसरी ओर ऊँच-नीच, जाति-पाँति, छुआछूत और आडम्बरों के खिलाफ सशक्त आवाज उठाई।
उत्तर भारत में एक ओर जहाँ कबीर, रैदास, दादूदयाल और सुन्दरदास आदि संतों ने ईश्वर भक्ति का भाव जगाकर तत्कालीन समाज को दिशा दी, देश के विभिन्न प्रान्तों में अन्य संतों ने भी अपना अहम योगदान दिया। महाराष्ट्र के वारकरी और महानुभाव सम्प्रदाय के संतों ने भी भक्ति और सुधार की अलख जगाई, असम में शंकरदेव ने ज्ञान और भक्ति की अलख जगाई। राजस्थान में दादूदयाल और दादूपन्थ के संतों ने महनीय कार्य किया। राजस्थान की महिला संतों—दयाबाई और सहजो बाई ने भी ईश्वर भक्ति का गुणगान किया।
संत साहित्य मानव धर्म का साहित्य है। यह संसार के सभी मनुष्यों को ईश्वर की सृष्टि मानता है। अतः जाति आधारित भेदभावों का यहाँ कोई स्थान नहीं है। ...संत साहित्य सरलता एवं सहजता का साहित्य है। सभी संतों ने धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में व्याप्त रूढ़ियों एवं आडम्बरों का विरोध किया।
‘मध्यकालीन संत कवि’ पुस्तक में संत मत पर विचार होने के साथ-साथ मध्यकालीन संतों का स्मरण है। पुस्तक में संकलित आलेख संतों के जीवन पर प्रकाश डालने के साथ-साथ उनकी रचनाओं के वैशिष्ट्य का भी वर्णन करते हैं। विविध संतों पर केन्द्रित आलेख मध्यकालीन निर्गुण भक्ति साधना की परम्परा को समझाने में अपनी महती भूमिका रखते हैं।
Bihari Ka Naya Mulyankan
- Author Name:
Bachchan Singh
- Book Type:

- Description: प्रस्तुत पुस्तक में ‘बिहारी सतसई’ का मूल्यांकन करते समय तत्कालीन सामन्तीय परिवेश को बराबर दृष्टि में रखा गया है। बिहारी दरबार में रहते थे, पर उनको दरबारी नहीं कहा जा सकता। उनमें चाटु की प्रवृत्ति नहीं थी, वे वेश-भूषा, रहन-सहन, आन-बान आदि में किसी सामन्त-सरदार से कम न थे, उनका दृष्टिकोण पूर्णतः सामन्तीय था, जो ‘सतसई’ के काव्य तथा शैलीगत सतर्कता और सज्जा में अभिव्यक्त हो उठा है। उनके प्रेम, नारी-सम्बन्धी भाव, गाँव-सम्बन्धी विहार सभी पर सामन्त-कवि की छाप है, दरबारी कवि की नहीं। इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करने पर ही ‘सतसई’ का सम्यक् आकलन किया जा सकता था। इसके लिए भी सतसई को ही साक्ष्य माना गया है। इससे सुविधा भी हुई। तत्कालीन परिस्थिति और राजनीतिक स्थिति के नाम पर कहीं से इतिहास के दस-बीस पृष्ठ फाड़कर चिपकाने नहीं पड़े। ‘नयी-समीक्षा’ का आग्रह भी कुछ ऐसा ही है।
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